श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 703

रतनु रामु घट ही के भीतरि ता को गिआनु न पाइओ ॥ जन नानक भगवंत भजन बिनु बिरथा जनमु गवाइओ ॥२॥१॥

पद्अर्थ: भीतरि = अंदर। ता को = उसका। गिआनु = समझ। बिरथा = व्यर्थ।2।

अर्थ: हे भाई! रत्न (जैसा कीमती) हरि-नाम हृदय के अंदर ही बसता है (पर भूला हुआ मनुष्य) उससे सांझ नहीं बनाता। हे दास नानक! (कह:) परमात्मा के भजन के बिना मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है।2।1।

जैतसरी महला ९ ॥ हरि जू राखि लेहु पति मेरी ॥ जम को त्रास भइओ उर अंतरि सरनि गही किरपा निधि तेरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि जू = हे प्रभु जी! पति = इज्जत। जम को त्रास = मौत का डर। उर = उरस, हृदय। गही = पकड़ी। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने!।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु जी! मेरी इज्जत रख लो। मेरे हृदय में मौत का डर बस रहा है (इससे बचने के लिए) हे कृपा के खजाने प्रभु! मैंने तेरा आसरा लिया है।1। रहाउ।

महा पतित मुगध लोभी फुनि करत पाप अब हारा ॥ भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनु जारा ॥१॥

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरा हुआ, पापी। मुगध = मूर्ख। फुनि = पुनः , दोबारा, फिर। हारा = थक गया। भै = डर। को = का। तिह = उसकी। जारा = जला दिया है।1।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे प्रभु! मैं बड़ा विकारी हूँ, मूर्ख हूँ लालची भी हूँ, पाप करते-करते अब मैं थक गया हूँ। मुझे मरने का डर (किसी भी वक्त) भूलता नहीं, इस (मरने) की चिन्ता ने मेरा शरीर जला दिया है।1।

कीए उपाव मुकति के कारनि दह दिसि कउ उठि धाइआ ॥ घट ही भीतरि बसै निरंजनु ता को मरमु न पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: उपाव = कोशिशें। मुकति = (डर से) खलासी। के कारनि = के वास्ते। दह दिसि = दसों दिशाओं से। उठि = उठ के। निरंजनु = माया की कालिख से रहित। ता को = उसका। मरमु = भेद।2।

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! (मौत के इस सहम से) खलासी हासिल करने के लिए मैंने अनेक प्रयास किए हैं, दसों दिशाओं में उठ-उठ के दौड़ा हूँ। (माया के मोह से) निर्लिप परमात्मा हृदय में ही बसता है, उसका भेद नहीं समझा।2।

नाहिन गुनु नाहिन कछु जपु तपु कउनु करमु अब कीजै ॥ नानक हारि परिओ सरनागति अभै दानु प्रभ दीजै ॥३॥२॥

पद्अर्थ: अब = अब। कीजै = किया जाए। सरनागति = शरण आया हूँ। अभै दानु = मौत के डर से निर्भयता का दान। प्रभ = हे प्रभु! दीजै = दें।3।

अर्थ: हे नानक! (कह: परमात्मा की शरण पड़े बिना) कोई गुण नहीं कोई जप-तप नहीं (जो मौत के सहम से बचा ले, फिर) अब कौन सा काम किया जाए? हे प्रभु! (और तरीकों से) हार के मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ। तू मुझे मौत के डर से खलासी का दान दे।3।

जैतसरी महला ९ ॥ मन रे साचा गहो बिचारा ॥ राम नाम बिनु मिथिआ मानो सगरो इहु संसारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे = हे! साचा = अटल, सदा कायम रहने वाला। गहो = पकड़ो, हृदय में संभाल। मिथिआ = नाशवान। मानो = जानो। सगरो = सारा।1। राहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! ये अटल विचार (अपने अंदर) संभाल के रख- परमात्मा के अलावा बाकी इस सारे संसार को नाशवान समझ।1। रहाउ।

जा कउ जोगी खोजत हारे पाइओ नाहि तिह पारा ॥ सो सुआमी तुम निकटि पछानो रूप रेख ते निआरा ॥१॥

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (प्रभु) को। तिह पारा = उस (के स्वरूप) का अंत। निकटि = नजदीक। रेख = चिन्ह। ते = से। निआरा = अलग।1।

अर्थ: हे मेरे मन! जोगी लोग जिस परमात्मा को ढूँढते-ढूँढते थक गए, और उसके स्वरूप का अंत नहीं पा सके, उस मालिक को तू अपने अंग-संग बसता जान, पर उसका कोई रूप उसका कोई चिन्ह बताया नहीं जा सकता।1।

पावन नामु जगत मै हरि को कबहू नाहि स्मभारा ॥ नानक सरनि परिओ जग बंदन राखहु बिरदु तुहारा ॥२॥३॥

पद्अर्थ: पावन = पवित्र करने वाला। महि = में। को = का। कब हू = कभी भी। संभारा = (दिल में) संभाला। जग बंदन = हे जग बंदन! जगत के वंदनीय! बिरदु = मुढ कदीमों का प्यार वाला स्वभाव। तुहारा = तेरा।2।

अर्थ: हे मेरे मन! जगत में परमात्मा का नाम (ही) पवित्र करने वाला है, तूने उस नाम को (अपने अंदर) कभी संभाल के नहीं रखा। हे नानक! (कह:) हे सारे जगत के वंदनीय प्रभु! मैं तेरी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा कर। ये तेरा मूल कुदरती स्वभाव (बिरद) है (कि तू शरण आए की रक्षा करता है)।2।3।

जैतसरी महला ५ छंत घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक ॥

दरसन पिआसी दिनसु राति चितवउ अनदिनु नीत ॥ खोल्हि कपट गुरि मेलीआ नानक हरि संगि मीत ॥१॥

पद्अर्थ: पिआसी = प्यासी, चाहवान। चितवउ = मैं याद करती हूँ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नीत = नित्य, सदा। खोल्हि = खोल के। कपट = कपाट, किवाड़। खोल्हि कपट = मेरे मन के किवाड़ खोल के, मेरे माया के जाल काट के। गुरि = गुरु ने। मेलीआ = मिला दिया। संगि = साथ।1।

अर्थ: मुझे मित्र प्रभु के दर्शनों की चाहत लगी हुई है, मैं दिन-रात हर वक्त सदा ही (उसके दर्शन ही) चितारती रहती हूँ। हे नानक! (कह:) गुरु ने (मेरे) माया के जाल को काट के मुझे मित्र हरि से मिला दिया है।1।

छंत ॥ सुणि यार हमारे सजण इक करउ बेनंतीआ ॥ तिसु मोहन लाल पिआरे हउ फिरउ खोजंतीआ ॥ तिसु दसि पिआरे सिरु धरी उतारे इक भोरी दरसनु दीजै ॥ नैन हमारे प्रिअ रंग रंगारे इकु तिलु भी ना धीरीजै ॥ प्रभ सिउ मनु लीना जिउ जल मीना चात्रिक जिवै तिसंतीआ ॥ जन नानक गुरु पूरा पाइआ सगली तिखा बुझंतीआ ॥१॥

पद्अर्थ: छंत। यार = हे यार! सजण = हे सज्जन! करउ = मैं करती हूँ। हउ फिरउ = मैं फिरती हूँ। तिसु दसि = उसके बारे में बता। धरी = मैं धारण करूँ। उतारे = उतार के। इक भोरी = रक्ती भर ही। दीजै = दे। नैन = आँखें। प्रिअ रंग = प्यारे के प्रेम-रंग में। ना धीरीजै = धैर्य नहीं धरता। सिउ = साथ। लीना = मस्त। जल मीना = पानी की मछली। चात्रिक = पपीहा। तिसंतीआ = प्यासा। तिखा = प्यास।1।

अर्थ: छंत। हे मेरे सत्संगी मित्र! हे मेरे सज्जन! मैं (तेरे आगे) एक आरजू करती हूँ! मैं उस मन को मोह लेने वाले प्यारे लाल को तलाशती फिरती हूँ। (हे मित्र!) मुझे उस प्यारे के बारे में बता, मैं (उसके आगे अपना) सर उतार के रख दूंगी (और कहूँगी - हे प्यारे!) पल भर के लिए हमें भी दर्शन दे (हे गुरु!) मेरी आँखें प्यारे के प्रेम रंग में रंगी गई हैं (उसके दर्शनों के बिना) मुझे रक्ती भर समय के लिए भी चैन नहीं आता। मेरा मन प्रभु के साथ मस्त है जैसे पानी की मछली (पानी में मस्त रहती है), वैसे ही पपीहें को (बरखा की बूँद की) प्यास लगी रहती है।

हे दास नानक! (कह: जिस भाग्यशाली को) पूरा गुरु मिल जाता है (उसके दर्शनों की) सारी प्यास बुझ जाती है।

यार वे प्रिअ हभे सखीआ मू कही न जेहीआ ॥ यार वे हिक डूं हिकि चाड़ै हउ किसु चितेहीआ ॥ हिक दूं हिकि चाड़े अनिक पिआरे नित करदे भोग बिलासा ॥ तिना देखि मनि चाउ उठंदा हउ कदि पाई गुणतासा ॥ जिनी मैडा लालु रीझाइआ हउ तिसु आगै मनु डेंहीआ ॥ नानकु कहै सुणि बिनउ सुहागणि मू दसि डिखा पिरु केहीआ ॥२॥

पद्अर्थ: प्रिअ = प्यारे की। हभे = सारी। मू = मैं। कही न जेहीआ = किसी जैसी भी नहीं। डूं = से। हिकि = एक। चाढ़ै = चढ़ते हुए, बढ़िया, सुंदर। हउ = मैं। किसु चितेहीआ = किसे याद हूँ? डूं = से। भोग बिलासा = मिलाप का आनंद। देखि = देख के। मनि = मन में। कदि = कब? पाई = पा सकूँ, मैं मिल सकूँ। देखि = देख के गुणों का खजाना हरि। मैडा = मेरा। रीझाइआ = प्रसन्न कर लिया। जिनी = जिस ने। डेंहीआ = दे दूँ। नानकु कहै = नानक कहता है। बिनउ = विनय, विनती। सुहागणि = हे सोहाग वाली! मू = मुझे। डिखा = देखूँ।2।

अर्थ: हे सत्संगी सज्जन! सारी सहेलियां प्यारे प्रभु की (स्त्रीयां) हैं, मैं (इन में से) किसी जैसी भी नहीं। ये एक से एक सुंदर (सुंदर आत्मिक जीवन वाली) हैं। मैं किस गिनती में हूँ? प्रभु से अनेक ही प्यार करने वाले हैं, एक-दूसरे से बढ़िया जीवन वाले हैं, सदा प्रभु से आत्मिक मिलाप का आनंद लेते हैं। इनको देख के मेरे मन में भी चाव पैदा होता है कि मैं भी कभी उस गुणों के खजाने प्रभु को मिल सकूँ। (हे गुरु!) जिसने (ही) मेरे प्यारे हरि को प्रसन्न कर लिया है, मैं उसके आगे अपना मन भेटा करने को तैयार हूँ।

नानक कहता है: हे सोहागवंती! मेरी विनती सुन! मुझे बता, मैं देखूँ, प्रभु-पति कैसा है।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh