श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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संगति मीत मिलापु पूरा नावणो ॥ गावै गावणहारु सबदि सुहावणो ॥ सालाहि साचे मंनि सतिगुरु पुंन दान दइआ मते ॥ पिर संगि भावै सहजि नावै बेणी त संगमु सत सते ॥ आराधि एकंकारु साचा नित देइ चड़ै सवाइआ ॥ गति संगि मीता संतसंगति करि नदरि मेलि मिलाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: मीत मिलापु = मित्र प्रभु का मिलाप। नावणो = नहाना, स्नान। गावणहारु = गाने योग्य प्रभु। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। सुहावणो = सुंदर जीवन वाला। सालाहि = महिमा करके। मंनि = मान के, श्रद्धा रख के। मते = मति। पिर संगि = पति प्रभु की संगति में। भावै = (प्रभु को) प्यारा लगता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। बेणी संगमु = त्रिवेणी जंगम, तीन नदियों (गंगा-यमुना-सरस्वती) के मिलाप की जगह, प्रयाग (इलाहावबाद के नजदीक)। सत सते = स्वच्छ से स्वच्छ। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। देइ = देता है (जो प्रभु)। चढ़ै सवाइआ = (उसका दिया हुआ) दिनो दिन बढ़ता है। करि = कर के। मेलि = संगति में।3।

अर्थ: साधु-संगत में मित्र-प्रभु का मिलाप हो जाना - यही वह तीर्थ-स्नान है जिसमें कोई कमी नहीं रह जाती। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के गाने-योग्य प्रभु (के गुण) गाता है उसका जीवन सुंदर बन जाता है। सतिगुरु को (जीवन-दाता) मान के सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करके मनुष्य की मति दूसरों की सेवा करने वाली सब पर दया करने वाली बन जाती है। (महिमा की इनायत से मनुष्य) पति-प्रभु की संगति में रह के उसको प्यारा लगने लग जाता है आत्मिक अडोलता में (मानो आत्मिक) स्नान करता है; यही उसके लिए स्वच्छ से स्वच्छ त्रिवेणी संगम (का स्नान) है।

(हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले एक अकालपुरुख को स्मरण कर, जो सदा (सब जीवों को दातें) देता है और (जिसकी दी हुई दातें दिनो दिन) बढ़ती ही जाती हैं। मित्र-प्रभु की संगति में, गुरु-संत की संगति में आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है, प्रभु मेहर की नजर करके अपनी संगति में मिला लेता है।3।

कहणु कहै सभु कोइ केवडु आखीऐ ॥ हउ मूरखु नीचु अजाणु समझा साखीऐ ॥ सचु गुर की साखी अम्रित भाखी तितु मनु मानिआ मेरा ॥ कूचु करहि आवहि बिखु लादे सबदि सचै गुरु मेरा ॥ आखणि तोटि न भगति भंडारी भरिपुरि रहिआ सोई ॥ नानक साचु कहै बेनंती मनु मांजै सचु सोई ॥४॥१॥

पद्अर्थ: कहणु = कथन। कहणु कहै = कथन कथे। सभु कोइ = हरेक जीव। केवडु = कितना बड़ा। केवडु आखीऐ = कितना बड़ा कहा जा सकता है कि परमात्मा कितना बड़ा है। हउ = मैं। समझा = मैं समझ सकता हूँ। साखीऐ = गुरु के उपदेश से। साखी = शिक्षा, उपदेश, शब्द। अंम्रित साखी = आत्मिक जीवन देने वाला उपदेश। गुरु की भाखी साखी = गुरु का उचारा हुआ शब्द। सचु साखी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द। तितु = उस शब्द में। बिखु = (माया मोह का) जहर। सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। आखणि = कहने से, बयान करने से। तोटि = खात्मा, कमी। भंडारी = भंडारों में। भरिपुरि रहिआ = हर जगह मौजूद है। सोई = वह (प्रभु) ही। साचु कहै = सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करता है। कहै बेनंती = अरदासें करता है। मांजै = साफ करता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचु सोई = सदा स्थिर प्रभु ही (हर जगह दिखाई देता है)।4।

अर्थ: हरेक जीव (परमात्मा के बारे में) कथन करता है (और कहता है कि परमात्मा बहुत बड़ा है, पर) कोई नहीं बता सकता कि वह कितना बड़ा है। (मैं इतने लायक नहीं कि परमात्मा का स्वरूप बयान कर सकूँ) मैं (तो) मूर्ख हूँ, जीव स्वभाव का हूँ, अंजान हूँ, मैं तो गुरु के उपदेश से ही (कुछ) समझ सकता हूँ (अर्थात, मैं तो उतना कुछ ही मुश्किल से समझ सकता हूँ जितना गुरु अपने शब्द से समझाए)। मेरा मन तो उस गुरु-शब्द में ही पतीज गया है जो सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता है और जो आत्मिक जीवन देने वाला है।

जो जीव (माया-मोह के) जहर से लदे हुए जगत में आते हैं (गुरु के शब्द को विसार के और तीर्थ-स्नान आदि की टेक रख के, उसी जहर से लदे हुए ही जगत से) कूच कर जाते हैं, पर जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ते हैं, उनको मेरा गुरु उस जहर के भार से बचा लेता है।

(परमात्मा के गुण बेअंत हैं, गुण) बयान करने से खत्म नहीं होते, (परमात्मा की भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं, जीवों को भक्ति की दाति बाँटने से) भक्ती के खजानों में कोई कमी नहीं आती, (पर भक्ति करने से प्रभु की महिमा करने से मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि) परमात्मा ही हर जगह व्यापक है। हे नानक! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण करता है, जो प्रभु-दर पर अरदासें करता है (और इस तरह) अपने मन को विकारों की मैल से साफ कर लेता है उसे हर जगह वह सदा-स्थिर प्रभु ही दिखता है (तीर्थ-स्नानों से यह आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं होती)।4।1।

धनासरी महला १ ॥ जीवा तेरै नाइ मनि आनंदु है जीउ ॥ साचो साचा नाउ गुण गोविंदु है जीउ ॥ गुर गिआनु अपारा सिरजणहारा जिनि सिरजी तिनि गोई ॥ परवाणा आइआ हुकमि पठाइआ फेरि न सकै कोई ॥ आपे करि वेखै सिरि सिरि लेखै आपे सुरति बुझाई ॥ नानक साहिबु अगम अगोचरु जीवा सची नाई ॥१॥

पद्अर्थ: जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। तेरे नाइ = तेरे नाम में (जुड़ के)। मनि = मन में। जीउ = हे प्रभु जी! सचो साचा = सदा ही स्थिर रहने वाला। गुर गिआनु = गुरु का दिया हुआ ज्ञान (बताता है कि)। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरजी = पैदा की है। तिनि = उसी (प्रभु) ने। गोई = नाश की है। परवाणा = सदा। हुकमि = हुक्म अनुसार। पठाइआ = भेजा हुआ। फेरि न सकै = वापस नहीं कर सकता। करि = पैदा कर के। वेखै = संभाल करता है। सिरि सिरि = हरेक जीव के सिर पर। लेखै = लेख लिखता है। बुझाई = समझाता है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = इंद्रिय)। जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सची नाई = सदा स्थिर रहने वाली महिमा बड़ाई (करके)। नाई = बड़ाई, महिमा, उपमा, नाम की मशहूरी।1।

अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे नाम में (जुड़ के) मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मेरे मन में खुशी पैदा होती है।

हे भाई! परमात्मा का नाम सदा स्थिर रहने वाला है, प्रभु गुणों (का खजाना) है और धरती के जीवों के दिलोंकी जानने वाला है। गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान बताता है कि विधाता प्रभु बेअंत है, जिसने ये सृष्टि पैदा की है, वही इसका नाश करता है। जब उसके हुक्म में भेजा हुआ आमंत्रण आता है तो कोई भी जीव (उसके बुलावे को) रोक नहीं सकता। परमात्मा स्वयं ही (जीवों को) पैदा करके आप ही संभाल करता है, आप ही हरेक जीव के सिर पर (उसके किए कर्मों के अनुसार) लेख लिखता है, खुद ही (जीव को सही जीवन-राह की) सूझ बख्शता है। मालिक-प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है, जीवों की ज्ञान-इंद्रिय की उस तक पहुँच नहीं हो सकती।

हे नानक! (उसके दर पर अरदास कर, और कह: हे प्रभु!) तेरी सदा कायम रहने वाली महिमा करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है (मुझे अपनी महिमा बख्श)।1।

तुम सरि अवरु न कोइ आइआ जाइसी जीउ ॥ हुकमी होइ निबेड़ु भरमु चुकाइसी जीउ ॥ गुरु भरमु चुकाए अकथु कहाए सच महि साचु समाणा ॥ आपि उपाए आपि समाए हुकमी हुकमु पछाणा ॥ सची वडिआई गुर ते पाई तू मनि अंति सखाई ॥ नानक साहिबु अवरु न दूजा नामि तेरै वडिआई ॥२॥

पद्अर्थ: सरि = बराबर। जाइसी = चला जाएगा। निबेड़ु = फैसला, खात्मा (जनम-मरन के चक्कर का)। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर करता है। कहाए = महिमा करवाता है। अकथु = वह प्रभु जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते। सच महि = सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। हुकमी हुकमु = हुक्म के मालिक का हुक्म। साची = सदा स्थिर रहने वाली। ते = से। मनि = मन में। अंति = आखिरी समय में। सखाई = साथी। वडिआई = आदर।2

अर्थ: हे प्रभु जी! तेरे बराबर का और कोई नहीं है, (और जो भी जगत में) आया है, (वह यहाँ से आखिर) चला जाएगा (तू ही सदा कायम रहने वाला है)।

जिस मनुष्य की भटकना (गुरु) दूर करता है, प्रभु के हुक्म अनुसार उसके जनम-मरण के चक्कर का खात्मा हो जाता है। गुरु जिसकी भटकना दूर करता है, उससे उस परमात्मा की महिमा करवाता है जिसके गुण बयान से परे हैं।

वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में रहता है, सदा स्थिर प्रभु (उसके हृदय में) प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य रजा के मालिक प्रभु का हुक्म पहचान लेता है (और समझ लेता है कि) प्रभु खुद ही पैदा करता है और खुद ही (अपने में) लीन कर लेता है।

हे प्रभु! जिस मनुष्य ने तेरी महिमा (की दाति) गुरु से प्राप्त कर ली है, तू उसके मन में आ बसता है और अंत के समय भी उसका साथी बनता है।

हे नानक! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उस जैसा कोई और नहीं। (उसके दर पर अरदास कर और कह:) हे प्रभु! तेरे नाम में जुड़ने से (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।2।

तू सचा सिरजणहारु अलख सिरंदिआ जीउ ॥ एकु साहिबु दुइ राह वाद वधंदिआ जीउ ॥ दुइ राह चलाए हुकमि सबाए जनमि मुआ संसारा ॥ नाम बिना नाही को बेली बिखु लादी सिरि भारा ॥ हुकमी आइआ हुकमु न बूझै हुकमि सवारणहारा ॥ नानक साहिबु सबदि सिञापै साचा सिरजणहारा ॥३॥

पद्अर्थ: अलख = हे अदृष्ट! सिरंदिआ = हे सिरंदे! हे पैदा करने वाले! वाद = झगड़े। दुइ राह = दो रास्ते (भक्ति और माया)। हुकमि = हुक्म में। सबाए = सारे जीव। सिरि = सिर पर। सिञापै = पहचाना जाता है।3।

अर्थ: हे अदृष्य रचनहार! तू सदा स्थिर रहने वाला है और सब जीवों को पैदा करने वाला है।

एक ही विधाता (सारे जगत का) मालिक है, उसने (पैदा होना और मरना) दो रास्ते चलाए हैं। (उसीकी रजा के अनुसार जगत में) झगड़े बढ़ते हैं। दोनों रास्ते प्रभु ने ही चलाए हैं, सारे जीव उसी के हुक्म में हैं, (उसी के हुक्म अनुसार) जगत पैदा होता व मरता रहता है। (जीव नाम को भुला के माया के मोह का) जहर-रूपी भार अपने सिर पर इकट्ठा किए जाता है, (और ये नहीं समझता कि) परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी साथी मित्र नहीं बन सकता। जीव (परमात्मा के) हुक्म अनुसार (जगत में) आता है, (पर माया के मोह में फंस के उस) हुक्म को नहीं समझता। प्रभु आप ही जीवों को अपने हुक्म अनुसार (सीधे रास्ते पर डाल के) सँवारने में समर्थ है।

हे नानक! गुरु के शब्द में जुड़ने से ये पहचान हो जाती है कि जगत का मालिक सदा-स्थिर रहने वाला है और सबको पैदा करने वाला है।3।

भगत सोहहि दरवारि सबदि सुहाइआ जीउ ॥ बोलहि अम्रित बाणि रसन रसाइआ जीउ ॥ रसन रसाए नामि तिसाए गुर कै सबदि विकाणे ॥ पारसि परसिऐ पारसु होए जा तेरै मनि भाणे ॥ अमरा पदु पाइआ आपु गवाइआ विरला गिआन वीचारी ॥ नानक भगत सोहनि दरि साचै साचे के वापारी ॥४॥

पद्अर्थ: सोहहि = शोभते हैं। दरवारि = दरबार में, प्रभु की हजूरी में। सबदि = गुरु के शब्द से। रसाइआ = एक सुर। रसाए = एक सुर कर लेते हैं। नामि = नाम से। तिसाए = प्यासे। सबदि = शब्द से। विकाणे = प्रभु के नाम से सदके होते हैं। परसि परसिऐ = गुरु पारस को छूने से। पारसु = एक पत्थर जो सब धातुओं को सोना बना देती है ऐसा माना गया है। मनि = मन में। अमरा पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ आत्मिक मौत नहीं फटकती। आपु = स्वै भाव। वापारी = वणजारे।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा की हजूरी में शोभते हैं, क्योंकि गुरु के शब्द की इनायत से वह अपने जीवन को सुंदर बना लेते हैं। वह लोग आत्मिक जीवन देने वाली वाणी अपनी जीभ से उचारते रहते हैं, जीव को उस वाणी के साथ एकरस कर लेते हैं। भक्त जन प्रभु के नाम के साथ जीभ को रसित कर लेते हैं, नाम में जुड़ के (नाम के वास्ते उनकी) प्यास बढ़ती है, गुरु के शब्द से वह प्रभु-नाम से कुर्बान होते हैं, (नाम की खातिर और सब शारीरिक सुख कुर्बान करते हैं)।

हे प्रभु! जब (भक्तजन) तेरे मन को प्यारे लगते हैं, तो वह गुरु पारस से छू के स्वयं भी पारस बन जाते हैं (और लोगों को पवित्र जीवन देने के लायक बन जाते हैं)।

जो लोग स्वैभाव दूर करते हैं उन्हें वह आत्मिक दर्जा मिल जाता है जहाँ आत्मिक मौत असर नहीं कर सकती। पर ऐसा कोई विरला ही गुरु के दिए ज्ञान की विचार करने वाला सख्श होता है।

हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे सदा-स्थिर प्रभु के दर पर शोभा पाते हैं, वह (अपने सारे जीवन में) सदा-स्थिर प्रभु के नाम का ही व्यापार करते हैं।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh