श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 687 अनिक उपाव करउ माइआ कउ बचिति धरउ मेरी मेरी करत सद ही विहावै ॥ कोई ऐसो रे भेटै संतु मेरी लाहै सगल चिंत ठाकुर सिउ मेरा रंगु लावै ॥२॥ पद्अर्थ: उपाव = कोशिशें। कउ = की खातिर। बचिति = चित में अच्छी तरह। चिति = चिक्त में। धरउ = धरता हूँ। करत = करते हुए। सद = सदा। रे = हे भाई! भेटै = मिल जाए। लाहै = दूर कर दे। सिउ = साथ। रंगु = प्यार। लावै = जोड़ ले।2। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! मैं (नित्य) माया की खातिर (ही) अनेक तरह के उपाय करता रहता हूँ, मैं (माया को ही) विशेष तौर पर अपने मन में बसाए रखता हूँ। हमेशा ‘मेरी माया, मेरी माया’ करते हुए ही (मेरी उम्र बीतती) जा रही है। (अब मेरा जी करता है कि) मुझे कोई ऐसा संत मिल जाए, जो (मेरे अँदर से माया वाली) सारी सोच दूर कर दे, और, परमात्मा के साथ मेरा प्यार बना दे।2। पड़े रे सगल बेद नह चूकै मन भेद इकु खिनु न धीरहि मेरे घर के पंचा ॥ कोई ऐसो रे भगतु जु माइआ ते रहतु इकु अम्रित नामु मेरै रिदै सिंचा ॥३॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! सगल = सारे। चूकै = समाप्त होता। भेद = दूरी। धीरहि = धीरज करते। पंचा = ज्ञान-इंद्रिय। रहतु = निर्लिप। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदै = हृदय में। सिंचा = सींच दे।3। अर्थ: हे भाई! सारे वेद पढ़ के देखे हैं, (इनके पढ़ने से परमात्मा से बरकरार) मन की दूरी समाप्त नहीं होती, (वेद आदि को पढ़ने से) ज्ञान-इंद्रिय एक पल के लिए भी शांत नहीं होती। हे भाई! कोई ऐसा भक्त (मिल जाए) जो (स्वयं) माया से निर्लिप हो (वही भक्त) मेरे हृदय को आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल (अमृत) से सींच सकता है।3। जेते रे तीरथ नाए अह्मबुधि मैलु लाए घर को ठाकुरु इकु तिलु न मानै ॥ कदि पावउ साधसंगु हरि हरि सदा आनंदु गिआन अंजनि मेरा मनु इसनानै ॥४॥ पद्अर्थ: जेते = जितने ही। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। घर को ठाकुरु = हृदय घर का मालिक प्रभु। मानै = मानता, पतीजता। पावउ = पाऊँ, मैं प्राप्त करूँ। संगु = साथ, मिलाप। अंजनि = सुरमे से।4। अर्थ: हे भाई! जितने भी तीर्थ हैं अगर उन पर स्नान किया जाए, वह स्नान बल्कि मन में अहंकार की मैल चढ़ा देते हैं, (इन तीर्थ-स्नानों से) परमात्मा जरा सा भी प्रसन्न नहीं होता। (मेरी तो तमन्ना ये है कि) कभी मैं भी साधु-संगत प्राप्त कर सकूँ, (साधु-संगत की इनायत से मन में) सदा आत्मिक आनंद बना रहे, और, मेरा मन ज्ञान के अंजन से (अपने आप को) पवित्र कर ले।4। सगल अस्रम कीने मनूआ नह पतीने बिबेकहीन देही धोए ॥ कोई पाईऐ रे पुरखु बिधाता पारब्रहम कै रंगि राता मेरे मन की दुरमति मलु खोए ॥५॥ पद्अर्थ: आस्रम = सारी उम्र के चार हिस्सों के अलग-अलग धर्म (ब्रहमचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वामप्रस्थ आश्रम व संयास आश्रम, ये हैं चार आश्रम)। बिबेकहीन = विचारों से वंचित। देही = शरीर। बिधाता = विधाता, कर्तार। के रंगि = के प्रेम में। राता = रंगा हुआ।5। अर्थ: हे भाई! सारे ही आश्रमों के धर्म कमाने से भी मन नहीं पतीजता। विचार-हीन मनुष्य सिर्फ शरीर को ही साफ-सुथरा करते रहते हैं। हे भाई! (मेरी ये लालसा है कि) परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा हुआ, परमात्मा का रूप कोई महापुरुष मिल जाए, तो वह मेरे मन की बुरी मति की मैल दूर कर दे।5। करम धरम जुगता निमख न हेतु करता गरबि गरबि पड़ै कही न लेखै ॥ जिसु भेटीऐ सफल मूरति करै सदा कीरति गुर परसादि कोऊ नेत्रहु पेखै ॥६॥ पद्अर्थ: करम धरम = निहित हुए धार्मिक कर्म। करम धरम जुगता = (तीर्थ स्नान आदि निहित हुए) धार्मिक कर्मों में फंसे हुए। निमख = आँख झपकने जितना समय। हेतु = (प्रभु से) प्रेम। गरबि गरबि = बार बार अहंकार में। पड़ै = पड़ता है। जिसु = जिस मनुष्य को। भेटीऐ = मिलता है। सफल मूरति = वह गुरु जिसकी हस्ती सारे फल देती है। कीरति = महिमा। परसादि = कृपा से।6। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (तीर्थ-स्नान आदि निहित हुए) धार्मिक कर्मों में ही व्यस्त रहता है, जरा से वक्त के लिए भी परमात्मा को प्यार नहीं करता, (वह इन किए कर्मों के आसरे) बार-बार अहंकार में टिका रहता है, (इन किए धार्मिक कर्मों में कोई भी कर्म उसके) किसी के काम नहीं आता। हे भाई! जिस मनुष्य को वह गुरु मिल जाता है जो सारी मुरादें पूरी करने वाला है और जिसकी कृपा से मनुष्य सदा परमात्मा की महिमा करता है, उसकी कृपा से कोई भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा को अपनी आँखों से (हर जगह बसता) देख लेता है।6। मनहठि जो कमावै तिलु न लेखै पावै बगुल जिउ धिआनु लावै माइआ रे धारी ॥ कोई ऐसो रे सुखह दाई प्रभ की कथा सुनाई तिसु भेटे गति होइ हमारी ॥७॥ पद्अर्थ: हठि = हठ से। तिल = रक्ती भर भी। बगुल = बगुला। माइआ धारी = अपने मन में माया का ही मोह टिका के रखने वाला। सुखह दाई = आत्मिक आनंद देने वाला। तिसु भेटे = उसको मिलने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।7। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य मन के हठ से (तप आदि मेहनत) करता है, (परमात्मा उसकी इस मेहनत को) जरा सा भी स्वीकार नहीं करता (क्योंकि) हे भाई! वह मनुष्य तो बगुले की तरह ही समाधि लगा रहा होता है; अपने मन में वह माया का मोह ही टिकाए रखता है। हे भाई! अगर कोई ऐसा आत्मिक-आनंद का दाता मिल जाए, जो हमें परमात्मा के महिमा की बातें सुनाए, तो उसको मिल के हमारी आत्मिक अवस्था ऊँची हो सकती है।7। सुप्रसंन गोपाल राइ काटै रे बंधन माइ गुर कै सबदि मेरा मनु राता ॥ सदा सदा आनंदु भेटिओ निरभै गोबिंदु सुख नानक लाधे हरि चरन पराता ॥८॥ पद्अर्थ: गोपाल राइ = प्रभु पातशाह। रे = हे भाई! माइ = माया (के)। कै सबदि = के शब्द में। राता = मगन। पराता = पड़ के।8। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु-पातशाह दयालु होता है, (गुरु उसके) माया के बंधन काट देता है। हे भाई! मेरा मन (भी) गुरु के शब्द में (ही) मगन रहता है। हे नानक! (गुरु की कृपा से जिस मनुष्य को) सारे डरों से रहित गोबिंद मिल जाता है, उसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, परमात्मा के चरणों में लीन रह के वह मनुष्य सारे सुख प्राप्त कर लेता है।8। सफल सफल भई सफल जात्रा ॥ आवण जाण रहे मिले साधा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥ पद्अर्थ: जात्रा = मानव जनम की यात्रा। रहे = समाप्त हो गए। मिले = मिल के। साधा = साधु, गुरु (को)।1। रहाउ दूजा। अर्थ: (हे भाई! गुरु के दर पर पड़ने से) मानव-जीवन वाली यात्रा सफल हो जाती है। गुरु को मिल के जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ दूजा।1।3। नोट: से १ अष्टपदी महला ५ की है। महला १ की दो अष्टपदियां हैं। कुल जोड़ 3 बना। धनासरी महला १ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तीरथि नावण जाउ तीरथु नामु है ॥ तीरथु सबद बीचारु अंतरि गिआनु है ॥ गुर गिआनु साचा थानु तीरथु दस पुरब सदा दसाहरा ॥ हउ नामु हरि का सदा जाचउ देहु प्रभ धरणीधरा ॥ संसारु रोगी नामु दारू मैलु लागै सच बिना ॥ गुर वाकु निरमलु सदा चानणु नित साचु तीरथु मजना ॥१॥ पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। जाउ = मैं जाता हूँ। सबद बीचारु = शब्द की विचार। अंतरि = अंदर, मन में। गिआनु = परमात्मा से जान पहचान। साचा = सदा-स्थिर रहने वाला। दस पुरब = दस पवित्र दिन (मसिआ, संगरांद, पूरनमासी, प्रकाश ऐतवार, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, दो अष्टमियां, दो चौदवीं)। दसाहरा = दस पाप हरने वाला दिन, जेठ सुदी दसमी, गंगा का जनम दिन। हउ = मैं। जाचउ = माँगता हूँ। धरणीधरा = (धरणी = धरती। धर = आसरा) हे धरती के आसरे प्रभु! साचु = सदा स्थिर रहने वाला। मजना = स्नान।1। अर्थ: मैं (भी) तीर्थों पर स्नान करने जाता हूँ (पर मेरे वास्ते परमात्मा का) नाम (ही) तीर्थ है। गुरु के शब्द को विचार-मण्डल में टिकाना (मेरे लिए) तीर्थ है (क्योंकि इसकी इनायत से) मेरे अंदर परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनती है। सतिगुरु का दिया हुआ ये ज्ञान मेरे वास्ते सदा कायम रहने वाला तीर्थ-स्थान है, मेरे लिए दसों पवित्र दिन हैं, मेरे लिए गंगा का जन्म-दिन है। मैं तो सदा प्रभु का नाम ही माँगता हूँ और (अरदास करता हूँ-) हे धरती के आसरे प्रभु! (मुझे अपना नाम) दे। जगत (विकारों में) रोगी हुआ पड़ा है, परमात्मा का नाम (इन रोगों का) इलाज है। सदा-स्थिर प्रभु के नाम के बिना (मन को विकारों की) मैल लग जाती है। गुरु का पवित्र शब्द (मनुष्य को) सदा (आत्मिक) प्रकाश (देता है, यही) नित्य सदा कायम रहने वाला तीर्थ है, यही तीर्थ स्नान है।1। साचि न लागै मैलु किआ मलु धोईऐ ॥ गुणहि हारु परोइ किस कउ रोईऐ ॥ वीचारि मारै तरै तारै उलटि जोनि न आवए ॥ आपि पारसु परम धिआनी साचु साचे भावए ॥ आनंदु अनदिनु हरखु साचा दूख किलविख परहरे ॥ सचु नामु पाइआ गुरि दिखाइआ मैलु नाही सच मने ॥२॥ पद्अर्थ: साचि = सदा-स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ने से)। किआ धोईऐ = (तीर्थों आदि पर जा के) धोने की जरूरत नहीं रहती। गुणहि हारु = गुणों का हार। परोइ = परो के। किस कउ रोईऐ = किस के आगे रोएं? किसी के आगे पुकार करने की जरूरत नहीं रहती। वीचारि = गुरु के शब्द के विचार से। उलटि = दोबारा। आवए = आता। पारसु = धातुओं को सोना बना देने वाली पथरी। परम धिआनी = बहुत ऊँची सूझ का मालिक। साचु = सदा स्थिर प्रभु का रूप। भावए = पसंद आ जाता है। अनदिनु = हर रोज। हरखु = खुशी। किलविख = पाप। परहरे = दूर कर लेता है। गुरि = गुरु ने। सच मने = सदा स्थिर नाम को जपने वाले मन को।2। अर्थ: सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से मन को (विकारों की) मैल नहीं लगती, (फिर तीर्थ आदि पर जा के) कोई मैल धोने की आवश्यक्ता नहीं रहती। परमात्मा के गुणों का हार (हृदय में) परो के किसी के आगे पुकार करने की भी जरूरत नहीं रहती। जो मनुष्य गुरु के शब्द के विचार द्वारा (अपने मन को विकारों की ओर से) मार लेता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है, (और लोगों को भी) पार लंघा लेता है, वह दोबारा (के चक्कर) में नहीं आता। वह मनुष्य आप पारस बन जाता है, बड़ी ही ऊँची सूझ का मालिक हो जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभु का रूप बन जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभु को प्यारा लगने लग पड़ता है। उसके अंदर हर वक्त आनंद बना रहता है, सदा-स्थिर रहने वाली खुशी पैदा हो जाती है, वह मनुष्य अपने (सारे) दुख-पाप दूर कर लेता है। जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर प्रभु का नाम प्राप्त कर लिया, जिसको गुरु ने (प्रभु) दिखा दिया, उसके सदा-स्थिर नाम जपते मन को कभी विकारों की मैल नहीं लगती।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |