श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 691 धनासरी महला ५ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुर दीन दइआल जिसु संगि हरि गावीऐ जीउ ॥ अम्रितु हरि का नामु साधसंगि रावीऐ जीउ ॥ भजु संगि साधू इकु अराधू जनम मरन दुख नासए ॥ धुरि करमु लिखिआ साचु सिखिआ कटी जम की फासए ॥ भै भरम नाठे छुटी गाठे जम पंथि मूलि न आवीऐ ॥ बिनवंति नानक धारि किरपा सदा हरि गुण गावीऐ ॥१॥ पद्अर्थ: दीन दइआल = दीनों पर दया करने वाला। जिसु संगि = जिस (गुरु) की संगति में। गावीऐ = गाया जा सकता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। साध संगि = गुरु की संगति में। रावीऐ = स्मरण किया जा सकता है। भजु = जा, भाग। अराधू = आराध, स्मरण कर। नासए = नाश हो जाता है। धुरि = धुर दरगाह से। करमु = बख्शिश। साचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। सिखिआ = शिक्षा ले ली। फासए = फाही, फंदा। भै = डर। गाठे = गाँठ। पंथि = रास्ते पर। मूलि = बिल्कुल। बिनवंति = विनती करता है। धारि = कर।1। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! वह गुरु दीनों पर दया करने वाला है जिसकी संगति में (रह कर) परमात्मा की महिमा की जा सकती है। गुरु की संगति में आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम स्मरण किया जा सकता है। हे भाई! गुरु की संगति में जा, (वहाँ) एक प्रभु का स्मरण कर, (नाम-जपने की इनायत से) जनम-मरण के दुख दूर हो जाते हैं। (जिस मनुष्य के माथे पर) धुर-दरगाह से (स्मरण करने के लिए) बख्शिश (का लेख) लिखा होता है, वही सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की शिक्षा ग्रहण करता है, उसका आत्मिक मौत का फंदा काटा जाता है। हे भाई! नाम-जपने की इनायत से सारे डर सारे भ्रम नाश हो जाते, (मन मे बँधी हुई) गाँठ खुल जाती है, (फिर वह) आत्मिक मौत सहेड़ने वाले रास्ते पर बिल्कुल नहीं चलता। नानक विनती करता है: हे प्रभु! मेहर कर कि हम जीव सदा तेरी महिमा करते रहें।1। निधरिआ धर एकु नामु निरंजनो जीउ ॥ तू दाता दातारु सरब दुख भंजनो जीउ ॥ दुख हरत करता सुखह सुआमी सरणि साधू आइआ ॥ संसारु सागरु महा बिखड़ा पल एक माहि तराइआ ॥ पूरि रहिआ सरब थाई गुर गिआनु नेत्री अंजनो ॥ बिनवंति नानक सदा सिमरी सरब दुख भै भंजनो ॥२॥ पद्अर्थ: धर = आसरा। निधरिआ धर = निआसरों का आसरा। एकु नामु = सिर्फ हरि नाम ही। निरंजनो = निरंजन, माया की कालिख से रहित (अंजन = कालख)। भंजनो = नाश करने वाला। हरत = दूर करने वाला। करता = कर्तार, पैदा करने वाला। सुखहु सुआमी = हे सुखों के स्वामी! साधू = गुरु। सागरु = समुंदर। बिखड़ा = मुश्किलों से भरा हुआ। गिआनु = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। नेत्री = आँखों में। अंजनो = सुरमा। सिमरी = स्मरण करूँ।2। अर्थ: हे प्रभु! तू माया की कालिख से रहित है, तेरा नाम ही निआसरों का आसरा है। तू सब जीवों को दातें देने वाला है, तू सबके दुख नाश करने वाला है। हे (सब जीवों के) दुख नाश करने वाले! सबको पैदा करने वाले! , सारे सुखों के मालिक प्रभु! जो मनुष्य गुरु की शरण आता है, उसको तू इस बड़े मुश्किल संसार-समुंदर से एक छिन में पार लंघा देता है। हे प्रभु! गुरु का दिया हुआ ज्ञान-अंजन जिस मनुष्य की आँखों में पड़ता है, उसको तू सब जगहों में दिखता है। नानक विनती करता है: हे सारे दुखों का नाश करने वाले! (मेहर कर) मैं सदा तेरा नाम स्मरण करता रहूँ।2। आपि लीए लड़ि लाइ किरपा धारीआ जीउ ॥ मोहि निरगुणु नीचु अनाथु प्रभ अगम अपारीआ जीउ ॥ दइआल सदा क्रिपाल सुआमी नीच थापणहारिआ ॥ जीअ जंत सभि वसि तेरै सगल तेरी सारिआ ॥ आपि करता आपि भुगता आपि सगल बीचारीआ ॥ बिनवंत नानक गुण गाइ जीवा हरि जपु जपउ बनवारीआ ॥३॥ पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। मोहि = मैं। नीचु = नीच जीवन वाला। अनाथु = निआसरा। प्रभ = हे प्रभु! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अपारीआ = हे बेअंत! सुआमी = हे स्वामी! थापणहारिआ = हे (ऊँची जगह पर) स्थापित करने वाले! जीअ = जीव। सभि = सारे। वसि = वश में। सारिआ = संभाल में। भुगता = (पदार्थों को) भोगने वाला। बीचारीआ = विचार करने वाला। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल करूँ। जपउ = जपूँ। बनवारीआ = हे प्रभु!।3। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! जिस पर तू मेहर (की निगाह) करता है, उनको अपने लड़ लगा लेता है। मैं गुणहीन, नीच और अनाथ (भी तेरी शरण आया हूँ, मेरे पर भी मेहर कर)। हे दया के घर! हे कृपा के घर मालिक! हे नीचों को ऊँचे बनाने वाले प्रभु! सारे जीव तेरे वश में हैं, सारे तेरी संभाल में हैं। तू स्वयं (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, (सब में व्यापक हो के) तू खुद (सारे पदार्थ) भोगने वाला है, तू आप सारे जीवों के लिए विचारें करने वाला है। नानक (तेरे दर पर) विनती करता है: हे प्रभु! (मेहर कर) मैं तेरे गुण गा के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ।3। तेरा दरसु अपारु नामु अमोलई जीउ ॥ निति जपहि तेरे दास पुरख अतोलई जीउ ॥ संत रसन वूठा आपि तूठा हरि रसहि सेई मातिआ ॥ गुर चरन लागे महा भागे सदा अनदिनु जागिआ ॥ सद सदा सिम्रतब्य सुआमी सासि सासि गुण बोलई ॥ बिनवंति नानक धूरि साधू नामु प्रभू अमोलई ॥४॥१॥ पद्अर्थ: अपारु = बेअंत। अमोलई = अमूल्य, जो किसी दुनियावी मूल्य से ना मिल सके। निति = सदा। जपहि = जपते हैं। पुरख = हे सर्व व्यापक! अतोलई = जो तोला ना जा सके। रसन = जीभ। वूठा = आ बसा। तूठा = प्रसन्न हुआ। रसहि = रस में। सेई = वही संत जन। मातिआ = मस्त। महा भागे = बड़े भाग्यों वाले। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागिआ = सचेत रहते हैं। सिंम्रतब्य = स्मृतव्य, जिसका स्मरण करना चाहिए। सिंम्रतब्य स्वामी = हे स्मरण योग्य मालिक! सासि सासि = हरेक सांस के साथ। बोलई = बोलता है। साधू = गुरु। प्रभू = हे प्रभु!।4। अर्थ: हे प्रभु! तू बेअंत है! तेरा नाम किसी (दुनियावी) कीमत से नहीं मिल सकता। हे ना तोले जा सकने वाले सर्व-व्यापक प्रभु! तेरे दास सदा तेरा नाम जपते रहते हैं। हे प्रभु! संतों पर तू प्रसन्न होता है, और उनकी जीभ पर आ बसता है, वे तेरे नाम के रस में मस्त रहते हैं। जो मनुष्य गुरु के चरणों में आ लगते हैं, वे भाग्यशाली हो जाते हैं, वे सदा हर वक्त (नाम-जपने की इनायत से माया के हमलों से) सचेत रहते हैं। नानक विनती करता है: हे स्मरणयोग्य मालिक! हे प्रभु! मुझे उस गुरु की चरण-धूल दे, जो तेरा अमूल्य नाम (सदा जपता है), जो सदा ही हरेक सांस के साथ तेरे गुण उचारता रहता है।4।1। रागु धनासरी बाणी भगत कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सनक सनंद महेस समानां ॥ सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥ पद्अर्थ: सनक सनंद = ब्रहमा के पुत्र (सनक, सनंद, सनातन, सनत कुमार)। महेस = शिव। समानां = जैसों ने। सेख नागि = शेश नाग ने (शेश नाग, सांपों का राजा, इसके एक हजार फन माने गए हैं; इनसे ये अपने ईष्ट विष्णु भगवान पर छाया करता है, हरेक जीभ से नित्य नया नाम भगवान के उचारता है)। मरमु = भेद।1। अर्थ: हे प्रभु! (ब्रहमा के पुत्रों) सनक, सनंद और शिव जी जैसों ने तेरा भेद नहीं पाया; (विष्णु के भक्त) शेशनाग ने तेरे (दिल का) राज़ नहीं समझा।1। संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। बसाई = मैं बसाता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: मैं संतों की संगति में रह के परमात्मा को अपने हृदय में बसाता हूँ।1। रहाउ। हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥ सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥ पद्अर्थ: सरि = जैसे ने। गरुड़ = विष्णु भगवान की सवारी, सारे पक्षियों का राजा। सुर पति = देवताओं का राजा इन्द्र। नरपति = मनुष्यों का राजा।2। अर्थ: (श्री राम चंद्र जी के सेवक) हनूमान जैसों ने, (विष्णु के सेवक और पक्षियों के राजे) गरुड़ जैसों ने, देवताओं के राजे इन्द्र ने, बड़े-बड़े राजाओं ने भी तेरे गुणों का अंत नहीं पाया।2। चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥ कमलापति कवला नही जानां ॥३॥ पद्अर्थ: कमलापति = लक्ष्मी का पति, विष्णु। कवला = लक्ष्मी।3। अर्थ: चार वेद, (अठारह) स्मृतियों, (अठारह) पुराणों- (इनके कर्ता ब्रहमा, मनू और ऋषियों) ने तुझे नहीं समझा, विष्णु और लक्ष्मी ने भी तेरा अंत नहीं पाया।3। कहि कबीर सो भरमै नाही ॥ पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥ पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। भरमै नाही = भटकता नहीं। पग लगि = चरणों में लग के। सरनांही = शरण में।4। अर्थ: कबीर कहता है: (बाकी सारी सृष्टि के लोग प्रभु को छोड़ के और ही तरफ भटकते रहे) एक वह मनुष्य नहीं भटकता, जो (संतों की) चरणों में लग के परमात्मा की शरण में टिका रहता है।4।1। शब्द का भाव: अन्य-पूजा छोड़ के एक परमात्मा का भजन करो। ब्रहमा, शिव, विष्णु, इन्द्र आदि और उनके सेवक परमात्मा का अंत नहीं पा सके।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |