श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मेरी मेरी कैरउ करते दुरजोधन से भाई ॥ बारह जोजन छत्रु चलै था देही गिरझन खाई ॥२॥

पद्अर्थ: कुरू = दिल्ली के पास के इलाके का नाम पुराने समय में ‘कुरू’ था। कैरउ = कौरव, ‘कुरू देश में राज करने वाले राजाओं की संतान। से = जैसे। भाई = भ्राता। जोजन = चार कोस। बारह जोजन = अढ़तालीस कोस। छत्र चलै था = छत्र का प्रभाव था, फौजों का फैलाव था।2।

अर्थ: जिस कौरवों के दुर्योधन जैसे (बली) भाई थे, वे भी (ये गुमान करते रहे कि) हमारी (बादशाही) हमारी (बादशाही), (पांडव क्या लगते हैं इस धरती के?); (कुरूक्षेत्र के युद्ध के वक्त) अढ़तालिस कोस तक उनकी सेना का फैलाव था (पर किधर गई बादशाहियत और कहां गया छत्र? कुरूक्षेत्र के युद्ध में) गिद्धों ने उनकी लाशें खाई।2।

सरब सुोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥ कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥३॥

पद्अर्थ: सुोइन = सोने की। अधिकाई = बड़े बली। कहा भइओ = आखिर क्या बना? आखिर में कुछ भी नहीं बना। दरि = दर पर, दरवाजे पर।3।

नोट: ‘सुोइन’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ व ‘ु’ हैं; असल शब्द है ‘सोइन’, यहाँ पढ़ना है ‘सुइन’।

अर्थ: रावण जैसे बड़े बली राजे की लंका सारी सोने की थी, (उसके महलों के) दरवाजे पर हाथी-घोड़े खड़े होते थे, पर आखिर में क्या बना? एक पल में सब कुछ पराया हो गया।3।

दुरबासा सिउ करत ठगउरी जादव ए फल पाए ॥ क्रिपा करी जन अपुने ऊपर नामदेउ हरि गुन गाए ॥४॥१॥

पद्अर्थ: दुरबासा = दुर्वासा ऋषि एक तपस्वी था, बहुत जल्दबाज स्वभाव वाला, जल्दी ही गुस्से में आ के श्राप दे देता था। ठगउरी = ठगी, मजाक।4।

अर्थ: (सो, अहंकार किसी भी चीज का हो बुरा होता है; अहंकार में आ के ही) यादवों ने दुर्वासा के साथ मसखरी की और फल ये मिला कि (सारी कुल ही समाप्त हो गई)। (पर शुक्र है) अपने दास नामदेव पर परमात्मा ने कृपा की है और नामदेव (मान त्याग के) परमात्मा के गुण गाता है।4।1।

भाव: अहंकार, चाहे किसी भी चीज का हो, बुरा है।

नोट: कृष्ण जी के कुल ‘यादव’ के कुछ लड़के एक बार समुंदर के किनारे द्वारिका के पास एक मेल के वक्त पर एकत्र हुए। वहीं दुर्वासा ऋषि तप करता था, इन लड़कों को मजाक सूझा। एक बग़ैर दाढ़ी वाले लड़के के पेट पर लोहे का तसला उलटा के बाँध के उसे औरतों वाले कपड़े पहना के उसके पास ले गए। पूछा, ऋषि जी! इसके घर क्या पैदा होगा? दुर्वासा समझ गया कि मसखरी कर रहे हैं, गुस्से में आ के उसने श्राप दे डाला कि जो पैदा होगा वह तुम्हारी सारी कुल का नाश कर देगा। श्राप से घबरा के कृष्ण जी की सलाह से वे उस तसले को पत्थर से रगड़ते रहे कि इस लोह का निशान ही मिट जाए। छोटा सा टुकड़ा ही रह गया, वह समुंदर में फेंक दिया। ये टुकड़ा एक मछली हड़प कर गई। ये मछली एक शिकारी ने पकड़ी। चीरने पर निकला ये लोहा उसने अपने तीर के आगे लगा लिया। जहाँ तसला पत्थर पर रगड़ा था, वहाँ सरकण्डा उग आया। एक दिन एक मेले के वक्त यादवों के जवान लड़के शराब पी के उस सरकण्डे वाली जगह पर आ इकट्ठे हुए। शराब की मस्ती में कुछ बोल-कुबोल हो गया, बात बढ़ गई, लड़ाई हो गई, वह सरकण्डे भी उखाड़-उखाड़ के लड़ाई में इस्तेमाल किया और सारे ही आपस में लड़ते हुए मर गए। कुल का नाश हुआ देख के एक दिन कृष्ण जी वन में लेटे विश्राम कर रहे थे, एक घुटने पर दूसरा पैर टिका रखा था। वह मछली वाला शिकारी शिकार की तलाश में आ निकला; दूर से देख के उसने हिरन समझा, और श्रापे हुए लोहे में से बचे हुए लोहे के टुकड़े वाला तीर कस के दे मारा और इस तरह यादव-कुल का आखिरी दीया भी बुझ गया।

दस बैरागनि मोहि बसि कीन्ही पंचहु का मिट नावउ ॥ सतरि दोइ भरे अम्रित सरि बिखु कउ मारि कढावउ ॥१॥

पद्अर्थ: बैरागनि = संस्कृत: वैरागिनी = a female ascetic who has subdued all her passions and desires, शांत हुई इंद्रिय। मोहि = मैंने (देखें बंद नं: 2 में शब्द ‘मोहि’)। पंचहु का = पाँचों कामादिकों का। नावउ = नाम ही, निशान ही। सतरि दोइ = बहत्तर हजार नाड़ियां (देखें, ‘बहतरि घर इक पुरखु समाइआ’ – सूही कबीर जी)। अंम्रित सरि = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जलके सरोवर से। बिखु = जहर, माया का प्रभाव।1।

अर्थ: (प्रभु के नाम का वैरागी बन के) मैंने अपनी दसों वैरागिन इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, (मेरे अंदर से अब) पाँच कामादिकों का खुरा-खोज ही मिट गया है (भाव, मेरे पर ये अपना जोर नहीं डाल सकते); मैंने अपने रग-रग को नाम-अमृत के सरोवर से भर लिया है और (माया के) जहर का पूर्ण तौर पर नाश कर दिया है।1।

पाछै बहुरि न आवनु पावउ ॥ अम्रित बाणी घट ते उचरउ आतम कउ समझावउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पाछै = दोबारा। बहुरि = फिर। घट ते = हृदय से, दिल से, चिक्त जोड़ के। उचरउ = मैं उचारता हूँ। आतम कउ = अपने आप को। रहाउ।

अर्थ: अब मैं बार-बार जनम-मरन में नहीं आऊँगा, (क्योंकि) मैं चिक्त जोड़ के प्रभु की महिमा की वाणी उचारता हूँ और अपनी आत्मा को (सही जीवन की) शिक्षा देता रहता हूँ।1। रहाउ।

बजर कुठारु मोहि है छीनां करि मिंनति लगि पावउ ॥ संतन के हम उलटे सेवक भगतन ते डरपावउ ॥२॥

पद्अर्थ: बजर = वज्र, कड़ा। कुठारु = कुहाड़ा। मोहि = मैं (देखें बंद नं: 1 में शब्द ‘मोहि’)। लगि = लग के। पावउ = चरणों में (यहाँ रामायण की उस साखी की तरफ इशारा है जब सीता के स्वयंवर के वक्त श्री राम चंद्र जी ने शिव जी का धनुष तोड़ा था; परषुराम ये सुन के अपना भयानक शस्त्र कुहाड़ा ले के श्री रामचंद्र जी को मारने के लिए आया। पर श्री रामचंद्र जी ने क्रोध में आए परुषुराम के चरण छू लिए, इस तरह उसका क्रोध-बल खींच लिया और कुहाड़ा उसके हाथों से गिर पड़ा)। डरवापउ = डरता हूँ।2।

अर्थ: अपने सतिगुरु के चरणों में लग के, गुरु के आगे अरजोई करके (काल के हाथों से) मैंने (उसका) भयानक कुहाड़ा छीन लिया है। (काल से डरने की जगह) मैं उल्टा भक्तजनों से डरता हूँ (भाव, अदब करता हूँ) और उनका ही सेवक बन गया हूँ।2।

इह संसार ते तब ही छूटउ जउ माइआ नह लपटावउ ॥ माइआ नामु गरभ जोनि का तिह तजि दरसनु पावउ ॥३॥

पद्अर्थ: छूटउ = बचता हूँ। तिह = इस माया को। तजि = त्याग के।3।

अर्थ: इस संसार के बंधनो से मेरी तब ही खलासी हो सकती है अगर मैं माया के मोह में ना फंसा; माया (का मोह) ही जनम-मरन के चक्कर में पड़ने का मूल है, इसको त्याग के ही प्रभु का दीदार हो सकता है।3।

इतु करि भगति करहि जो जन तिन भउ सगल चुकाईऐ ॥ कहत नामदेउ बाहरि किआ भरमहु इह संजम हरि पाईऐ ॥४॥२॥

पद्अर्थ: इतु करि = इस तरह। करहि = करते हैं। चुकाईऐ = दूर हो जाता है। बाहरि = (बैरागी बन के वन आदि में) बाहर। इह संजम = (इन्द्रियों को काबू में रख के, कामादिकों से बच के, अपने गुरु की शरण पड़ कर, माया का मोह त्याग के) इन जुगतियों से।4।

अर्थ: इस तरीके से जो मनुष्य प्रभु की भक्ति करते हैं; उनका हरेक किस्म का सहम दूर हो जाता है। नामदेव कहता है: (हे भाई! भेखी वैरागी बन के) बाहर भटकने से कोई लाभ नहीं; (जो संयम हमने बताए हैं) इस संयमों से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।4।2।

शब्द का भाव: नाम-जपने की महिमा से इंद्रिय वश में आ जाती हैं और जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।

मारवाड़ि जैसे नीरु बालहा बेलि बालहा करहला ॥ जिउ कुरंक निसि नादु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥१॥

पद्अर्थ: मारवाड़ि = मारवाड़ (जैसे रेतीले देश) में। नीरु = पानी। बालहा = (संस्कृत: वल्लभ) प्यारा। करहला = ऊँठ को। कुरंक = हिरन। निसि = रात को। नादु = (घंडेहेड़े की) आवाज। मनि = मन में। रमईआ = सुंदर राम।1।

अर्थ: जैसे मारवाड़ (रेगिस्तानी देश) में पानी प्यारा लगता है, जैसे ऊँठ को बेल प्यारी लगती है, जैसे हिरन को रात के वक्त (घंडेहेड़े की) आवाज प्यारी लगती है, वैसे ही मेरे मन को राम अच्छा लगता है।1।

तेरा नामु रूड़ो रूपु रूड़ो अति रंग रूड़ो मेरो रामईआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे सुंदर राम! तेरा नाम सोहणा है, तेरा रूप सोहणा है और तेरा रंग बहुत ही सोहणा है।1। रहाउ।

जिउ धरणी कउ इंद्रु बालहा कुसम बासु जैसे भवरला ॥ जिउ कोकिल कउ अ्मबु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥२॥

पद्अर्थ: धरणी = धरती। इंद्रु = (भाव) बरसात। कुसम बासु = फूल की सुगंधि। भवरला = भौरे को।2।

अर्थ: जैसे धरती को वर्षा प्यारी लगती है, जैसे भौरे को फूल की सुगंधि प्यारी लगती है, जैसे कोयल को आम प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को राम अच्छा लगता है।2।

चकवी कउ जैसे सूरु बालहा मान सरोवर हंसुला ॥ जिउ तरुणी कउ कंतु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥३॥

पद्अर्थ: सूरु = सूरज। हंसुला = हंस को। तरुणी = जवान स्त्री। कंतु = खसम।3।

अर्थ: जैसे चकवी को सूरज प्यारा लगता है, जैसे हंस को मान सरोवर प्यारा लगता है, जैसे जवान स्त्री को (अपना) पति प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को सुंदर राम प्यारा लगता है।3।

बारिक कउ जैसे खीरु बालहा चात्रिक मुख जैसे जलधरा ॥ मछुली कउ जैसे नीरु बालहा तिउ मेरै मनि रामईआ ॥४॥

पद्अर्थ: खीरु = दूध। चात्रिक = पपीहा। जलधरा = बादल।4।

अर्थ: जैसे बालक को दूध प्यारा लगता है, जैसे पपीहे के मुँह को बादल प्यारा लगता है, मछली को जैसे पानी प्यारा लगता है, वैसे ही मेरे मन को सुंदर राम अच्छा लगता है।4।

साधिक सिध सगल मुनि चाहहि बिरले काहू डीठुला ॥ सगल भवण तेरो नामु बालहा तिउ नामे मनि बीठुला ॥५॥३॥

पद्अर्थ: साधिक = साधना करने वाले। सिध = पहुँचे हुए योगी। बीठुला = (संस्कृत: विष्ठल, one situated at a distance. वि+स्थल = जिसका स्थान दूर परे है, जो माया के प्रभाव से परे है) परमात्मा।5।

अर्थ: (योग) साधना करने वाले, (योग-साधना में सिद्ध) सिद्ध योगी और सारे मुनि वर (सुंदर राम के दर्शन करना) चाहते हैं, पर किसी विरले को दीदार होता है। (हे मेरे सुंदर राम! जैसे) सारे भवनों (के जीवों) को तेरा नाम प्यारा है, वैसे ही मुझ नामे (नामदेव) के मन को भी बीठल प्यारा है।5।3।

नोट: यहाँ ‘बीठुल’ अर्थ किसी कृष्ण मूर्ति से नहीं है, क्योंकि ‘रहाउ’ की तुक में उसे ‘रामईआ’ कह के संबोधन करते हैं; हरेक बंद के आखिर में भी जिसको ‘रामईआ’ कहते हैं, उसको आखिरी बंद में ‘बीठुल’ कहा गया है। नामदेव जी का ‘रामईआ’ और ‘बीठुल’ एक ही है। अगर नामदेव जी कृष्ण-उपासक होते तो उसको ‘रामईआ’ नहीं कहते।

पहिल पुरीए पुंडरक वना ॥ ता चे हंसा सगले जनां ॥ क्रिस्ना ते जानऊ हरि हरि नाचंती नाचना ॥१॥

पद्अर्थ: पहिल पुरीए = पहले पहल। (पुरा, संस्कृत पद है, इसका अर्थ है ‘पहले’)। पुंडरक वना = पुंडरकों का वन, कमल के फूलों का खेत। पुंडरक = पुंडरीक, सफेद कमल फूल। ता चे = उस (पुंडरक वन) के। सगले जनां = सारे जीव-जंतु। क्रिस्ना = माया। ते = से। जानऊ = जानो, समझो। हरि क्रिस्ना = प्रभु की माया। हरि नाचना = प्रभु की नाच करने वाली (सृष्टि)। नाचंती = नाच रही है।1।

अर्थ: पहले पहल (जो जगत बना वह, मानो) कमल फूलों का खेत है, सारे जीव-जंतु उस (कमल के फूलों के खेत) के हंस हैं। परमात्मा की ये रचना नाच कर रही है। ये प्रभु की माया (की प्रेरणा) से समझो।1।

पहिल पुरसाबिरा ॥ अथोन पुरसादमरा ॥ असगा अस उसगा ॥ हरि का बागरा नाचै पिंधी महि सागरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पुरसाबिरा = पुरस+आबिरा। पुरस = परमात्मा। आबिरा = प्रगट (हुआ)। आबिर भू = आविर भू, प्रगट होना। अथोन = उससे पीछे, फिर। पुरसादमरा = पुरुषात्+अमरा, पुरुष से माया। अमरा = माया, कुदरत। अस गा = इस का। अस = और। उस गा = उस का। बागरा = सुंदर सा बाग़। पिंधी = टिंडां, रहट के डब्बे जिसमें पानी कूएं से निकलता है। सागरा = समुंदर, पानी।1। रहाउ।

अर्थ: पहले पुरुष (अकाल पुरख) प्रगट हुआ (“आपीनै् आपु साजिओ, आपीनै रचिओ नाउ”)। फिर अकाल-पुरख से माया (बनी) (“दुयी कुदरति साजीअै”)। इस माया का और उस अकाल-पुरख का (मेल हुआ) (“करि आसणु डिठो चाउ”)। (इस तरह ये संसार) परमात्मा का एक सुंदर सा बाग़ (बन गया है, जो) ऐसे नाच रहा है जैसे (कूएं की) टिंडों में पानी नाचता है (भाव, संसार के जीव माया में मोहित हो के दौड़-भाग कर रहे हैं, माया के हाथों में नाच रहे हैं)।1। रहाउ।

नाचंती गोपी जंना ॥ नईआ ते बैरे कंना ॥ तरकु न चा ॥ भ्रमीआ चा ॥ केसवा बचउनी अईए मईए एक आन जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: गोपी जंना = स्त्रीयां और मर्द। नईआ = नायक, परमात्मा। ते = से। बैरे = अलग। कंना = कोई नहीं। केसवा बचउनी = केशव के वचन ही। अईए मईए = स्त्री मर्द में। अईआ = स्त्री, औरत, महिला, नारी। मईआ = मर्य, मनुष्य। एक आन = एकायन, एक अयन। अयन = रास्ता, एक ही रास्ते से, एक रस।2।

अर्थ: स्त्रीयां-मर्द सब नाच रहे हैं, (पर इन सबमें) परमात्मा के बिना और कोई नहीं है। (हे भाई! इस में) शक ना कर, (इस संबंध में) भ्रम दूर कर दे। हरेक स्त्री-मर्द में परमात्मा के वचन ही एक-रस हो रहे हैं (भाव, हरेक जीव में परमात्मा खुद ही बोल रहा है)।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh