श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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करि कीरति जसु अगम अथाहा ॥ खिनु खिनु राम नामु गावाहा ॥ मो कउ धारि क्रिपा मिलीऐ गुर दाते हरि नानक भगति ओुमाहा राम ॥४॥२॥८॥

पद्अर्थ: करि = करके। कीरति = कीर्ती, महिमा। अथाहा = गहरी, गहरे जिगरे वाली। खिनु खिनु = हर छिन, हर वक्त। मो कउ = मुझे। कउ = को। गुर = हे गुरु!।4।

अर्थ: हे भाई! उस अगम्य (पहुँच से परे) और गहरे जिगरे वाले परमात्मा की महिमा करके, यश करके, हर समय उसका नाम जपा करो। हे नानक! (कह:) हे नाम की दाति देने वाले गुरु! मेरे पर मेहर कर, मुझे मिल, (तेरे मिलाप की इनायत से मेरे अंदर) भक्ति करने का चाव पैदा हो।4।2।8।

जैतसरी मः ४ ॥ रसि रसि रामु रसालु सलाहा ॥ मनु राम नामि भीना लै लाहा ॥ खिनु खिनु भगति करह दिनु राती गुरमति भगति ओुमाहा राम ॥१॥

पद्अर्थ: रसि = आनंद से। रसालु = (रस+आलय) रसों का घर, रसीला। सालाहा = हम सालाहते हैं। नामि = नाम में। भीना = भीग गया। लाहा = लाभ। करह = हम करते हैं। उमाहा = उत्शाह, चाव।1।

अर्थ: हे भाई! हम बड़े आनंद से रसीले राम की महिमा करते हैं। हमारा मन राम के नाम-रस में भीग रहा है, हम (हरि-नाम की) कमाई कर रहे हैं। हम हर वक्त दिन-रात परमात्मा की भक्ति करते हैं। गुरु की मति की इनायत से (हमारे अंदर प्रभु की) भक्ति का चाव बन रहा है।1।

हरि हरि गुण गोविंद जपाहा ॥ मनु तनु जीति सबदु लै लाहा ॥ गुरमति पंच दूत वसि आवहि मनि तनि हरि ओमाहा राम ॥२॥

पद्अर्थ: जपाहा = हम जपते हैं। जीति = जीत के, वश में कर के। दूत = (कामादिक) वैरी। वसि = वश में। आवहि = आ जाते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! हम गोबिंद हरि के गुण गा रहे हैं (इस तरह अपने) मन को शरीर को वश में करके गुरु-शब्द (का) लाभ प्राप्त कर रहे हैं। हे भाई! गुरु की मति लेने से (कामादिक) पाँचों वैरी वश में आ जाते हैं, मन में हृदय में हरि-नाम जपने का उत्साह पैदा हो जाता है।2।

नामु रतनु हरि नामु जपाहा ॥ हरि गुण गाइ सदा लै लाहा ॥ दीन दइआल क्रिपा करि माधो हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥

पद्अर्थ: गाइ = गा के। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! माधो = हे माया के पति!।3।

अर्थ: हे भाई! हरि-नाम रत्न (जैसा कीमती पदार्थ है, हम ये) हरि-नाम जप रहे हैं। परमात्मा की महिमा के गीत गा गा के सदा कायम रहने वाली कमाई कमा रहे हैं। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! मेहर कर, हमारे मन में तेरा नाम जपने का चाव बना रहे।3।

जपि जगदीसु जपउ मन माहा ॥ हरि हरि जगंनाथु जगि लाहा ॥ धनु धनु वडे ठाकुर प्रभ मेरे जपि नानक भगति ओमाहा राम ॥४॥३॥९॥

पद्अर्थ: जगदीसु = जगत का मालिक (जगत = ईश)। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ। माहा = में। जगंनाथु = जगत का नाथ। जगि = जगत में। धनु धनु = धन्य धन्य, साराहनीय। प्रभ = हे प्रभु!।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे साराहनीय प्रभु! हे मेरे सबसे बड़े मालिक! मैं तुझे जगत के मालिक को अपने मन में सदा जपता रहूँ (क्योंकि) हे हरि! तुझे जगननाथ के नाथ को सदा जपना ही जगत में (असल) लाभ है, (मेहर कर, तेरा नाम) जप के (मेरे अंदर तेरी) भक्ति का उत्शाह बना रहे।4।2।9।

जैतसरी महला ४ ॥ आपे जोगी जुगति जुगाहा ॥ आपे निरभउ ताड़ी लाहा ॥ आपे ही आपि आपि वरतै आपे नामि ओुमाहा राम ॥१॥

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। जुगाहा = सारे युगों में। ताड़ी = समाधि। नामि = नाम में (जोड़ के)। ओुमाहा = उमाह, उत्साह।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही जोगी है, खुद ही सब युगों में जोग की जुगति है, खुद ही निडर हो के समाधि लगाता है। हर जगह स्वयं ही स्वयं काम कर रहा है, आप ही नाम में जोड़ के स्मरण का उत्साह दे रहा है।1।

आपे दीप लोअ दीपाहा ॥ आपे सतिगुरु समुंदु मथाहा ॥ आपे मथि मथि ततु कढाए जपि नामु रतनु ओुमाहा राम ॥२॥

पद्अर्थ: दीप = द्वीप, जज़ीरे। लोअ = लोक, भवन (बहुवचन)। दीपाहा = रौशनी करने वाला। मथाहा = मथता है। मथि = मथ के। ततु = तत्व, मक्खन, अस्लियत।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही द्वीप है, स्वयं ही सारे भवन है, खुद ही (सारे भवनों में) रौशनी है। प्रभु खुद ही गुरु है, खुद ही (वाणी का) समुंदर है, खुद ही (इस समुंदर को) मथने वाला (विचारने वाला) है। खुद ही (वाणी के समुंदर को) मथ-मथ के (विचार-विचार) के (इसमें से) मक्खन (अस्लियत) मिलवाता है, खुद ही (अपना) रत्न जैसा कीमती नाम जप के (जीवों के अंदर जपने का) चाव पैदा करता है।2।

सखी मिलहु मिलि गुण गावाहा ॥ गुरमुखि नामु जपहु हरि लाहा ॥ हरि हरि भगति द्रिड़ी मनि भाई हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥३॥

पद्अर्थ: सखी = हे सहेलियो! मिलि = मिल के। गावाहा = गाएं। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। लाहा = लाभ। द्रिढ़ी = हृदय में पक्की कर ली। मनि = मन में। भाई = प्यारी लगी।3।

अर्थ: हे सत्संगियो! इकट्ठे होवो, आओ, मिल के प्रभु के गुण गाएं। हे सत्संगियो! गुरु की शरण पड़ कर हरि का नाम जपो, (यही है जीव का असल) लाभ। जिस मनुष्य ने प्रभु की भक्ति अपने हृदय में पक्की करके बैठा ली, जिसके मन को प्रभु की भक्ति प्यारी लगने लगी, प्रभु का नाम उसके अंदर (स्मरण का) उत्साह पैदा करता है।3।

आपे वड दाणा वड साहा ॥ गुरमुखि पूंजी नामु विसाहा ॥ हरि हरि दाति करहु प्रभ भावै गुण नानक नामु ओुमाहा राम ॥४॥४॥१०॥

पद्अर्थ: दाणा = दाना, समझदार। साहा = शाह। पूंजी = राशि। विसाहा = ख़रीदता। प्रभ = हे प्रभु! हरि = हे हरि!।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद बहुत सयाना बड़ा शाह है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर उसकी नाम-संपत्ति एकत्र करो। हे नानक! (कह:) हे हरि! हे प्रभु! (मुझे अपने नाम की) दाति दे, अगर तुझे अच्छा लगे, तो मेरे अंदर तेरा नाम बसे, तेरे गुणों को याद करने का चाव पैदा हो।4।4।10।

जैतसरी महला ४ ॥ मिलि सतसंगति संगि गुराहा ॥ पूंजी नामु गुरमुखि वेसाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि मधुसूदन मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥१॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। संगि गुराहा = गुरु की संगति में। संगि = से। पूंजी = राशि, संपत्ति। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। विसाहा = खरीदो, इकट्ठा करो। हरि = हे हरि! मधु सूदन = (मधू दैत्य को मारने वाले) हे प्रभु! ओुमाहा = उत्साह।1।

अर्थ: हे वैरियों को नाश करने वाले हरि! (हम जीवों पर) कृपा करें (कि) साधु-संगत में मिल के (हमारे अंदर तेरे नाम का) चाव पैदा हो, साधु-संगत में मिल के, गुरु की शरण पड़ कर, तेरे नाम की संपत्ति एकत्र करें।1।

हरि गुण बाणी स्रवणि सुणाहा ॥ करि किरपा सतिगुरू मिलाहा ॥ गुण गावह गुण बोलह बाणी हरि गुण जपि ओुमाहा राम ॥२॥

पद्अर्थ: स्रवणि = कान से। गावहु = हम गाएं। बोलह = हम बोलें।2।

अर्थ: हे हरि! कृपा करके (मुझे) गुरु मिला (ताकि) तेरे गुणों वाली वाणी हम कानों से सुनें, गुरु की वाणी के द्वारा हम तेरे गुण गाएं, तेरे गुण उचारें। तेरे गुण याद कर-कर के (हमारे अंदर तेरी भक्ति का) चाव पैदा हो जाए।2।

सभि तीरथ वरत जग पुंन तुोलाहा ॥ हरि हरि नाम न पुजहि पुजाहा ॥ हरि हरि अतुलु तोलु अति भारी गुरमति जपि ओुमाहा राम ॥३॥

पद्अर्थ: सभि = सारे (बहुवचन)। तुोलाहा = अगर तोलें। पुजहि = पहुँचते हैं। जपि = जप के।3।

नोट: ‘तुोलाहा’ में अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’ असल शब्द है ‘तोलाहा’, यहाँ ‘तुलाहा’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! अगर सारे तीर्थ (-स्नान), व्रत, यज्ञ और पुण्य (निहित नेक कर्म) (इकट्ठे मिला के) तोलें, ये परमात्मा के नाम तक नहीं पहुँच सकते। परमात्मा (का नाम) तोला नहीं जा सकता, उसका बहुत भारा तोल है। गुरु की मति से जप के (मन में और जपने का) उत्साह पैदा होता है।3।

सभि करम धरम हरि नामु जपाहा ॥ किलविख मैलु पाप धोवाहा ॥ दीन दइआल होहु जन ऊपरि देहु नानक नामु ओमाहा राम ॥४॥५॥११॥

पद्अर्थ: किलविख = पाप। दीन जन = निमाणे दास।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! अपने निमाणें दासों पर दयावान हो, दासों को अपना नाम दे, (नाम जपने का) उत्साह दे, हम तेरा नाम जपें, तेरा नाम ही सारे (निहित) धार्मिक कर्म हैं, (तेरे नाम की इनायत से) सारे पापों विकारों की मैल धुल जाती है।4।5।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh