श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 698 जिन कउ क्रिपा करी जगजीवनि हरि उरि धारिओ मन माझा ॥ धरम राइ दरि कागद फारे जन नानक लेखा समझा ॥४॥५॥ पद्अर्थ: जग जीवनि = जगत के जीवन (प्रभु) ने। उरि = हृदय में। माझा = बीच में। दरि = दर से। कागद = कागज, किए कर्मों के लेखे का कागज। फारे = फाड़ दिए गए।4। अर्थ: हे भाई! जगत के जीवन प्रभु ने जिस मनुष्यों पर कृपा की, उन्होंने अपने मन में हृदय में परमात्मा का नाम टिका लिया। हे नानक! (कह: हे भाई!) धर्मराज के दर पर उन मनुष्यों के (किए कर्मों के लेखे के सारे) कागज फाड़ दिए गए, उन दासों का लेखा निपट गया।4।5। जैतसरी महला ४ ॥ सतसंगति साध पाई वडभागी मनु चलतौ भइओ अरूड़ा ॥ अनहत धुनि वाजहि नित वाजे हरि अम्रित धार रसि लीड़ा ॥१॥ पद्अर्थ: साध = गुरु। चलतो = भटकता, चंचल। अरूड़ा = अस्थिर। अनहत = एक रस, लगातार। धुनि = तुकांत। वाजहि = बजते हैं। अंम्रित धार = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल की धारा। रसि = प्रेम से। लीड़ा = अघा गया।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने बड़े भाग्यों से गुरु की साधु-संगत प्राप्त कर ली, उसका भटकता मन टिक गया। उसके अंदर एक-रस तुकांत से (जैसे) सदा बाजे बजते रहते हैं। आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धारा प्रेम से (पी-पी के) वह तृप्त हो जाता है।1। मेरे मन जपि राम नामु हरि रूड़ा ॥ मेरै मनि तनि प्रीति लगाई सतिगुरि हरि मिलिओ लाइ झपीड़ा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! गूढ़ा = सोहणा। मनि = मन में। सतिगुरि = गुरु ने। लाइ झपीड़ा = जप्फी डाल के। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सुंदर परमात्मा का नाम (सदा) जपा कर। हे भाई! गुरु ने मेरे मन में, मेरे हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा कर दिया है, अब परमात्मा मुझे जप्फी डाल के मिल गया है। रहाउ। साकत बंध भए है माइआ बिखु संचहि लाइ जकीड़ा ॥ हरि कै अरथि खरचि नह साकहि जमकालु सहहि सिरि पीड़ा ॥२॥ पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए। बंध भए = बंधे हुए। बिखु = (आत्मिक जीवन खत्म करने वाली माया) जहर। संचहि = इकट्ठी करते हैं। जकीड़ा = हठ, जोर। कै अरथि = की खातिर। सिरि = सिर पर। जमकाल पीड़ा = जमकाल का दुख, मौत का दुख।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य माया के मोह में बँधे रहते हैं। वह जोर लगा के (आत्मिक मौत लाने वाली माया) जहर ही इकट्ठी करते रहते हैं। वह मनुष्य उस माया को परमात्मा की राह पर खर्च नहीं कर सकते, (इस वास्ते वे) आत्मिक मौत का दुख अपने सिर पर सहते रहते हैं।2। जिन हरि अरथि सरीरु लगाइआ गुर साधू बहु सरधा लाइ मुखि धूड़ा ॥ हलति पलति हरि सोभा पावहि हरि रंगु लगा मनि गूड़ा ॥३॥ पद्अर्थ: हर अरथि = परमात्मा की खातिर। साधू = गुरु। मुखि = मुँह पर। धूड़ा = खाक। हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। पावहि = पाते हैं, कमाते हैं। रंगु = प्रेम। मनि = मन में।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने बड़ी श्रद्धा से गुरु के चरणों की धूल अपने माथे पर लगा के अपना शरीर परमात्मा को अर्पित कर दिया, वे मनुष्य इस लोक में परलोक में शोभा कमाते हैं, उनके मन में परमात्मा से गूढ़ा प्यार बन जाता है।3। हरि हरि मेलि मेलि जन साधू हम साध जना का कीड़ा ॥ जन नानक प्रीति लगी पग साध गुर मिलि साधू पाखाणु हरिओ मनु मूड़ा ॥४॥६॥ पद्अर्थ: हरि = हे हरि! कीड़ा = निमाणा दास, कीट। पग = पैर। मिलि = मिल के। पाखाणु = पत्थर की तरह ना भीगने वाला। मूड़ा = मूर्ख।4। अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! मुझे गुरु मिला, मैं गुरु के सेवकों का निमाणा दास हूँ। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य के अंदर गुरु के चरणों का प्यार बन जाता है, गुरु को मिल के उसका मूर्ख पत्थर (की तरह कठोर) मन हरा हो जाता है।4।6। जैतसरी महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि हरि सिमरहु अगम अपारा ॥ जिसु सिमरत दुखु मिटै हमारा ॥ हरि हरि सतिगुरु पुरखु मिलावहु गुरि मिलिऐ सुखु होई राम ॥१॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = पार रहित, बेअंत। हमारा = हम जीवों का। हरि = हे हरि! गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।1। अर्थ: हे भाई! उस अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम स्मरण किया करो, जिसको स्मरण करने से हम जीवों का हरेक दुख दूर हो सकता है। हे हरि! हे प्रभु! हमें गुरु महांपुरुष मिला दे। अगर गुरु मिल जाए, तो आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है।1। हरि गुण गावहु मीत हमारे ॥ हरि हरि नामु रखहु उर धारे ॥ हरि हरि अम्रित बचन सुणावहु गुर मिलिऐ परगटु होई राम ॥२॥ पद्अर्थ: मीत हमारे = हे हीमारे मित्र! उर = हृदय। धारे = टिका के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। परगटु = प्रत्यक्ष।2। अर्थ: हे मेरे मित्रो! परमात्मा की महिमा के गीत गाया करो, परमात्मा का नाम अपने हृदय में टिकाए रखो। परमात्मा की महिमा के आत्मिक जीवन देने वाले बोल (मुझे भी) सुनाया करो। (हे मित्रो! गुरु की शरण पड़े रहो), अगर गुरु मिल जाए, तो परमात्मा हृदय में प्रगट हो जाता है।2। मधुसूदन हरि माधो प्राना ॥ मेरै मनि तनि अम्रित मीठ लगाना ॥ हरि हरि दइआ करहु गुरु मेलहु पुरखु निरंजनु सोई राम ॥३॥ पद्अर्थ: मधु सूदन = (मधू राक्षस को मारने वाले) हे प्रभु! माधो = (मा+धव = माया का पति) हे हरि! प्राना = हे मेरी जिंद (के सहारे)! म्नि = मन में। तनि = हृदय में। निरंजनु = निर्लिप (निर+अंजनु। अंजन = माया की कालख)।3। अर्थ: हे दूतों के नाश करने वाले! हे माया के पति! हे मेरी जिंद (के सहारे)! मेरे मन में, मेरे हृदय में, आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम मीठा लग रहा है। हे हरि! हे प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे वह महापुरुष गुरु मिला जो माया के प्रभाव से ऊपर है।3। हरि हरि नामु सदा सुखदाता ॥ हरि कै रंगि मेरा मनु राता ॥ हरि हरि महा पुरखु गुरु मेलहु गुर नानक नामि सुखु होई राम ॥४॥१॥७॥ पद्अर्थ: कै रंगि = के प्रेम में। राता = मगन। गुर = हे गुरु! नामि = नाम से।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा सुख देने वाला है। मेरा मन उस परमात्मा के प्यार में मस्त रहता है। हे नानक! (कह:) हे हरि! मुझे गुरु महापुरुख मिला। हे गुरु! (तेरे बख्शे) हरि-नाम में जुड़ने से आत्मिक आनंद मिलता है।4।1।7। जैतसरी मः ४ ॥ हरि हरि हरि हरि नामु जपाहा ॥ गुरमुखि नामु सदा लै लाहा ॥ हरि हरि हरि हरि भगति द्रिड़ावहु हरि हरि नामु ओुमाहा राम ॥१॥ पद्अर्थ: जपाहा = जपो। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। लै = लो। लाहा = फायदा। द्रिढ़ावहु = दृढ़ कर लो, हृदय में पक्की कर लो। ओुमाहा = उमाह, उत्साह, चाव, आनंद।1। नोट: ‘ओुमाहा’ (जिस के बरिबर का पंजाबी का असल शब्द है ‘ओमाह’) यहाँ दो मात्राएं लगी हैं ‘ु’ को और ‘ो’ की, जिसे पढ़ना है ‘उमाहा’। अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपा करो। गुरु की शरण पड़ कर सदा परमात्मा के नाम की कमाई करते रहो। हे भाई! परमात्मा की भक्ति अपने हृदय में पक्की करके टिका लो। परमात्मा का नाम (मनुष्य के मन में) आनंद पैदा करता है।1। हरि हरि नामु दइआलु धिआहा ॥ हरि कै रंगि सदा गुण गाहा ॥ हरि हरि हरि जसु घूमरि पावहु मिलि सतसंगि ओुमाहा राम ॥२॥ पद्अर्थ: दइआलु = दया का घर, दया का पुँज। धिआहा = ध्यावो। कै रंगि = के प्रेम में। गाहा = गाओ। जसु = यश, महिमा। घूमरि = घूम घूम के नाच, मस्त करने वाला नाच। मिलि = मिल के। सतसंगि = सत्संग में।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा दया का श्रोत है, उसका नाम सदा स्मरण करते रहो। परमात्मा के प्रेम-रंग में टिक के उसके गुण गाते रहो। हे भाई! सदा परमात्मा की महिमा करते रहो (महिमा मन को मस्त करने वाला नृत्य है, ये) नाच नाचो। हे भाई! साधु-संगत में मिल के आत्मिक आनंद लिया करो।2। आउ सखी हरि मेलि मिलाहा ॥ सुणि हरि कथा नामु लै लाहा ॥ हरि हरि क्रिपा धारि गुर मेलहु गुरि मिलिऐ हरि ओुमाहा राम ॥३॥ पद्अर्थ: सखी = हे सहेलियो! हे सत्संगियो! मेलि = मिलाप में, चरणों में। मिलाहा = मिलो। सुणि = सुन के। हरि = हे हरि! गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए।3। अर्थ: हे संत सगियो! आओ, मिल के प्रभु के चरणों में जुड़ें। हे सत्संगियो! परमात्मा के महिमा की बातें सुन के परमात्मा के नाम-जपने की कमाई करते रहो। (प्रभु-दर पे अरदास करो-) हे प्रभु! मेहर कर, (हमें) गुरु मिलवा। हे सत्संगियो! अगर गुरु मिल जाए, तो (हृदय में) आनंद पैदा हो जाता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |