श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भूख पिआसो आथि किउ दरि जाइसा जीउ ॥ सतिगुर पूछउ जाइ नामु धिआइसा जीउ ॥ सचु नामु धिआई साचु चवाई गुरमुखि साचु पछाणा ॥ दीना नाथु दइआलु निरंजनु अनदिनु नामु वखाणा ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई आपि मुआ मनु मारी ॥ नानक नामु महा रसु मीठा त्रिसना नामि निवारी ॥५॥२॥

पद्अर्थ: भूख पिआसो = भूखा प्यासा। आथि = माया। किउ जाइसा = मैं कैसे जा सकता हूँ? पूछउ = मैं पूछूंगा। जाइ = जा के। धिआसा = ध्याय सां, मैं सिमरूँगा। धिआई = मैं ध्याऊँगा। चवाई = मैं उचारूँगा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। अनदिनु = हर रोज। वखाणा = मैं उचारूँगा। करणी कार = करने योग्य काम। धुरहु = परमात्मा ने अपने हजूरी से। आपि = वह बँदा खुद। मुआ = माया के मोह से मर जाता है। मनु मारी = मन मार के। महा रसु = सबसे श्रेष्ठ स्वाद वाला। नामि = नाम से।5।

अर्थ: जब तक मैं माया के वास्ते भूखा प्यासा रहता हूँ, तब तक मैं किसी भी तरह प्रभु के दर पर पहुँच नहीं सकता। (माया की तृष्णा दूर करने का इलाज) मैं जा के अपने गुरु से पूछता हूँ (और उसकी शिक्षा के अनुसार) मैं परमात्मा का नाम स्मरण करता हूँ (नाम ही तृष्णा दूर करता है)।

गुरु की शरण पड़ कर मैं सदा-स्थिर नाम स्मरण करता हूँ सदा-स्थिर प्रभु (की महिमा) उचारता हूँ, और सदा स्थिर प्रभु से सांझ पाता हूँ। मैं हर रोज उस प्रभु का नाम मुँह से बोलता हूँ जो दीनों का सहारा है जो दया का श्रोत है और जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता।

परमात्मा ने जिस मनुष्य को अपनी हजूरी से ही नाम-स्मरण का करणीय कार्य करने का हुक्म दे दिया, वह मनुष्य अपने मन को (माया की ओर से) मार के तृष्णा के प्रभाव से बच जाता है। हे नानक! उस मनुष्य को प्रभु का नाम ही मीठा व सभी रसों से श्रेष्ठ लगता है, उसने नाम-जपने की इनायत से माया की तृष्णा (अपने अंदर से) दूर कर ली होती है।5।2।

धनासरी छंत महला १ ॥ पिर संगि मूठड़ीए खबरि न पाईआ जीउ ॥ मसतकि लिखिअड़ा लेखु पुरबि कमाइआ जीउ ॥ लेखु न मिटई पुरबि कमाइआ किआ जाणा किआ होसी ॥ गुणी अचारि नही रंगि राती अवगुण बहि बहि रोसी ॥ धनु जोबनु आक की छाइआ बिरधि भए दिन पुंनिआ ॥ नानक नाम बिना दोहागणि छूटी झूठि विछुंनिआ ॥१॥

पद्अर्थ: पिरु = पति प्रभु। संगि = (तेरे) साथ। मूठड़ीए = हे ठगी हुई जीव-स्त्री! मसतकि = माथे पर। पुरबि = पूर्बले समय में, पहले जन्मों में। किआ जाणा = मैं क्या जानूँ? मुझे नहीं पता। गुणी = गुणों वाली। अचारि = ऊँचे आचरण वाली। रंगि = प्रभु के प्रेम रंग में। बहि बहि = बैठ के बैठ के, बार बार। रोसी = रोएगी। जोबनु = जवानी। पुंनिआ = पुग गए, समाप्त हो गए। दोहागणि = दुर्भागिनी, बुरी किस्मत वाली। छूटी = अकेली रह गई, त्यागी हुई बन गई। झूठि = झूठ में फसने के कारण, झूठे मोह में फस के।1।

अर्थ: हे (माया के मोह में) ठगी हुई जीव सि्त्रए! (तेरा) पति-प्रभु तेरे साथ है, पर तुझे इस बात की समझ नहीं आई। (तेरे भी क्या वश?) जो कुछ तूने पहले जन्मों में कर्म कमाए, उनके अनुसार तेरे माथे पर (प्रभु की रजा में) लेख ही ऐसा लिखा गया (कि तू साथ में रहते पति-प्रभु को पहचान नहीं सकती)।

पहले जन्मों में किए कर्मों के अनुसार (माथे पर लिखा) लेख (किसी से भी) मिट नहीं सकता। किसी को ये समझ नहीं आ सकती कि (उसी लेख के अनुसार हमारे आने वाले जीवन में) क्या घटित होगा। (पूर्बली कमाई के मुताबिक) जो जीव-स्त्री गुण वाली नहीं, ऊँचे आचरण वाली नहीं, प्रभु के प्रेम-रंग में रंगी हुई नहीं, वह (किए) अवगुणों के कारण बार-बार दुखी (ही) होगी।

(जीव धन-जोबन आदि के गुमान में प्रभु को भुला बैठा है, पर यह) धन और जवानी धतूरे (के पौधे) की छाया (जैसे ही) हैं, जब बुढा हो जाता है, तो उम्र के दिन आखिर समाप्त हो जाते हैं (तो ये धन और जवानी साथ तोड़ जाते हैं)।

हे नानक! परमात्मा के नाम से टूट के अभागिन जीव-स्त्री त्याग हो जाती है, झूठे मोह में फंस के प्रभु-पति से विछुड़ जाती है।1।

बूडी घरु घालिओ गुर कै भाइ चलो ॥ साचा नामु धिआइ पावहि सुखि महलो ॥ हरि नामु धिआए ता सुखु पाए पेईअड़ै दिन चारे ॥ निज घरि जाइ बहै सचु पाए अनदिनु नालि पिआरे ॥ विणु भगती घरि वासु न होवी सुणिअहु लोक सबाए ॥ नानक सरसी ता पिरु पाए राती साचै नाए ॥२॥

पद्अर्थ: बूडी = हे डूबी हुई! घालिओ = बरबाद कर लिया है। भाइ = प्रेम में। चलो = चल। सुखि = आत्मिक आनंद में टिक के। महलो = महलु, परमात्मा का ठिकाना। पेईअड़ै = माईके घर में, जगत में। चारे = चार ही। जाइ = जा के। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। अनदिनु = हर रोज। लोक सबाए = हे सारे लोगो! स्रसी = स+रसी, आत्मिक रस का आनंद लेने वाली। ता = तब। नाए = नाम में। साचे नाए = सदा स्थिर नाम में।2।

अर्थ: हे (माया के मोह में) डूबी हुई! तूने अपना घर बरबाद कर लिया है, (अब तो जीवन-यात्रा में) गुरु के प्रेम में रहके चल। सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करके तू आत्मिक आनंद में टिक के परमात्मा का दर पा लेगी।

जीव-स्त्री तब ही आत्मिक आनंद पा सकती है जब परमात्मा का नाम सिमरती है (इस जगत का क्या गुमान?) जगत में तो चार दिनों का ही बसेरा है। (नाम-जपने की इनायत से जीव-स्त्री) अपने असल घर में पहुँच कर टिकी रहती है, सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को मिल जाती है, और हर रोज (भाव, सदा ही) उस प्यारे के साथ मिली रहती है।

हे सारे लोगो! सुन लो, भक्ति के बिना (मन भटकता ही रहता है) अंतरात्मे ठहराव नहीं आ सकता। हे नानक! जब जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभु के नाम-रंग में रंगी जाती है तब वह आत्मिक रस भोगने वाला प्रभु-पति का मिलाप हासिल कर लेती है।2।

पिरु धन भावै ता पिर भावै नारी जीउ ॥ रंगि प्रीतम राती गुर कै सबदि वीचारी जीउ ॥ गुर सबदि वीचारी नाह पिआरी निवि निवि भगति करेई ॥ माइआ मोहु जलाए प्रीतमु रस महि रंगु करेई ॥ प्रभ साचे सेती रंगि रंगेती लाल भई मनु मारी ॥ नानक साचि वसी सोहागणि पिर सिउ प्रीति पिआरी ॥३॥

पद्अर्थ: पिरु धन भावै = पति स्त्री को प्यारा लगे। धन पिर भावै = स्त्री पति को प्यारी लगे।

(नोट: ‘पिरु भावै’ और ‘पिर भावै’ में फर्क खास ध्यान रखने योग्य है)।

रंगि = रंग में। नाह पिआरी = पति की प्यारी। करेई = करती है। रस = चाव। रंगु = प्रेम, प्यार। सेती = साथ। लाल = सुंदर। मारि = मार के। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।

अर्थ: जब जीव-स्त्री को प्रभु-पति प्यारा लगने लग जाता है तब वह जीव-स्त्री प्रभु-पति को प्यारी लगने लग जाती है। प्रभु-प्रीतम के प्रेम-रंग में रंगी हुई वह गुरु के शब्द में जुड़ के विचारवान हो जाती है। गुरु के शब्द का विचार करने वाली वह जीव-स्त्री पति-प्रभु की प्यारी हो जाती है और झुक-झुक के (भाव, पूर्ण विनम्रता-श्रद्धा से) प्रभु की भक्ति करती है। प्रभु-प्रीतम (उसके अंदर से) माया का मोह जला देता है, और वह उसके नाम-रस में (भीग के) उसके मिलाप का आनंद लेती है।

सदा-स्थिर प्रभु के साथ (जुड़ के) उसके नाम-रंग में रंगीज के जीव-स्त्री अपने मन को मार के सुंदर जीवन वाली बन जाती है। हे नानक! सदा-स्थिर प्रभु की याद में टिकी हुई सौभाग्यवती जीव-स्त्री प्रभु-पति के साथ प्रीति करती है, पति की प्यारी हो जाती है।3।

पिर घरि सोहै नारि जे पिर भावए जीउ ॥ झूठे वैण चवे कामि न आवए जीउ ॥ झूठु अलावै कामि न आवै ना पिरु देखै नैणी ॥ अवगुणिआरी कंति विसारी छूटी विधण रैणी ॥ गुर सबदु न मानै फाही फाथी सा धन महलु न पाए ॥ नानक आपे आपु पछाणै गुरमुखि सहजि समाए ॥४॥

पद्अर्थ: पिर घरि = पिर के घर में, प्रभु पति के दर पर। सोहै = शोभा पाती है। पिर भावए = पति को भाए, प्रभु पति को अच्छी लगे। वैण = वचन, बोल। चवै = बोले। कामि न आवए = काम नहीं आता। अलावै = बोलती है। नैणी = आँखों से। अवगुणिआरी = अवगुणों से भरी हुई। केति = कंत ने। विसारी = त्यागी हुई। छूटी = त्याग हो जाती है। विधण = (धणी के बिना, पति के बिना) दुखी। रैणी = जिंदगी की रात। सा धन = जीव-स्त्री। महलु = प्रभु का दर घर। आपे आपु = अपने आप को, अपने असल को। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।

अर्थ: जीव-स्त्री प्रभु-पति के दर पर तब ही शोभा पाती है जब वह प्रभु-पति को पसंद आ जाती है। (पर जो जीव-स्त्री अंदर से प्यार से वंचित हो और बाहर से प्रेम दर्शाने के लिए) झूठे बोल बोले, (उसका कोई भी बोल प्रभु-पति का प्यार जीतने के लिए) काम नहीं आ सकता। (जो जीव-स्त्री) झूठा बोल ही बोलती है (वह बोल) उसके काम नहीं आता, प्रभु-पति उसकी ओर देखता तक नहीं। उस अवगुण-भरी को पति-प्रभु ने त्याग दिया होता है, वह त्याग हो जाती है, उसकी जिंदगी की रात दुखों में गुजरती है।

जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द को हृदय में नहीं बसाती, वही माया-मोह के फंदे में फसी रहती है, वह प्रभु-पति का दर-घर नहीं पा सकती। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जो जीव-स्त्री अपने असले को पहचानती है, वह आत्मिक अडोलता में लीन रहती है।4।

धन सोहागणि नारि जिनि पिरु जाणिआ जीउ ॥ नाम बिना कूड़िआरि कूड़ु कमाणिआ जीउ ॥ हरि भगति सुहावी साचे भावी भाइ भगति प्रभ राती ॥ पिरु रलीआला जोबनि बाला तिसु रावे रंगि राती ॥ गुर सबदि विगासी सहु रावासी फलु पाइआ गुणकारी ॥ नानक साचु मिलै वडिआई पिर घरि सोहै नारी ॥५॥३॥

पद्अर्थ: धनु = धन्य, मुबारक, किस्मत वाली। सोहागणि = सौभाग्यनी, अच्छे भाग्यों वाली। नारि = स्त्री। जिनि = जिस (नारि) ने। कूड़िआरि = झूठ की बंजारनि। सुहावी = सुंदर। भावी = प्यारी लगी। भाइ = प्रेम में। भाइ भगति प्रभ = प्रभु के प्रेम में, प्रभु की भक्ति में। रलीआला = रलियों का घर, आनंद का श्रोत। जोबनि बाला = जवानी में जवान, चढ़ती जवानी वाला। तिसु = उस (पति) को। रंगि = रंग में, प्रेम में। विगासी = खिले हुए हृदय वाली। सहु = पति को। रावासी = मिलाप प्राप्त करती है। गुणकारी = गुण पैदा करने वाला। साचु = सदा स्थिर प्रभु।5।

अर्थ: वह जीव-स्त्री मुबारक है सौभाग्यवती है जिसने प्रभु-पति से अच्छी सांझ पा ली है। पर जिसने उसकी याद भुला दी है, वह झूठ की बंजारिन है वह झूठ ही कमाती है (भाव, वह नाशवान पदार्थों की दौड़-भाग ही करती रहती है)। जो जीव-स्त्री प्रभु की भक्ति से अपना जीवन सुंदर बना लेती है, वह सदा-स्थिर प्रभु को प्यारी लगती है, वह प्रभु के प्रेम में प्रभु की भक्ति में मस्त रहती है। आनंद का श्रोत और सदा जवान रहने वाला प्रभु-पति उस प्रेम-रंग में रंगी हुई जीव-स्त्री को अपने साथ मिला लेता है।

गुरु के शब्द की इनायत से खिले हुए हृदय वाली जीव-स्त्री प्रभु-पति के मिलाप का आनंद पाती है, गुरु के शब्द में जुड़ने का (ये) फल उसको मिलता है कि उसके अंदर आत्मिक गुण पैदा हो जाते हैं।

हे नानक! उसको सदा-स्थिर प्रभु मिल जाता है, उसको (प्रभु दर से) आदर मिलता है, वह प्रभु-पति के दर पर शोभा पाती है।5।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh