श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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महा कलोल बुझहि माइआ के करि किरपा मेरे दीन दइआल ॥ अपणा नामु देहि जपि जीवा पूरन होइ दास की घाल ॥१॥

पद्अर्थ: कलोल = चोज तमाशे, नखरे। बुझहि = बुझ जाते हैं, प्रभाव नहीं डाल सकते। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! जपि = जप के। जीवा = जाऊँ, मै आत्मिक जीवन प्राप्त करूँ। पूरन = सफल। घाल = मेहनत।1।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है, माया के रंग-तमाशे उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते। हे प्रभु! (मुझे भी) अपना नाम बख्श, तेरा नाम जप के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर सकूँ, तेरे (इस) दास की मेहनत सफल हो जाए।1।

सरब मनोरथ राज सूख रस सद खुसीआ कीरतनु जपि नाम ॥ जिस कै करमि लिखिआ धुरि करतै नानक जन के पूरन काम ॥२॥२०॥५१॥

पद्अर्थ: सरब = सारे। मनोरथ = मुरादें। सद = सदा। जपि = जप के। जिस कै करमि = जिसकी किस्मत में। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। पूरन = सफल।2।

नोट: ‘जिस कै करमि’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप के, परमात्मा की महिमा करके सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं (मानो) राज के सुख और रस मिल जाते हैं, सदा आनंद बना रहता है। (पर) हे नानक! कर्तार ने जिस मनुष्य की किस्मत में धुर दरगाह से (ये नाम की दाति) लिख दी, उसी मनुष्य के सारे कार्य सफल होते हैं।2।20।51।

धनासरी मः ५ ॥ जन की कीनी पारब्रहमि सार ॥ निंदक टिकनु न पावनि मूले ऊडि गए बेकार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सार = संभाल। टिकनु न पावनि = (सेवक के मुकाबले में) टिकाव हासिल नहीं कर सकते, नहीं अड़ सकते। मूले = बिल्कुल ही। बेकार = नकारा (हो के)।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने (सदा ही) अपने सेवकों की संभाल की है। (उनकी) निंदा करने वाले उनके मुकाबले में बिल्कुल ही अड़ नहीं सकते। (जैसे हवा के आगे बादल उड़ जाते हैं वैसे ही निंदक सेवकों के मुकाबले में हमेशा) नकारे हो के उड़ गए।1। रहाउ।

जह जह देखउ तह तह सुआमी कोइ न पहुचनहार ॥ जो जो करै अवगिआ जन की होइ गइआ तत छार ॥१॥

पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। पहुचनहारा = बराबरी कर सकने लायक। जो जो = जो जो मनुष्य। अवगिआ = निरादरी। तत = तुरंत। छार = स्वाह, राख।1।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा की कोई भी बराबरी नहीं कर सकता, मैं जहाँ जहाँ देखता हूँ वहाँ ही वह मालिक प्रभु बसता है, उसके सेवक की जो भी निरादरी करता है, (वह आत्मिक जीवन में) तुरंत राख हो जाता है।1।

करनहारु रखवाला होआ जा का अंतु न पारावार ॥ नानक दास रखे प्रभि अपुनै निंदक काढे मारि ॥२॥२१॥५२॥

पद्अर्थ: जा का = जिस (करने वाला प्रभु) का। प्रभि = प्रभु ने। मारि = मार के, आत्मिक मौत मार के।2।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसकी हस्ती का परला-उरला छोर नहीं पाया जा सकता, वह सबको पैदा करने वाला परमात्मा (अपने सेवकों का सदा) रखवाला रहता है। हे नानक! प्रभु ने अपने सेवकों की सदा रखवाली की है, और उनकी निंदा करने वालों को आत्मिक मौत मार के (अपने दर से) निकाल बाहर करता है।2।21।52।

धनासरी महला ५ घरु ९ पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि चरन सरन गोबिंद दुख भंजना दास अपुने कउ नामु देवहु ॥ द्रिसटि प्रभ धारहु क्रिपा करि तारहु भुजा गहि कूप ते काढि लेवहु ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! गोबिंद = हे गोबिंद! दुख भंजना = हे दुखों के नाश करने वाले! कउ = को। द्रिसटि = नजर। प्रभ = हे प्रभु! करि = कर के। तारहु = पार लंघा ले। भुजा = बाँह। गहि = पकड़ के। कूप ते = कूएं में से। रहाउ।

अर्थ: हे हरि! हे गोबिंद! हे दुखों का नाश करने वाले! अपने दास को अपना नाम बख्श। हे प्रभु! (अपने दास पर) मेहर की निगाह कर, कृपा करके (दास को संसार समुंदर से) पार लंघा ले, (दास की) बाँह पकड़ के (दास को मोह के) कूएं में से निकाल ले। रहाउ।

काम क्रोध करि अंध माइआ के बंध अनिक दोखा तनि छादि पूरे ॥ प्रभ बिना आन न राखनहारा नामु सिमरावहु सरनि सूरे ॥१॥

पद्अर्थ: करि = के कारण। अंध = (बहुवचन) अंधे होए हुए। बंध = बंधनों में। दोखा = पाप। तनि = शरीर में। छाइ = छाए हुए। पूरे = पूरी तरह। आन = अन्य, कोई और। सरनि सूरे = हे शरण के सूरमे, हे शरण आए हुए की सहायता करने वाले।1।

अर्थ: हे प्रभु! काम-क्रोध (आदि विकारों) के कारण (जीव) अंधे हुए पड़े हैं, माया के बंधनो में फसे पड़े हैं, अनेक विकार (इनके) शरीर में पूरी तरह से प्रभाव डाले बैठे हैं। हे प्रभु! तेरे बिना कोई और (जीवों की विकारों से) रक्षा करने के लायक नहीं। हे शरण आए की इज्जत रख सकने वाले! अपना नाम जपा!।1।

पतित उधारणा जीअ जंत तारणा बेद उचार नही अंतु पाइओ ॥ गुणह सुख सागरा ब्रहम रतनागरा भगति वछलु नानक गाइओ ॥२॥१॥५३॥

पद्अर्थ: पतित उधारणा = हे विकारियों को बचाने वाले! बेद उचार = वेदों का पाठ करने वालों ने। गुणह सागरा = हे गुणों के समुंदर! रतनागरा = हे रत्नों की खान! वछलु = वत्सल, प्यार करने वाला। नानक = हे नानक!।2।

अर्थ: हे विकारियों को बचाने वाले! हे सारे जीवों को पार लंघाने वाले! वेदों को पढ़ने वाले भी तेरे गुणों का अंत नहीं पा सके। हे नानक! (कह:) हे गुणों के समुंदर! हे रत्नों की खान पारब्रहम! मैं तुझे भक्ति से प्यार करने वाला जान के तेरी महिमा कर रहा हूँ।2।1।53।

धनासरी महला ५ ॥ हलति सुखु पलति सुखु नित सुखु सिमरनो नामु गोबिंद का सदा लीजै ॥ मिटहि कमाणे पाप चिराणे साधसंगति मिलि मुआ जीजै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। नित = नित्य। सिमरनो = स्मरण करने से। लीजै = लेना चाहिए। मिटहि = मिट जाते हैं। कमाणे चिराणे = चिर से कमाए हुए। मिलि = मिल के। मुआ = आत्मिक मौत मरा हुआ। जीजै = जी पड़ता है, आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए। स्मरण इस लोक में और परलोक में सदा ही सुख देने वाला है (नाम-जपने की इनायत से) चिरों के किए हुए पाप मिट जाते हैं। हे भाई! साधु-संगत में मिल के (स्मरण करने से) आत्मिक मौत मरा हुआ मनुष्य दोबारा आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।1। रहाउ।

राज जोबन बिसरंत हरि माइआ महा दुखु एहु महांत कहै ॥ आस पिआस रमण हरि कीरतन एहु पदारथु भागवंतु लहै ॥१॥

पद्अर्थ: बिसरंत = भुला देते हैं। महा = बड़ा। एहु = ये (वचन)। महांत = बड़ी आत्मा वाले। कहै = कहें। पिआस = तमन्ना। रमण = स्मरण। कीरतन = महिमा। भागवंतु = किस्मत वाला मनुष्य। लहै = प्राप्त करता है।1।

अर्थ: हे भाई! राज और जवानी (के हुल्लारे) परमात्मा का नाम भुला देते हैं। माया का मोह बड़े दुखों (का मूल) है - ये बात महापुरुख बताते हैं। परमात्मा के नाम के स्मरण, परमात्मा की महिमा की आस व तमन्ना - ये कीमती चीज कोई दुर्लभ भाग्यशाली मनुष्य प्राप्त करता है।1।

सरणि समरथ अकथ अगोचरा पतित उधारण नामु तेरा ॥ अंतरजामी नानक के सुआमी सरबत पूरन ठाकुरु मेरा ॥२॥२॥५४॥

पद्अर्थ: सरणि समरथ = हे शरण आए की सहायता करने वाले! अकथ = हे एसे प्रभु जिसका स्वरूप बयान नहीं हो सकता। अगोचरा = हे अगोचर! (अ+गो+चर। गो = ज्ञानेंद्रियां। चर = पहुँच) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे रहने वाले हे प्रभु! पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित उधारण = विकारियों को विकारों से बचाने वाला। अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले! सरबत = सर्वत्र, हर जगह।2।

अर्थ: हे शरण आए की सहायता करने के लायक! हे अकथ! , हे अगोचर! , हे अंतरजामी! हे नानक के मालिक! तेरा नाम विकारियों को विकारों से बचा लेने वाला है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभु सब जगह व्यापक है।2।2।58।

धनासरी महला ५ घरु १२    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

बंदना हरि बंदना गुण गावहु गोपाल राइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बंदना = नमसकार। गुण गोपाल राइ = प्रभु पातशाह के गुण। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा को हमेशा नमस्कार किया करो, प्रभु पातशाह के गुण गाते रहो। रहाउ।

वडै भागि भेटे गुरदेवा ॥ कोटि पराध मिटे हरि सेवा ॥१॥

पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। भेटे = मिलता है। कोटि = करोड़ों। सेवा = भक्ति।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को खुश-किस्मती से गुरु मिल जाता है, (गुरु के द्वारा) परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से उसके करोड़ों पाप मिट जाते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh