श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 686 कहतउ पड़तउ सुणतउ एक ॥ धीरज धरमु धरणीधर टेक ॥ जतु सतु संजमु रिदै समाए ॥ चउथे पद कउ जे मनु पतीआए ॥७॥ पद्अर्थ: एक = एक प्रभु की (महिमा)। धरणीधर = धरती का आसरा प्रभु। चउथा पद = वह आत्मिक अवस्था जहाँ माया के तीन गुण जोर नहीं डाल सकते। पतीआइ = मना लिए।7। अर्थ: (पर) जो मनुष्य एक परमात्मा की महिमा ही (नित्य) उचारता है, पढ़ता है और सुनता है और धरती के आसरे प्रभु की टेक पकड़ता है वह गंभीर स्वभाव ग्रहण करता है वह (मनुष्य जीवन के) फर्ज को (पहचानता है)। अगर मनुष्य (गुरु की शरण में रह के) अपने मन को उस आत्मिक अवस्था में पहुँचा ले जहाँ माया के तीनों ही गुण जोर नहीं डाल सकते, तो (सहज ही) जत-सत और संजम उसके हृदय में लीन रहते हैं।7। साचे निरमल मैलु न लागै ॥ गुर कै सबदि भरम भउ भागै ॥ सूरति मूरति आदि अनूपु ॥ नानकु जाचै साचु सरूपु ॥८॥१॥ पद्अर्थ: सूरति = शकल। मूरति = हस्ती, वजूद, अस्तित्व। अनूपु = जो उपमा से परे है, जिस जैसा और कोई नहीं। साचु सरूपु = जिस का स्वरूप सदा कायम रहने वाला है।8। अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु में टिक के पवित्र हुए मनुष्य के मन को विकारों की मैल नहीं चिपकती। गुरु के शब्द की इनायत से उसकी भटकना दूर हो जाती है उसका (दुनियावी) डर-सहम समाप्त हो जाता है। नानक (भी) उस सदा-स्थिर हस्ती वाले प्रभु (के दर से नाम की दाति) मांगता है जिस जैसा और कोई नहीं है जिसकी (सुंदर) सूरत और जिसका अस्तित्व आदि से ही चला आ रहा है।8।1। धनासरी महला १ ॥ सहजि मिलै मिलिआ परवाणु ॥ ना तिसु मरणु न आवणु जाणु ॥ ठाकुर महि दासु दास महि सोइ ॥ जह देखा तह अवरु न कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: सहजि = अडोल अवस्था में। मरणु = आत्मिक मौत। आवणु जाणु = जनम मरण का चक्कर। सोइ = वह (ठाकुर)।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के माध्यम से अडोल अवस्था में टिक के प्रभु-चरणों में जुड़ता है, उसका प्रभु-चरणों में जुड़ना स्वीकार हो जाता है। उस मनुष्य को ना आत्मिक मौत आती है, ना ही जनम-मरन का चक्कर। ऐसा प्रभु का दास प्रभु में लीन रहता है, प्रभु ऐसे सेवक के अंदर प्रकट हो जाता है। वह सेवक जिधर देखता है उसे परमात्मा के बिना और कोई नहीं दिखता।1। गुरमुखि भगति सहज घरु पाईऐ ॥ बिनु गुर भेटे मरि आईऐ जाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहज घरु = अडोल आत्मिक अवस्था का घर। मरि = आत्मिक मौत मर के।1। रहाउ। अर्थ: गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करने से वह (आत्मिक) ठिकाना मिल जाता है जहाँ मन हमेशा अडोल अवस्था में टिका रहता है। (पर) गुरु को मिले बिना (मनुष्य) आत्मिक मौत मर के जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।1। रहाउ। सो गुरु करउ जि साचु द्रिड़ावै ॥ अकथु कथावै सबदि मिलावै ॥ हरि के लोग अवर नही कारा ॥ साचउ ठाकुरु साचु पिआरा ॥२॥ पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। जि = जो। साचु = सदा स्थिर प्रभु। कथावै = महिमा करवाता है। साचउ = सदा स्थिर रहने वाला।2। अर्थ: मैं (भी) वही गुरु धारण करना चाहता हूँ जो सदा-स्थिर प्रभु को (मेरे हृदय में) पक्की तरह टिका दे, जो मुझसे अकथ प्रभु की महिमा करवाए, और अपने शब्द के द्वारा मुझे प्रभु चरणों में जोड़ दे। परमात्मा के भक्त को (महिमा के बिना) कोई और कार नहीं (सूझती)। भक्त सदा-स्थिर प्रभु को ही स्मरण करता है, सदा स्थिर प्रभु उसको प्यारा लगता है।2। तन महि मनूआ मन महि साचा ॥ सो साचा मिलि साचे राचा ॥ सेवकु प्रभ कै लागै पाइ ॥ सतिगुरु पूरा मिलै मिलाइ ॥३॥ पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर प्रभु (का रूप हो के)। पाइ = चरणों में।3। अर्थ: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है गुरु उसको प्रभु-चरणों में मिला देता है, वह सेवक प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है, उसका मन शरीर के अंदर ही रहता है (भाव, माया-मोह में ग्रसित हुआ दसों दिशाओं में भागता नहीं फिरता), उसके मन में सदा-स्थिर प्रभु प्रकट हो जाता है, वह सेवक सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करके और उसमें मिल के उस (की याद) में लीन रहता है।3। आपि दिखावै आपे देखै ॥ हठि न पतीजै ना बहु भेखै ॥ घड़ि भाडे जिनि अम्रितु पाइआ ॥ प्रेम भगति प्रभि मनु पतीआइआ ॥४॥ पद्अर्थ: दिखावै = अपने दर्शन करवाता है। देखै = (जीवों के कर्म) देखता है। हठि = हठ से (किए तप आदि)। घड़ि = घड़ के, बना के। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। प्रभि = प्रभु ने।4। अर्थ: परमात्मा अपने दर्शन आप ही (गुरु के माध्यम से) करवाता है, खुद ही (सब जीवों के) दिल की जानता है (इस वास्ते वह) हठ द्वारा किए कर्मों पर नहीं पतीजता, ना ही बहुत सारे (धार्मिक) भेषों पर प्रसन्न होता है। जिस प्रभु ने (सारे) शरीर बनाए हैं और (गुरु की शरण आए किसी भाग्यशाली के हृदय में) नाम-अमृत डाला है उसी प्रभु ने उसका मन प्रेमा-भक्ती में जोड़ा है।4। पड़ि पड़ि भूलहि चोटा खाहि ॥ बहुतु सिआणप आवहि जाहि ॥ नामु जपै भउ भोजनु खाइ ॥ गुरमुखि सेवक रहे समाइ ॥५॥ पद्अर्थ: भोजनु = (आत्मिक) खुराक।5। नोट: शब्द ‘खाइ’ और ‘खाहि’ में अंतर याद रखें। अर्थ: जो मनुष्य (विद्या) पढ़-पढ़ के (विद्या के घमण्ड में से ही स्मरण से) टूट जाते हैं वे (आत्मिक मौत की) चोटें सहते रहते हैं। (विद्या की) बहुत चातुरता के कारण जनम-मरन के चक्कर में पड़ते हैं। जो जो मनुष्य प्रभु का नाम जपते हैं और प्रभु के डर-अदब को अपनी आत्मा की खुराक बनाते हैं, वह सेवक गुरु की शरण पड़ कर प्रभु में लीन रहते हैं।5। पूजि सिला तीरथ बन वासा ॥ भरमत डोलत भए उदासा ॥ मनि मैलै सूचा किउ होइ ॥ साचि मिलै पावै पति सोइ ॥६॥ पद्अर्थ: पूजि = पूज के। सिला = पत्थर (की मूर्तियां)। मनि मैलै = मैले मन से, अगर मन मैला ही रहा। सूचा = पवित्र। पति = इज्जत।6। अर्थ: जो मनुष्य पत्थर (की मूर्तियां) पूजता रहा, तीर्थों पर स्नान करता रहा, जंगलों में निवास रखता रहा, त्यागी बन के जगह-जगह भटकता-डोलता फिरा (और इन्हीं कर्मों को धर्म समझता रहा), अगर उसका मन मैला ही रहा तो वह पवित्र कैसे हो सकता है? जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में (स्मरण कर-करके) लीन होता है (वही पवित्र होता है, और) वह (लोक-परलोक में) इज्जत पाता है।6। आचारा वीचारु सरीरि ॥ आदि जुगादि सहजि मनु धीरि ॥ पल पंकज महि कोटि उधारे ॥ करि किरपा गुरु मेलि पिआरे ॥७॥ पद्अर्थ: आचारा = आचरण। वीचारु = उच्च विचार। सरीरि = शरर में, मनुष्य में। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। आदि जुगादि = सदा ही। धीरि = धीरे, गंभीर बना रहता है। पंकज = कमल (पंक = कीचड़। ज = जमा हुआ)। नोट: यहाँ ‘कमल’ की ‘आँख’ से उपमा दी गई है। पल पंकज महि = आँख के फड़कने जितने समय में। पिआरे = हे प्यारे प्रभु!।7। अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मेहर करके मुझे वह गुरु मिला जो आँख झपकने जितने समय में करोड़ों लोगों को (विकारों से) बचा लेता है, जिसका मन सदा ही अडोल अवस्था में टिका रहता है और गंभीर रहता है जिसके अंदर ऊँचा आचरण भी है और ऊँची (आत्मिक) सूझ भी है।7। किसु आगै प्रभ तुधु सालाही ॥ तुधु बिनु दूजा मै को नाही ॥ जिउ तुधु भावै तिउ राखु रजाइ ॥ नानक सहजि भाइ गुण गाइ ॥८॥२॥ पद्अर्थ: मै = मुझे। को = कोई (जीव)। रजाइ = अपनी रजा में।8। अर्थ: हे नानक! प्रभु दर पर यूँ अरदास कर- हे प्रभु! मैं किस आदमी के सामने तेरी महिमा करूँ? मुझे तो तेरे बिना और कोई नहीं दिखता। जैसे तेरी मेहर हो मुझे अपनी रजा में रख, ता कि (तेरा दास) अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के तेरे गुण गाए।8।2। धनासरी महला ५ घरु ६ असटपदी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जो जो जूनी आइओ तिह तिह उरझाइओ माणस जनमु संजोगि पाइआ ॥ ताकी है ओट साध राखहु दे करि हाथ करि किरपा मेलहु हरि राइआ ॥१॥ पद्अर्थ: जो जो = जो जो (जीव)। तिह तिह = उसी उसी (जूनी) में। उरझाइओ = (माया के मोह में) फसा हुआ है। संजोगि = अच्छी किस्मत से। ताकी है = (मैंने) देखी है। साध = हे गुरु! दे करि = दे के। हाथ = (बहुवचन) दोनों हाथ। हरि राइआ = प्रभु पातशाह।1। अर्थ: हे गुरु! जो जो जीव (जिस किसी) जून में आया है, उस उस (जून) में ही (माया के मोह में) फंस रहा है। मानव जनम (किसी ने) किस्मत से प्राप्त किया है। हे गुरु! मैंने तो तेरा आसरा देखा है। अपना हाथ दे के (मुझे माया के मोह से) बचा ले। मेहर करके मुझे प्रभु-पातशाह से मिला दे।1। अनिक जनम भ्रमि थिति नही पाई ॥ करउ सेवा गुर लागउ चरन गोविंद जी का मारगु देहु जी बताई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। थिति = स्थिति, टिकाव। पाई = प्राप्त की। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। गुर = हे गुरु! लगूँ, मैं लगता हूँ। मारगु = रास्ता। बताई देहु = बता दो।1। रहाउ। अर्थ: हे सतिगुरु! अनेक जूनियों में भटक-भटक के (जूनियों से बचने का और कोई) ठिकाना नहीं मिला। अब मैं तेरी शरण में आ पड़ा हुआ हूँ, मैं तेरी ही सेवा करता हूँ, मुझे परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता बता दे।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |