श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥ कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥

पद्अर्थ: दिन ते = दिनों से। आव = आयु। छीजै = कमजोर होता जा रहा है। अजेही = शिकारी। बधिक = शिकारी। कहहु = बताओ। कवन बिधि कीजै = कौन सी विधी इस्तेमाल की जाए? कौन सा तरीका बरता जाए? कोई ढंग कामयाब नहीं हो सकता।1।

अर्थ: दिनों से पहर, पहर से घड़ियां (गिन लो, इस तरह थोड़ा-थोड़ा समय करके) उम्र कम होती जाती है, और शरीर कमजोर होता जाता है, (सब जीवों के सिर पर) काल-रूप शिकारी ऐसे फिरता है जैसे (हिरन आदि का शिकार करने वाले) शिकारी। बताओ, इस शिकारी से बचने के लिए कौन सा यत्न किया जा सकता है?।1।

सो दिनु आवन लागा ॥ मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सो दिनु = वह दिन (जब काल अहेरी ने हमें भी आ पकड़ना है)। सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी। का का = किस का? कोऊ है का का = कोई किस का है? कोई किसी का नहीं बन सकता।1। रहाउ।

अर्थ: (हरेक जीव के सर पर) वह दिन आता जाता है (जब काल-शिकारी आ पकड़ता है); माता, पिता, पुत्र, पत्नी -इनमें से कोई (उस काल के आगे) किसी की सहायता नहीं कर सकता।1। रहाउ।

जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥ लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥

पद्अर्थ: जोति = आत्मा, जिंद। बरतै = मौजूद है। आपा = अपना असल। जीवन पद कारन = और-और जीने के लिए, लंबी उम्र के लिए। लोचन = आँखें।2।

अर्थ: जब तक शरीर में आत्मा मौजूद रहती है, पशु- (मनुष्य) अपनी अस्लियत को नहीं समझता, और-और ही जीने की लालच करता रहता है, इसे आँखों से ये नहीं दिखता (कि काल-अहेरी से छुटकारा नहीं हो सकेगा)।2।

कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥ केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥

अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! सुनो, मन के (ये) भुलेखे दूर कर दो (कि सदा यहीं बैठे रहना है)। हे जीव! (और लालसाएं छोड़ के) सिर्फ प्रभु का नाम स्मरण करो, और उस एक की शरण आओ।3।2।

शब्द का भाव: मौत नजदीक आ रही है, उम्र धीरे-धीरे घटती जा रही है। भजन करो।

जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥ जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥

पद्अर्थ: जानै = सांझ रखता है। ता कउ = उस वास्ते। काहो अचरजु = कौन सा अनोखा काम? कोई बड़ी अनोखी बात नहीं। पैसि = पड़ के। ढुरि = ढल के, नर्म हो के, स्वै भाव गवा के।1।

अर्थ: जैसे पानी, पानी में मिल के (दोबारा) अलग नहीं हो सकता, वैसे (कबीर) जुलाहा (भी) स्वै भाव मिटा के परमात्मा में मिल गया है। इस में कोई अनोखी बात नहीं है, जो भी मनुष्य प्रभु-प्रेम और प्रभु-भक्ति से सांझ बनाता है (उसका प्रभु के साथ एक हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है)।1।

हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥ जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भोरा = भोला। तउ = तो। तजहि = त्याग दे। कबीरा = हे कबीर! निहोरा = अहसान, उपकार।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनो! (लोगों के लिए तो) मैं दिमाग का पागल ही सही (भाव, लोग मुझे भले ही मूर्ख कहें कि मैं काशी छोड़ के मगहर आ गया हूँ)। (पर,) हे कबीर! अगर तू काशी में (रहते हुए) शरीर त्यागे (और मुक्ति मिल जाए) तो इसमें परमात्मा का क्या उपकार समझा जाएगा? क्योंकि काशी में तो वैसे ही इन लोगों के ख्याल के मुताबिक मरने पर मुक्ति मिल जाती है, तो फिर स्मरण करने से क्या लाभ?।1। रहाउ।

कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥ किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥

पद्अर्थ: रे लोई = हे लोगो! हे जगत! ऊखरु = बंजर। मगहरु = एक जगह का नाम, ये गाँव उक्तर प्रदेश में जिला बस्ती में है। हिंदू लोगों का ख्याल है कि इस जगह को शिव जी ने श्राप दिया था, इसलिए यहाँ मरने से मुक्ति नहीं मिल सकती।2।

नोट: शब्द ‘रे’ पुलिंग है, इसका स्त्रीलिंग ‘री’ है। सो कबीर जी यहाँ अपनी पत्नी ‘लोई’ के लिए नहीं कह रहे।

अर्थ: (पर) कबीर कहता है: हे लोगो! सुनो, कोई मनुष्य किसी भुलेखे में ना पड़ जाए (कि काशी में मुक्ति मिलती है, और मगहर में नहीं मिलती), अगर परमात्मा (का नाम) हृदय में हो, तो काशी क्या और कलराठा मगहर क्या? (दोनों तरफ प्रभु में लीन हुआ जा सकता है)।2।3।

शब्द का भाव: प्रभु से मिलाप का तरीका प्रभु का नाम जपना ही है, किसी खास तीर्थ-यात्रा से इसका संबंध नहीं है।3।

इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥ ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥

पद्अर्थ: इंद्र लोक = स्वर्ग। सिव लोकहि = शिव पुरी में। जैबो = (अगर मनुष्य पहुँच) जाएगा। ओछे = हल्के किस्म के (काम)। करि = कर के। बाहुरि = दोबारा, फिर (शब्द ‘बाहुरि’ और ‘बाहरि’ में फर्क है इसे समझें)। ऐबो = आइबो, आ जाएगा।1।

अर्थ: अगर मनुष्य तप आदि के हल्के किस्म के काम करके इन्द्र-पुरी व शिव-पुरी आदि में भी पहुँच जाएगा तो भी वहीं दोबारा वापस आएगा (भाव, शास्त्रों के अपने ही लिखे अनुसार इन जगहों पर भी सदा के लिए टिका नहीं रहा जा सकता)।1।

किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥ राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मागउ = मैं मांगूँ। थिरु = सदा कायम रहने वाली, स्थिर। माही = में।1। रहाउ।

अर्थ: (मैं अपने प्रभु से ‘नाम’ के बिना और) क्या माँगू? कोई चीज सदा कायम रहने वाली नहीं (दिखाई देती)।1। रहाउ।

सोभा राज बिभै बडिआई ॥ अंति न काहू संग सहाई ॥२॥

पद्अर्थ: बिभै = (संस्कृत: विभय) ऐश्वर्य, वैभव। अंति = आखिरी समय। सहाई = साथी।2।

अर्थ: जगत में नाम-शोहरत, राज, ऐश्वर्य, बड़ाई - इनमें से भी कोई आखिरी समय में संगी-साथी नहीं बन सकता।2।

पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥ इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। कहु = बताओ। कवनै = किस ने? ते = से।3।

अर्थ: पुत्र, पत्नी, धन-पदार्थ - बताओ, (हे भाई!) इनसे कभी किसी ने सुख पाया है?।3।

कहत कबीर अवर नही कामा ॥ हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥

पद्अर्थ: अवर = और (काम)। नही कामा = किसी मतलब के नहीं, कोई लाभ नहीं। हमरै मन = मेरे मन को।4।

अर्थ: कबीर कहता है: (प्रभु के नाम से टूट के) और कोई काम किसी अर्थ के नहीं। मेरे मन को तो परमात्मा का नाम ही (सदा कायम रहने वाला) धन प्रतीत होता है।4।4।

शब्द का भाव: परमात्मा का भजन ही ऐक ऐसा धन है जो सदा साथ निभता है। स्वर्ग, शिव पुरा, राज, बड़ाई, संबन्धी- इनमें से कोई भी सदा का साथी नहीं।

राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥ राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! बूडते = (संसार समुंदर की विकारों की लहरों में) डूबते हैं। अधिकाई = बहुत जीव।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! प्रभु का स्मरण कर, प्रभु का स्मरण कर। सदा राम का स्मरण कर। प्रभु का स्मरण किए बिना बहुत सारे जीव (विकारों में) डूब जाते हैं।1। रहाउ।

बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥ इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥

पद्अर्थ: बनिता = पत्नी। सुत = पुत्र। ग्रेह = गृह, घर। संपति = दौलत। सुखदाई = सुख देने वाले। काल = मौत। अवध = अवधि, आखिरी समय, आखिरी सीमा।1।

अर्थ: पत्नी, पुत्र, शरीर, घर, दौलत - ये सारे सुख देने वाले प्रतीत होते हैं, पर जब मौत रूपी तेरा आखिरी समय आया, तो इनमें से कोई भी तेरा अपना नहीं रह जाएगा।1।

अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥ तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥

पद्अर्थ: अजामल = भागवत की कथा है कि एक ब्राहमण अजामल का कन्नौज की रहने वाली एक वेश्या के साथ प्रेम हो गया, सारी उम्र विकारों में गुजारता रहा। पर अपने एक पुत्र का नाम ‘नारायण’ रखने के कारण धीरे-धीरे उसकी लगन नारायण-प्रभु के साथ बनती गई, और इस तरह विकारों की ओर उपराम हो के भक्ती की ओर लग गया। गज = हाथी; भागवत की एक कथा है कि श्राप के कारण एक गंधर्व हाथी की जूनि आ पड़ा। सरोवर में पीने गए को एक तंदूए ने पकड़ लिया। परमात्मा की आराधना ने उसे इस बिपता से बचाया। गनिका = एक वेश्या, इसको एक महात्मा विकारी जीवन से बचाने के लिए ‘राम, राम’ कहने वाला एक तोता दे गए। उस तोते की संगति में इसको राम स्मरण करने की लगन लग गई, और इस तरह ये वेश्या विकारों से हट गई। पतित करम = विकार। तेऊ = ये भी।2।

अर्थ: अजामल, गज, गनिका -ये विकार करते रहे, पर जब परमात्मा का नाम इन्होंने स्मरण किया, तो ये भी (इन विकारों में से) पार लांघ गए।2।

सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥ राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥

पद्अर्थ: सूकर = सूअर। कूकर = कुत्ते। भ्रमे = भटकते रहे। तऊ = तो भी। बिखु = जहर।3।

अर्थ: (हे सज्जन!) तू सूअर, कुत्ते आदि की जूनियों में भटकता रहा, फिर भी तुझे (अब) शर्म नहीं आई (कि तू अभी भी नाम नहीं स्मरण करता)। परमात्मा का अमृत-नाम विसार के क्यों (विकारों का) जहर खा रहा है?।3।

तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥ गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥

पद्अर्थ: तजि = छोड़ दे। बिधि करम = वह कर्म जो विधि अनुसार हो, वह कर्म जिनके करने की आज्ञा शास्त्रों में मिली हो। बिधि = आज्ञा। निखेध = मनाही। सनेही = प्यारा, साथी।4।

अर्थ: (हे भाई!) शास्त्रों के अनुसार किए जाने वाले कौन से काम है, और शास्त्रों में कौन से कामों के करने की मनाही है; इस वहिम को छोड़ दे, और परमात्मा का नाम स्मरण कर। हे दास कबीर! तू अपने गुरु की कृपा से अपने परमात्मा को ही अपना प्यारा (साथी) बना।4।5।

शब्द का भाव: परमात्मा का नाम स्मरण करो- यही है सदा का साथी, और इस की इनायत से बड़े-बड़े विकारी भी तैर जाते हैं। कर्मकांड के भुलेखों में ना पड़ो।

धनासरी बाणी भगत नामदेव जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

गहरी करि कै नीव खुदाई ऊपरि मंडप छाए ॥ मारकंडे ते को अधिकाई जिनि त्रिण धरि मूंड बलाए ॥१॥

पद्अर्थ: गहरी = गहरी। नीव = नींव। मंडप = शामियाने, महल माढ़ियां। छाए = बनवाए। मारकंडे = मारकण्डेय, एक ऋषि का नाम है, बहुत लंबी उम्र वाला था, पर सारी उम्र उसने झोपड़ी में ही गुजारी। अधिकाई = बड़ी लंबी उम्र वाला। जिनि = जिस ने। त्रिण = तीले। धारि = धारण करके, रख के। मूंड = सिर। त्रिण धरि मूंड = सिर पर तिनके रखके, तिनकों की कुल्ली बना के। बलाए = समय गुजारा।1।

अर्थ: जिन्होंने गहरी नीवें खुदवा के ऊपर महल-माढ़ियां उसरवाई (उनके भी यहीं रह गए; तभी समझदार लोक इन महल-माढ़ियों का मान नहीं करते; देखो) मारकण्डे ऋषि से ज्यादा उम्र किसी की होनी है? उसने तीलों की कुल्ली में ही समय बिताया।1।

हमरो करता रामु सनेही ॥ काहे रे नर गरबु करत हहु बिनसि जाइ झूठी देही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: करता = कर्तार। सनेही = प्यारा, सदा साथ निभाने वाला। हे नर = हे लोगो! गरबु = अहंकार। झूठी देही = नाशवान शरीर।1। रहाउ।

अर्थ: हे लोगो! (अपने शरीर का) क्यों गुमान करते हो? ये शरीर नाशवान है, नाश हो जाएगा; हमारा असल प्यारा (जिसने साथ निभाना है) तो कर्तार है, परमात्मा है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh