श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जैतसरी महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

कोई जानै कवनु ईहा जगि मीतु ॥ जिसु होइ क्रिपालु सोई बिधि बूझै ता की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कोई = कोई विरला। ईहा जगि = यहाँ जगत में। सोई = वही मनुष्य। बिधि = जुगति। ता की = उस मनुष्य की। रीति = जीवन जुगति।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य जानता है (कि) यहाँ जगत में (असली) मित्र कौन है। जिस मनुष्य पर (परमात्मा) दयावान होता है, वही मनुष्य इस बात को समझता है, (फिर) उस मनुष्य की जीवन-जुगति पवित्र हो जाती है।1। रहाउ।

मात पिता बनिता सुत बंधप इसट मीत अरु भाई ॥ पूरब जनम के मिले संजोगी अंतहि को न सहाई ॥१॥

पद्अर्थ: बनिता = स्त्री। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। इसट = प्यारे। अरु = और। पूरब = पहले। संजोगी = संजोगों से। अंतहि = आखिरी समय में। को = कोई भी। सहाई = साथी।1।

अर्थ: हे भाई! माता-पिता, स्त्री, पुत्र, रिश्तेदार, प्यारे मित्र और भाई - ये सारे पहले जन्मों के संयोगों के कारण (यहाँ) आ मिले हैं। आखिरी वक्त पर इनमें से कोई भी साथी नहीं बनता।1।

मुकति माल कनिक लाल हीरा मन रंजन की माइआ ॥ हा हा करत बिहानी अवधहि ता महि संतोखु न पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: मुकति = (मौक्तिक) मोती। कनिक = सोना। मन रंजन की = मन को खुश करने वाली। बिहानी = बीत गई। अवधहि = उम्र। ता महि = इन पदार्थों में। संतोखु = शांति, तृप्ति।2।

अर्थ: हे भाई! मोतियों की माला, सोना, लाल, हीरे, मन को खुश करने वाली माया- इनमें (लगने से) सारी उम्र ‘हाय हाय’ करते हुए गुजर जाती है, मन नहीं भरता।2।

हसति रथ अस्व पवन तेज धणी भूमन चतुरांगा ॥ संगि न चालिओ इन महि कछूऐ ऊठि सिधाइओ नांगा ॥३॥

पद्अर्थ: हसति = हाथी। अस्व = अश्व, घोड़े। पवन तेज = हवा के वेग वाले। धणी = धन का मालिक। भूमन = जमीन का मालिक। चतुरांगा = चार अंगों वाली फौज (जिस में हों: हाथी, रथ, घोड़े, पैदल)। संगि = साथ। कछूऐ = कुछ भी।3।

अर्थ: हे भाई! हाथी, रथ, हवा के वेग समान तेज दौड़ने वाले घोड़े (हों), धनाढ हो, जमीन का मालिक हो, चारों किस्म की फौज का मालिक हो - इनमें से कोई (भी) चीज साथ नहीं जाती, (इनका मालिक मनुष्य यहाँ से) नंगा ही उठ के चल पड़ता है।3।

हरि के संत प्रिअ प्रीतम प्रभ के ता कै हरि हरि गाईऐ ॥ नानक ईहा सुखु आगै मुख ऊजल संगि संतन कै पाईऐ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: प्रिअ = प्यारे। ता कै = उनकी संगति में। गाईऐ = गाना चाहिए। ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। ऊजल = रौशन। कै संगि = के साथ, की संगति में।4।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा के संत जन परमात्मा के प्यारे होते हैं, उनकी संगति में परमात्मा की महिमा करनी चाहिए। इस लोक में सुख मिलता है, परलोक में सुख-रू हो जाते हैं। (पर ये दाति) संत-जनों की संगति में ही मिलती है।4।1।

जैतसरी महला ५ घरु ३ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

देहु संदेसरो कहीअउ प्रिअ कहीअउ ॥ बिसमु भई मै बहु बिधि सुनते कहहु सुहागनि सहीअउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संदेसरो = प्यारा संदेश। कहीअउ = बताओ। प्रिअ संदेसरो = प्यारे का मीठा संदेशा। बिसमु = हैरान। भई = हो गई। बहु बिधि = कई किस्में। कहहु = बताओ। सहीअउ = हे सहेलियो!।1। रहाउ।

अर्थ: हे सोहागवती सहेलियो! (हे गुरु के सिखो!) मुझे प्यारे प्रभु का मीठा सा संदेशा दो, बताओ। मैं (उस प्यारे की बाबत) कई तरह (की बातें) सुन-सुन के हैरान हो रही हूँ।1। रहाउ।

को कहतो सभ बाहरि बाहरि को कहतो सभ महीअउ ॥ बरनु न दीसै चिहनु न लखीऐ सुहागनि साति बुझहीअउ ॥१॥

पद्अर्थ: को = कोई। कहतो = कहता है। महीअउ = में। बरनु = रंग, वर्ण। दीसै = दिखता। चिहन = चिन्ह, निशान, लक्षण। लखीऐ = नजर आता। सुहागनि = हे सोहागनो! सति = सति, सच। बुझहीअउ = समझाओ।1।

अर्थ: कोई कहता है, वह सबसे बाहर ही बसता है, कोई कहता है, वह सबमें बसता है। उसका रंग नहीं दिखता, उसका कोई लक्षण नजर नहीं आता। हे सोहागनों! तुम मुझे सच्ची बात बताओ।1।

सरब निवासी घटि घटि वासी लेपु नही अलपहीअउ ॥ नानकु कहत सुनहु रे लोगा संत रसन को बसहीअउ ॥२॥१॥२॥

पद्अर्थ: निवासी = निवास करने वाला। घटि घटि = हरेक शरीर में। वासी = बसने वाला। लेपु = (माया का) असर। अलपहीअउ = अल्प मात्र, रती भर भी। नानक कहत = नानक कहता है। हे लोगा = हे लोगो! संत रसन को = संत को रसन, संत की रसना पे। बसहीअउ = बसता है।2।

अर्थ: नानक कहता है: हे लोगो! सुनो! वह परमात्मा सभी में निवास रखने वाला है, हरेक के शरीर में बसने वाला है (फिर भी, उसको माया का) अल्प मात्र भी लेप नहीं है। वह प्रभु संत जनों की जीभ पर बसता है (संतजन हर वक्त उसका नाम जपते हैं)।2।1।2।

जैतसरी मः ५ ॥ धीरउ सुनि धीरउ प्रभ कउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धीरउ = मैं धीरज हासिल करता हूँ। कउ = को। सुनि = सुन के।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं प्रभु (की बातों) को सुन-सुन के (अपने मन में) सदा धीरज हासल करता रहता हूँ।1। रहाउ।

जीअ प्रान मनु तनु सभु अरपउ नीरउ पेखि प्रभ कउ नीरउ ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ = जिंद। सभु = हरेक चीज, सब कुछ। अरपउ = मैं अर्पित करता हूँ। नीरउ = नेरउ, नजदीक। पेखि = देख के।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु को हर वक्त (अपने) नजदीक देख-देख के मैं अपनी जिंद प्राण, अपना तन-मन सब कुछ उसकी भेट करता रहता हूँ।1।

बेसुमार बेअंतु बड दाता मनहि गहीरउ पेखि प्रभ कउ ॥२॥

पद्अर्थ: बड = बड़ा। मनहि = मन में। गहीरउ = मैं पकड़े रखता हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! वह प्रभु बड़ा दाता है, बेअंत है, उसके गुणों का लेखा नहीं हो सकता। उस प्रभु को (हर जगह) देख के मैं उसको अपने मन में टिकाए रखता हूँ।2।

जो चाहउ सोई सोई पावउ आसा मनसा पूरउ जपि प्रभ कउ ॥३॥

पद्अर्थ: चाहउ = चाहूँ। सोई सोई = वही वही चीज। पावउ = पाऊँ। मनसा = मनीषा, मन की मुराद। पूरउ = मैं पूरी कर लेता हूँ।3।

अर्थ: हे भाई! मैं (जो जो चीज) चाहता हूँ, वही वही (प्रभु से) प्राप्त कर लेता हूँ। प्रभु (के नाम) को जप जप के मैं अपनी हरेक आस मुराद (उसके दर से) पुरी कर लेता हूँ।3।

गुर प्रसादि नानक मनि वसिआ दूखि न कबहू झूरउ बुझि प्रभ कउ ॥४॥२॥३॥

पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। मनि = मन में। दूखि = (किसी) दुख में। झूरउ = झुरता हूँ। बुझि = समझ के।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की कृपा से (वह प्रभु मेरे) मन में आ बसा है, अब मैं प्रभु (की उदारता) को समझ के किसी भी दुख में चिंतातुर नहीं होता।4।2।3।

जैतसरी महला ५ ॥ लोड़ीदड़ा साजनु मेरा ॥ घरि घरि मंगल गावहु नीके घटि घटि तिसहि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लोड़ीदड़ा = जिसको हरेक जीव चाहता है। घरि घरि = हरेक घर में, हरेक ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा। मंगल = महिमा के गीत। नीके = सोहणे। घटि घटि = हरेक शरीर में। तिसहि = उस का ही। बसेरा = निवास।1। रहाउ।

नोट: ‘तिसहि’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! मेरा सज्जन प्रभु ऐसा है जिसको हरेक जीव मिलना चाहता है। हे भाई! हरेक ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा उसकी महिमा के सोहाने गीत गाया करो। हरेक शरीर में उस का ही निवास है।1। रहाउ।

सूखि अराधनु दूखि अराधनु बिसरै न काहू बेरा ॥ नामु जपत कोटि सूर उजारा बिनसै भरमु अंधेरा ॥१॥

पद्अर्थ: सूखि = सुख में। अराधनु = स्मरण। दूखि = दुख में। काहू बेरा = किसी भी समय। जपत = जपते हुए। कोटि = करोड़ों। सूर = सूरज। उजारा = प्रकाश। भरमु = भटकना।1।

अर्थ: हे भाई! सुख में (भी उस परमात्मा का) स्मरण करना चाहिए, दुख में (उसका ही) स्मरण करना चाहिए, वह परमात्मा किसी भी समय हमें ना भूले। उस परमात्मा का नामजपते हुए (मनुष्य के मन में, मानो) करोड़ों सूरजों जितनी रौशनी हो जाती है (मन में से) माया वाली भटकना समाप्त हो जाती है, (आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी का) अंधकार दूर हो जाता है।1।

थानि थनंतरि सभनी जाई जो दीसै सो तेरा ॥ संतसंगि पावै जो नानक तिसु बहुरि न होई है फेरा ॥२॥३॥४॥

पद्अर्थ: थानि = जगह में। थनंतरि = थान अंतरि, जगह में। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। जाई = जगहों में। संगि = संगति में। बहुरि = फिर, दोबारा। फेरा = जनम मरन का चक्कर।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) हरेक जगह में, सब जगहों में (तू बस रहा है) जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह सब कुछ तेरा ही स्वरूप है। साधु-संगत में रह के जो मनुष्य तुझे ढूँढ लेता है उसको दोबारा जनम-मरण का चक्कर नहीं पड़ता।2।3।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh