श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चरन कमल जा का मनु रापै ॥ सोग अगनि तिसु जन न बिआपै ॥२॥

पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। रापै = रंगा जाता है। सोग = चिन्ता। बिआपै = जोर डालती।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन परमात्मा के सोहणें चरणों (के प्रेम-रंग में) रंगा जाता है, उस मनुष्य पर चिन्ता की आग जोर नहीं डाल सकती।2।

सागरु तरिआ साधू संगे ॥ निरभउ नामु जपहु हरि रंगे ॥३॥

पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। साधू = गुरु। रंगे = रंगि, प्रेम से।3।

अर्थ: हे भाई! प्रेम सं निर्भय प्रभु का नाम जपा करो। गुरु की संगति में (नाम जपने की इनायत से) संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।3।

पर धन दोख किछु पाप न फेड़े ॥ जम जंदारु न आवै नेड़े ॥४॥

पद्अर्थ: पर धन = पराया धन। दोख = ऐब। फेड़े = बुरे कर्म। जंदारु = (जंदाल) अवैड़ा।4।

अर्थ: हे भाई! (स्मरण के सदका) पराए धन (आदि) के कोई ऐब आदि दुष्कर्म नहीं होते, भयानक यम भी नजदीक नहीं फटकता (मौत का डर नहीं व्याप्ता, आत्मिक मौत नजदीक नहीं आती)।4।

त्रिसना अगनि प्रभि आपि बुझाई ॥ नानक उधरे प्रभ सरणाई ॥५॥१॥५५॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। उधरे = (विकारों से) बच गए।5।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य प्रभु के गुण गाते हैं) उनकी तृष्णा की आग प्रभु ने खुद बुझा दी है। हे नानक! प्रभु की शरण पड़ कर (अनेक जीव तृष्णा की आग में से) बच निकलते हैं।5।1।55।

धनासरी महला ५ ॥ त्रिपति भई सचु भोजनु खाइआ ॥ मनि तनि रसना नामु धिआइआ ॥१॥

पद्अर्थ: त्रिपति = शांति। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। मनि = मन में। तनि = हृदय में। रसना = जीभ (से)।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने मन में, हृदय में, जीभ से परमात्मा का नाम स्मरणा शुरू कर दिया, जिसने सदा-स्थिर हरि नाम (की) खुराक खानी शुरू कर दी उसको (माया की तृष्णा की ओर से) शांति आ जाती है।1।

जीवना हरि जीवना ॥ जीवनु हरि जपि साधसंगि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जपि = जपा करो। साध संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (बैठ के) परमात्मा का नाम जपा करो- यही है असल जीवन, यही है असल जिंदगी।1। रहाउ।

अनिक प्रकारी बसत्र ओढाए ॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुन गाए ॥२॥

पद्अर्थ: अनिक प्रकारी = कई किसमों के। बसत्र = वस्त्र, कपड़े। ओढाए = पहन लिए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।2।

अर्थ: जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा की महिमा करता है, प्रभु के गुण गाता है, उसने (मानो) कई किस्मों के (रंग-बिरंगे) कपड़े पहन लिए हैं (और वह इन सुंदर पोशाकों का आनंद ले रहा है)।2।

हसती रथ असु असवारी ॥ हरि का मारगु रिदै निहारी ॥३॥

पद्अर्थ: हसती = हाथी। असु = अश्व, घोड़े। मारगु = रास्ता। रिदै = हृदय में। निहारी = देखता है।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा के मिलाप का राह देखता रहता है, वह (जैसे) हाथी, रथों, घोड़ों की सवारी (के सुख मजे ले रहा है)।3।

मन तन अंतरि चरन धिआइआ ॥ हरि सुख निधान नानक दासि पाइआ ॥४॥२॥५६॥

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर। सुख निधान = सुखों का खजाना। दासि = (उस) दास ने।4।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने अपने मन में हृदय में परमात्मा के चरणों का ध्यान धरना शुरू कर दिया है, उस दास ने सुखों के खजाने प्रभु को पा लिया है।4।2।56।

धनासरी महला ५ ॥ गुर के चरन जीअ का निसतारा ॥ समुंदु सागरु जिनि खिन महि तारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीअ का = जिंद का। निसतारा = पार उतारा। सागरु = समुंदर। जिनि = जिस (गुरु) ने। तारा = पार लंघा लेता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस (गुरु) ने (शरण आए मनुष्य को सदा) एक छिन में संसार समुंदर से पार लंघा दिया; उस गुरु के चरणों का ध्यान जिंद के वास्ते संसार-समुंदर से पार लंघाने के लिए साधन हैं।1। रहाउ।

कोई होआ क्रम रतु कोई तीरथ नाइआ ॥ दासीं हरि का नामु धिआइआ ॥१॥

पद्अर्थ: क्रम = कर्मकांड, धार्मिक रस्में। रतु = मस्त, प्रेमी। तीरथ = तीर्थों पर। दासीं = दासों ने।1।

अर्थ: हे भाई1 कोई मनुष्य धार्मिक रस्मों का प्रेमी बन जाता है; कोई मनुष्य तीर्थों पर स्नान करता फिरता है। परमात्मा के दासों ने (सदा) परमात्मा का नाम ही स्मरण किया है।1।

बंधन काटनहारु सुआमी ॥ जन नानकु सिमरै अंतरजामी ॥२॥३॥५७॥

पद्अर्थ: काटनहारु = काट सकने वाला। सुआमी = मालिक। नानकु सिमरै = नानक स्मरण करता है।2।

अर्थ: हे भाई! दास नानक (भी उस परमात्मा का नाम) स्मरण करता है जो सबके दिल की जानने वाला है, जो सबका मालिक है, जो (जीवों के माया के) बंधन काटने की सामर्थ्य रखता है।2।3।57।

धनासरी महला ५ ॥ कितै प्रकारि न तूटउ प्रीति ॥ दास तेरे की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कितै प्रकारि = किसी भी तरह से। न तूटउ = टूट ना जाए। निरमल = पवित्र। रीति = जीवन जुगति, जीवन मर्यादा, रहन-सहन।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे दासों का रहन-सहन पवित्र रहता है, ता कि किसी भी तरह से (उनकी तेरे से) प्रीति टूट ना जाए।1। रहाउ।

जीअ प्रान मन धन ते पिआरा ॥ हउमै बंधु हरि देवणहारा ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ ते = जिंद से। बंधु = रोक, बाँध। देवणहारा = देने योग्य।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दासों को अपनी जिंद से, प्राणों से, मन से, धन से, वह परमात्मा ज्यादा प्यारा है जो अहंकार के रास्ते में बाँध लगाने की सामर्थ्य रखता है।1।

चरन कमल सिउ लागउ नेहु ॥ नानक की बेनंती एह ॥२॥४॥५८॥

पद्अर्थ: सिउ = साथ। लागउ = लगी रहे। नेहु = प्यार, प्रीति।2।

अर्थ: हे भाई! नानक की (भी परमात्मा के दर पर सदा) यही अरदास है कि उसके सुंदर चरणों के साथ (नानक का) प्यार बना रहे।2।4।58।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धनासरी महला ९ ॥

काहे रे बन खोजन जाई ॥ सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: काहे = किस लिए? रे = हे भाई! बन = जंगलों में। बनि = जंगल में। निवासी = बसने वाला। अलेपा = निर्लिप, माया के प्रभाव से स्वतंत्र। तोही संगि = तेरे संग ही, तेरे साथ ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा को) ढूँढने के लिए जंगलों में क्यों जाता है? परमात्मा सबमें बसने वाला है, (फिर भी) सदा (माया के प्रभाव से) निर्लिप रहता है। वह परमात्मा तेरे साथ बसता है।1। रहाउ।

पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई ॥ तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई ॥१॥

पद्अर्थ: पुहप = फूल। मधि = में। बासु = सुगंधि। मुकर = शीशा। छाई = छाया, अक्स। निरंतरि = निर+अंतर, बिना दूरी के, सब जगह, सबमें। घट ही = हृदय में ही। भाई = हे भाई! 1।

नोट: ‘घट ही’ में से ‘घटि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! जैसे फूल में सुगंधि बसती है, जैसे शीशे में (शीशा देखने वाले का) अक्स बसता है, वैसे ही परमात्मा एक-रस सबके अंदर बसता है। (इस वास्ते उसको) अपने हृदय में ही तलाश।1।

बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई ॥ जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ॥२॥१॥

पद्अर्थ: भीतरि = (अपने शरीर के अंदर)। गुर गिआनु = गुरु का ज्ञान। गुरि = गुरु ने। आपा = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। बिनु चीने = परखे बिना। भ्रम = भटकना। काई = हरे रंग का जाला जो उस जगह लग जाता है जहाँ पानी काफी समय तक खड़ा रहे। इस जाले के कारण पानी जमीन में रच नहीं सकता। इसी तरह भटकना के जाले के कारण पानी जमीन के अंदर असर नहीं करता।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु का (आत्मिक जीवन का) उपदेश ये बताता है कि (अपने शरीर के) अंदर (और अपने शरीर से) बाहर (हर जगह) एक परमात्मा को (बसता) समझो। हे दास नानक! अपना आत्मिक जीवन परखे बिना (मन पर पड़ा हुआ) भटकना का जाला दूर नहीं हो सकता (और, तब तक सर्व-व्यापक परमात्मा की सूझ नहीं आ सकती)।2।1।

धनासरी महला ९ ॥ साधो इहु जगु भरम भुलाना ॥ राम नाम का सिमरनु छोडिआ माइआ हाथि बिकाना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साधो = हे संतजनो! भरमि = (माया की) भटकना में (पड़ के)। भुलाना = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है। हाथि = हाथ में। बिकाना = बिका हुआ है।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनो! ये जगत (माया की) भटकना में (पड़ कर) गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। प्रभु के नाम का स्मरण छोड़े रहता है, और, माया के हाथ में बिका रहता है (माया के बदले आत्मिक जीवन गवा देता है)।1। रहाउ।

मात पिता भाई सुत बनिता ता कै रसि लपटाना ॥ जोबनु धनु प्रभता कै मद मै अहिनिसि रहै दिवाना ॥१॥

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। ता कै रसि = उनके मोह में। लपटाना = फसा रहता है। जोबनु = जवानी। प्रभता = प्रभुता, ताकत, हकूमत। मद = नशा। मै = में। अहि = दिन। निसि = रात। दिवाना = पागल, झल्ला।1।

अर्थ: हे संत जनो! माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री- (भूला हुआ जगत) इनके मोह में फसा रहता है। जवानी, धन, ताकत के नशे में जगत दिन-रात पागल हुआ रहता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh