श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 685 दीन दइआल सदा दुख भंजन ता सिउ मनु न लगाना ॥ जन नानक कोटन मै किनहू गुरमुखि होइ पछाना ॥२॥२॥ पद्अर्थ: दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। सिउ = साथ। नानक = हे नानक! कोटन मै = करोड़ों में। किनहू = किसी विरले ने। गुरमुखि होइ = गुरु की शरण पड़ कर।2। अर्थ: जो परमात्मा दीनों पर दया करने वाला है, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, जगत उससे अपना मन नहीं जोड़ता। हे दास नानक! (कह:) करोड़ों में से किसी विरले (दुर्लभ) मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के साथ सांझ डाली है।2।2। धनासरी महला ९ ॥ तिह जोगी कउ जुगति न जानउ ॥ लोभ मोह माइआ ममता फुनि जिह घटि माहि पछानउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तिह जोगी कउ = उस जोगी को। जुगति = सही जीवन विधि। जानउ = मैं समझता हूँ। फुनि = फिर, और। जिह घट महि = जिस (जोगी) के हृदय में। पछानउ = पहचानूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस (जोगी) के हृदय में लोभ माया के मोह और ममता (की लहरें उठ रही) देखता हूँ, मैं समझता हूँ कि उस जोगी को (सही) जीवन-विधि (अभी) नहीं आई।1। रहाउ। पर निंदा उसतति नह जा कै कंचन लोह समानो ॥ हरख सोग ते रहै अतीता जोगी ताहि बखानो ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै = जिसके हृदय में। कंचनु = सोना। लोह = लोहा। समानो = एक जैसा। हरख = खुशी। सोग = ग़म। ते = से। अतीता = विरक्त, परे। ताहि = उसको ही। बखानो = कह।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में पराई निंदा नहीं है, पराई खुशामद नहीं है, जिसको सोना लोहा एक जैसे ही दिखते हैं, जो मनुष्य खुशी गमी से निर्लिप रहता है; उसको ही जोगी कह।1। चंचल मनु दह दिसि कउ धावत अचल जाहि ठहरानो ॥ कहु नानक इह बिधि को जो नरु मुकति ताहि तुम मानो ॥२॥३॥ पद्अर्थ: चंचल = भटकन वाला। दह = दस। दिसि = दिशाओं। कउ = को, की तरफ। जाहि = जिसने। अचलु = अडोल। को = का। इह बिधि को = इस किस्म का। मुकति = विकारों से खलासी। मानो = मान ले, समझ।2। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) ये सदा भटकता रहने वाला मन दसों दिशाओं में दौड़ता फिरता है। जिस मनुष्य ने इसे अडोल करके टिका लिया है, जो मनुष्य इस किस्म का है, समझ लें उसे विकारों से खलासी मिल गई है।2।3। धनासरी महला ९ ॥ अब मै कउनु उपाउ करउ ॥ जिह बिधि मन को संसा चूकै भउ निधि पारि परउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अब = अब। कउनु = कौन सा। करउ = करूँ। जिह बिधि = जिस तरीके से। को = का। संसा = सहम। चूकै = समाप्त हो जाए। भउ निधि = संसार समुंदर। परउ = पड़ूँ, मैं पार हो जाऊँ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अब मैं कौन सा प्रयत्न करूँ (जिससे मेरे) मन का सहम खत्म हो जाए, और, मैं संसार-समुंदर से पार लांघ जाऊँ।1। रहाउ। जनमु पाइ कछु भलो न कीनो ता ते अधिक डरउ ॥ मन बच क्रम हरि गुन नही गाए यह जीअ सोच धरउ ॥१॥ पद्अर्थ: पाइ = हासल करके। भलो = भलाई। ता ते = इसलिए। अधिक = बहुत। डरउ = डरूँ, मै डरता हूँ। मनि = मन से। बचि = वचन से। यह सोच = ये चिन्ता। जीअ = मन में। धरउ = मैं धरता हूं।1। अर्थ: हे भाई! मानव जन्म प्राप्त करके मैंने कोई भलाई नहीं की, इसलिए मैं बहुत डरता रहता हूँ। मैं (अपने) अंदर (हर वक्त) यही चिन्ता करता रहता हूँ कि मैंने अपने मन से अपने वचन से, कर्म से (कभी भी) परमात्मा के गुण नहीं गाए।1। गुरमति सुनि कछु गिआनु न उपजिओ पसु जिउ उदरु भरउ ॥ कहु नानक प्रभ बिरदु पछानउ तब हउ पतित तरउ ॥२॥४॥९॥९॥१३॥५८॥४॥९३॥ पद्अर्थ: सुनि = सुन के। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। पसु जिउ = पशू की तरह। उदरु = पेट। भरउ = भरूँ, भरता हूँ। प्रभ = हे प्रभु! बिरदु = मूल कदीमों का (प्यार वाला) स्वभाव। हउ = मैं। पतित = विकारों में गिरा हुआ, विकारी। तरउ = तैरूँ, मैं तैर सकता हूँ।2। अर्थ: हे भाई! गुरु की मति सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन की कुछ भी सूझ पैदा नहीं हुई, मैं पशू की तरह (रोज) अपना पेट भर लेता हूँ। हे नानक! कह: हे प्रभु! मैं विकारी तब ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ सकता हूँ अगर तू अपना मूल कदीमों वाला प्यार वाला स्वभाव याद रखे।2।4।9।9।13।58।4।93। नोट: आखिरी अंकों का वेरवा: 2. इस शब्द के दो बंद हैं 4. महला ९ का चौथा शब्द। 9. राग धनासरी में महला १ के शब्द 9. राग धनासरी में महला ३ के शब्द 13. राग धनासरी में महला ४ के शब्द 58. राग धनासरी में महला ५ के शब्द 4. राग धनासरी में महला ९ के शब्द 93– सारे शबदों का जोड़। नोट: महला ५ के शब्द खत्म होने पर 9।9।13।58। का जोड़ ‘89’ नहीं दिया गया।
धनासरी महला १ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुरु सागरु रतनी भरपूरे ॥ अम्रितु संत चुगहि नही दूरे ॥ हरि रसु चोग चुगहि प्रभ भावै ॥ सरवर महि हंसु प्रानपति पावै ॥१॥ पद्अर्थ: रतनी = रत्नों से, सुंदर जीवन उपदेश। भरपूरे = नाको नाक भरे हुए। संत = गुरमुखि लोग। चुगहि = चुगते हैं। चोग = खुराक, आत्मिक जीवन की खुराक। प्रानपति = परमात्मा।1। अर्थ: गुरु (मानो) एक समुन्द्र (है जो प्रभु की महिमा से) नाको नाक भरा हुआ है। गुरमुख सिख (उस सागर में से) आत्मिक जीवन देने वाली खुराक (प्राप्त करते हैं जैसे हंस मोती) चुगते हैं, (और गुरु से) दूर नहीं रहते। प्रभु की मेहर के अनुसार संत-हंस हरि-नाम रस (की) चोग चुगते हैं। (गुरसिख) हंस (गुरु-) सरोवर में (टिका रहता है, और) जिंद के मालिक प्रभु को पा लेता है।1। किआ बगु बपुड़ा छपड़ी नाइ ॥ कीचड़ि डूबै मैलु न जाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बगु = बगुला। बपुड़ा = बिचारा। नाइ = नहाता है। कीचड़ि = कीचड़ में।1। रहाउ। अर्थ: बिचारा बगुला छपड़ी में क्यों नहाता है? (कुछ नहीं मिलता, बल्कि छपड़ी में नहा के) कीचड़ में डूबता है, (उसकी ये) मैल दूर नहीं होती (जो मनुष्य गुरु समुन्द्र को छोड़ के देवी-देवताओं आदि अन्य के आसरे तलाशता है वह, मानो, छपड़ी में ही नहा रहा है। वहाँ से वह और भी ज्यादा माया-मोह की मैल चिपका लेता है)।1। रहाउ। रखि रखि चरन धरे वीचारी ॥ दुबिधा छोडि भए निरंकारी ॥ मुकति पदारथु हरि रस चाखे ॥ आवण जाण रहे गुरि राखे ॥२॥ पद्अर्थ: रखि रखि = रख रख के, ध्यान से। वीचारी = विचार के आसरे। दुबिधा = किसी और आसरे की तलाश। रहे = समाप्त हो जाते हैं। गुरि = गुरु ने।2। अर्थ: गुरसिख बड़ा सचेत हो के पूरा विचारवान हो के (जीवन-यात्रा में) पैर रखता है। परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश छोड़ के परमात्मा का ही बन जाता है। परमात्मा के नाम का रस चख के गुरसिख वह पदार्थ हासिल कर लेता है जो माया के मोह से खलासी दिलवा देता है। जिसकी गुरु ने सहायता कर दी उसके जन्म-मरण के चक्कर समाप्त हो गए।2। सरवर हंसा छोडि न जाइ ॥ प्रेम भगति करि सहजि समाइ ॥ सरवर महि हंसु हंस महि सागरु ॥ अकथ कथा गुर बचनी आदरु ॥३॥ पद्अर्थ: सहजि = सहज में, अडोल आत्मिक अवस्था में। आदरु = इज्जत।3। अर्थ: (जैसे) हंस मानसरोवर को छोड़ के नहीं जाता (वैसे ही जो सिख गुरु का दर छोड़ के नहीं जाता वह) प्रेमा भक्ति की इनायत से अडोल आत्मिक अवस्था में लीन हो जाता है। जो गुरसिख-हंस गुरु-सरोवर में टिकता है, उसके अंदर गुरु-सरोवर अपना आप प्रगट करता है (उस सिख के अंदर गुरु बस जाता है) - यह कथा अकथ है (भाव, इस आत्मिक अवस्था का बयान नहीं किया जा सकता। सिर्फ ये कह सकते हैं कि) गुरु के वचन पर चल के वह (लोक-परलोक में) आदर पाता है।3। सुंन मंडल इकु जोगी बैसे ॥ नारि न पुरखु कहहु कोऊ कैसे ॥ त्रिभवण जोति रहे लिव लाई ॥ सुरि नर नाथ सचे सरणाई ॥४॥ पद्अर्थ: सुंन मंडल = अफुर अवस्था, वह अवस्था जहाँ माया के फुरने शून्य हैं। जोगी = प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ। त्रिभवण जोति = वह प्रभु जिसकी ज्योति तीनों भवनों में है। सुरि = देवते।4। अर्थ: जे कोई विरला प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ सख्श शून्य अवस्था में टिकता है, उसके अंदर स्त्री-मर्द वाला भेद नहीं रह जाता (भाव, उसके काम चेष्टा अपना प्रभाव नहीं डालती)। बताओ, कोई ये संकल्प कर भी कैसे सकता है? क्योंकि वह तो सदा उस परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है जिसकी ज्योति तीनों भवनों में व्यापक है और देवते मनुष्य नाथ आदि सभी जिस सदा-स्थिर की शरण लिए रखते हैं।4। आनंद मूलु अनाथ अधारी ॥ गुरमुखि भगति सहजि बीचारी ॥ भगति वछल भै काटणहारे ॥ हउमै मारि मिले पगु धारे ॥५॥ पद्अर्थ: आनंद मूलु = आनंद का श्रोत। भगति वछल = भक्ति से प्यार करने वाला। पगु धारे = (सत्संग में) पैर टिका के, जा के।5। अर्थ: (गुरमुख-हंस गुरु-सागर में टिक के उस प्राणपति-प्रभु को मिलता है) जो आत्मिक आनंद का श्रोत है जो निआसरों का आसरा है। गुरमुख उसकी भक्ति के द्वारा और उसके गुणों के विचार के माध्यम से अडोल आत्मिक अवस्था में टिके रहते हैं। वह प्रभु (अपने सेवकों की) भक्ति से प्रेम करता है, उनके सारे डर दूर करने के समर्थ है। गुरमुखि अहंकार को मार के और (साधु-संगत में) टिक के उस आनंद-मूल प्रभु (के चरणों) में जुड़ते हैं।5। अनिक जतन करि कालु संताए ॥ मरणु लिखाइ मंडल महि आए ॥ जनमु पदारथु दुबिधा खोवै ॥ आपु न चीनसि भ्रमि भ्रमि रोवै ॥६॥ पद्अर्थ: करि = कर के, करने से भी। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। मंडल = जगत। मरणु = मौत, आत्मिक मौत। खोवै = गवा लेता है। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को।6। अर्थ: जो मनुष्य (बेचारे बगुले की तरह अहंकार की छपड़ी में ही नहाता है, और) अपने आत्मिक जीवन को नहीं पहचानता, वह (अहंकार में) भटक-भटक के दुखी होता है; परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश में वह अमूल्य मानव जनम गवा लेता है; अनेक अन्य ही जतन करने के कारण (सहेड़ी हुई) आत्मिक मौत (का लेख ही अपने माथे पर) लिखा के इस जगत में आया (और यहाँ भी आत्मिक मौत ही गले पड़वाता रहा)।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |