श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 702 आइओ सरणि दीन दुख भंजन चितवउ तुम्हरी ओरि ॥ अभै पदु दानु सिमरनु सुआमी को प्रभ नानक बंधन छोरि ॥२॥५॥९॥ पद्अर्थ: दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख दूर करने वाले! चितवउ = मैं चितवता हूँ। ओरि = पासा, ओट। अभै पद = अभय अर्थात निर्भयता की अवस्था। को = का। छोरि = छुड़ा के।2। अर्थ: हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तेरा ही आसरा (अपने मन में) चितवता रहता हूँ। हे प्रभु! (मुझ) नानक के (माया वाले) बंधन छुड़वा के मुझे अपने नाम का स्मरण दे, मुझे (विकारों के मुकाबले में) निर्भैता वाली अवस्था दे।2।5।9। जैतसरी महला ५ ॥ चात्रिक चितवत बरसत मेंह ॥ क्रिपा सिंधु करुणा प्रभ धारहु हरि प्रेम भगति को नेंह ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। चितवत = चितवता रहता है। बरसत मेंह = (कि) बरसात हो, वर्षा का होना। सिंधु = समुंदर। क्रिपा सिंधु = हे कृपा के समुंदर! करुणा = तरस, दया। कौ = का। नेंह = नेह, प्रेम, लगन, शौक।1। रहाउ। अर्थ: जैसे पपीहा (हर वक्त) बरसात का होना चितवता रहता है (वर्षा चाहता है), वैसे ही, हे कृपा के समुंदर! हे प्रभु! (मैं चितवता रहता हूँ कि मेरे पर) तरस करो, मुझे अपनी प्यार भरी भक्ति की लगन बख्शो।1। रहाउ। अनिक सूख चकवी नही चाहत अनद पूरन पेखि देंह ॥ आन उपाव न जीवत मीना बिनु जल मरना तेंह ॥१॥ पद्अर्थ: चाहत = चाह। अनद = आनंद, सुख। पेखि = देख के। देंह = दिन। आन = (अन्य) और ही। मीना = मछली। तेंह = उसका। मरना = मौत।1। अर्थ: हे भाई! चकवी (अन्य) अनेक सुख (भी) नहीं चाहती, सूरज को देख के उसके अंदर पूर्ण आनंद पैदा हो जाता है। (पानी के बिना) अन्य अनेक उपाय करके भी मछली जीवित नहीं रह सकती, पानी के बिना उसकी मौत हो जाती है।1। हम अनाथ नाथ हरि सरणी अपुनी क्रिपा करेंह ॥ चरण कमल नानकु आराधै तिसु बिनु आन न केंह ॥२॥६॥१०॥ पद्अर्थ: नाथ = हे नाथ! करेंह = कर। नानकु आराधै = नानक आराधता रहे। तिसुबिनु = उस (आराधना) के बिना। आन = आन। केंह = कुछ भी।2। अर्थ: हे नाथ! (तेरे बिना) हम निआसरे थे। अपनी मेहर कर, और हमें अपनी शरण में रख। (तेरा दास) नानक तेरे सोहाने चरणों की आराधना करता रहे, स्मरण के बिना (नानक को) और कुछ अच्छा नहीं लगता।2।6।10। जैतसरी महला ५ ॥ मनि तनि बसि रहे मेरे प्रान ॥ करि किरपा साधू संगि भेटे पूरन पुरख सुजान ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। मेरे प्रान = मेरे प्राणों का आसरा प्रभु! करि = कर के। साधू = गुरु। संगि = संगति में। भेटे = मिल गए। पूरन = सर्व गुण भरपूर। पुरख = सर्व व्यापक।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरे प्राणों के आसरे प्रभु जी मेरे मन में मेरे हृदय में बस रहे हैं। वह सर्व गुण समपन्न, सर्व व्यापक, सबके दिलों की जानने वाले प्रभु जी (अपनी) मेहर कर कि मुझे गुरु की संगति में मिल जाए।1। रहाउ। प्रेम ठगउरी जिन कउ पाई तिन रसु पीअउ भारी ॥ ता की कीमति कहणु न जाई कुदरति कवन हम्हारी ॥१॥ पद्अर्थ: ठगउरी = ठग बूटी,वह बूटी जो खिला के राहियों को लूट लेते हैं। कउ = को। पीअउ = पी लिया। ता की = उस (रस) की। कुदरति = ताकत।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को (गुरु से परमात्मा के) प्यार की ठग-बूटी मिल गई है, उन्होंने नाम-रस अघा-अघा के पी लिया। उस (नाम-जल) की कीमति बताई नहीं जा सकती। मेरी क्या ताकत है, (कि मैं उस नाम-जल का मूल्य बता सकूँ)?।1। लाइ लए लड़ि दास जन अपुने उधरे उधरनहारे ॥ प्रभु सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइओ नानक सरणि दुआरे ॥२॥७॥११॥ पद्अर्थ: लड़ि = पल्ले से। उधरे = बचा लिए। उधरनहारे = बचाने की स्मर्था वाले हरि ने। सिमरि = स्मरण करके। दुआरे = दर पर।2। अर्थ: हे नानक! प्रभु ने (सदा) अपने दास अपने सेवक अपने साथ लगा लगा के रखे हैं, (और, इस तरह) उस बचाने की स्मर्था वाले प्रभु ने (सेवकों को संसार के विचारों से सदा के लिए) बचाया है। प्रभु के दर पर आ के, प्रभु की शरण पड़ कर, सेवकों ने प्रभु को सदा-सदा स्मरण करके (हमेशा) आत्मिक आनंद लिया है।2।7।11। जैतसरी महला ५ ॥ आए अनिक जनम भ्रमि सरणी ॥ उधरु देह अंध कूप ते लावहु अपुनी चरणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के। उधरु = बचा ले। देह = शरीर, ज्ञानेंद्रियां। अंध = अंधा, अंधेरा। कूप = कूँआं। ते = सैं 1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! हम जीव कई जन्मों से भटकते हुए अब तेरी शरण आए हैं। हमारे शरीर को (माया के मोह के) घोर अंधेरे भरे कूएं से बचा ले, अपने चरणों में जोड़े रख।1। रहाउ। गिआनु धिआनु किछु करमु न जाना नाहिन निरमल करणी ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु बिखम नदी जाइ तरणी ॥१॥ पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = जुड़ी तवज्जो, ध्यान। करमु = धर्म के काम। न जाना = मैं नहीं जानता। करणी = कतव्र्य, आचरण। कै अंचलि = के पल्ले से। बिखम = मुश्किल। जाइ तरणी = तैरी जा सके।1। अर्थ: हे प्रभु! मुझे आत्मिक जीवन की समझ नहीं, मेरी तवज्जो तेरे चरणों में जुड़ी नहीं रहती, मुझे कोई अच्छा काम करना नहीं आता, मेरा आचरण भी स्वच्छ नहीं है। हे प्रभु! मुझे साधु-संगत के पल्ले से लगा दे, ता कि ये मुश्किल (संसार-) दरिया को तैरा जा सके।1। सुख स्मपति माइआ रस मीठे इह नही मन महि धरणी ॥ हरि दरसन त्रिपति नानक दास पावत हरि नाम रंग आभरणी ॥२॥८॥१२॥ पद्अर्थ: संपति = धन। महि = में। त्रिपति = अघाना, संतोष। आभरणी = आभूषण, गहने।2। अर्थ: हे नानक! दुनिया के सुख, धन, माया के मीठे स्वाद- परमात्मा के दास इन पदार्थों को (अपने) मन में नहीं बसाते। परमात्मा के दर्शनों से वे संतोष हासिल करते हैं, परमात्मा के नाम का प्यार ही उन (के जीवन) का गहना है।2।8।12। जैतसरी महला ५ ॥ हरि जन सिमरहु हिरदै राम ॥ हरि जन कउ अपदा निकटि न आवै पूरन दास के काम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि जनो! हिरदै = हृदय में। अपदा = मुसीबत, विपक्ति। निकटि = नजदीक। पूरन = सफल।1। रहाउ। अर्थ: हे परमात्मा के प्यारो! अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। कोई भी विपक्ति प्रभु के सेवकों के निकट नहीं आती, सेवकों के सारे काम सिरे चढ़ते रहते हैं।1। रहाउ। कोटि बिघन बिनसहि हरि सेवा निहचलु गोविद धाम ॥ भगवंत भगत कउ भउ किछु नाही आदरु देवत जाम ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। बिघन = मुश्किलें, रुकावटें। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। धाम = घर, ठिकाना। कउ = को। जाम = यमराज।1। अर्थ: हे संतजनो! परमात्मा की भक्ति (की इनायत) से (जिंदगी की राह में से) करोड़ों मुश्किलें नाश हो जाती हैं, और, परमात्मा का सदा अटल रहने वाला घर (भी मिल जाता है) भगवान के भक्तों को कोई भी डर सता नहीं सकता, यमराज भी उनका आदर करता है।1। तजि गोपाल आन जो करणी सोई सोई बिनसत खाम ॥ चरन कमल हिरदै गहु नानक सुख समूह बिसराम ॥२॥९॥१३॥ पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। आन = अन्य। खाम = कमी, कच्ची। गहु = पकड़ रख। सुख समूह = सारे ही सुख। बिसराम = ठिकाना।2। अर्थ: हे नानक! परमात्मा (का स्मरण) भुला के और जो भी काम किया जाता है वह नाशवान है और कच्चा (खामियों भरा) है (इस वास्ते, हे नानक!) परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रख, (ये हरि के चरण ही) सारे सुखों के घर हैं।2।9।13। जैतसरी महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भूलिओ मनु माइआ उरझाइओ ॥ जो जो करम कीओ लालच लगि तिह तिह आपु बंधाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भूलिओ = (सही जीवन रास्ता) भूला हुआ। उरझाइओ = उलझा हुआ है। लालच = लालच में। लगि = लग के। आपु = अपने आप को। बंधाइओ = बंधा रहा है, फसा रहा है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (सही जीवन-राह) भूला हुआ मन माया (के मोह में) फंसा रहता है। (फिर, ये) लालच में फंस के जो-जो काम करता है, उनसे अपने आप को (माया के मोह में और) फसा लेता है।1। रहाउ। समझ न परी बिखै रस रचिओ जसु हरि को बिसराइओ ॥ संगि सुआमी सो जानिओ नाहिन बनु खोजन कउ धाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: बिखै रस = विषियों के स्वादों में। जसु = महिमा। को = का। संगि = साथ। बनु = जंगल। धाइओ = दौड़ता है।1। अर्थ: (हे भाई! सही जीवन से राह से टूटे हुए मनुष्य को) आत्मि्क जीवन की समझ नहीं होती। विषियों के स्वाद में मस्त रहता है, परमात्मा की महिमा भुलाए रहता है। परमात्मा (तो इसके) अंग-संग (बसता है) उसके साथ गहरी सांझ नहीं डालता, जंगल में ढूँढने के लिए दौड़ पड़ता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |