श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ईधणु कीतोमू घणा भोरी दितीमु भाहि ॥ मनि वसंदड़ो सचु सहु नानक हभे डुखड़े उलाहि ॥२॥

पद्अर्थ: ईधणु = ईधन। मू = मैं। घणा = बहुत सारा। भोरी = रक्ती भर। दितीमु = मैंने दी। भाहि = आग। मनि = मन में। हभे = सारे ही। डुखड़े = बुरे दुख। उलाहि = दूर हो जाते हैं।2।

अर्थ: मैंने बहुत सारा ईधन एकत्र कर लिया और उसे थोड़ी सी आग लगा दी (वह सारा ईधन जल के राख हो गया, इसी तरह) हे नानक! अगर मन में सच्चा साई बस जाए तो सारे बुरे दुख उतर जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ कोटि अघा सभि नास होहि सिमरत हरि नाउ ॥ मन चिंदे फल पाईअहि हरि के गुण गाउ ॥ जनम मरण भै कटीअहि निहचल सचु थाउ ॥ पूरबि होवै लिखिआ हरि चरण समाउ ॥ करि किरपा प्रभ राखि लेहु नानक बलि जाउ ॥५॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़। अघ = पाप। पाईअहि = पाते हैं। मन चिंदे = मन इच्छित। कटीअहि = काटे जाते हैं। निहचल = अटल। पूरबि = आदि से। समाउ = समाई।

अर्थ: प्रभु का नाम स्मरण करने से करोड़ों पाप सारे के सारे नाश हो जाते हैं। प्रभु की महिमा करने से मन-इच्छित फल पा लेते हैं, पैदा होने से मरने तक के सारे सहम काटे जाते हैं और अटल सच्ची पदवी मिल जाती है। (पर) प्रभु के चरणों में समाई तब ही होती है अगर धुर से माथे पर भाग्य लिखे हों। (इस वास्ते) हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर कि) हे प्रभु! मेहर कर, मुझे (पापों से) बचा ले, मैं तुझसे कुर्बान हूँ।5।

सलोक ॥ ग्रिह रचना अपारं मनि बिलास सुआदं रसह ॥ कदांच नह सिमरंति नानक ते जंत बिसटा क्रिमह ॥१॥

पद्अर्थ: ग्रिह रचना अपारं = घर की बेअंत सजावटें। मनि = मन में। बिलास = चाव खुशियां। रसह सुआदं = (रस: स्वादं) स्वादिष्ट पदार्थों के चस्के। कदांच नह = (कदांच न:) कभी भी नहीं। क्रिमह = (कृमि) कीड़े।1।

अर्थ: घर की बेअंत सजावटें, मन के चाव उद्वेग, स्वादिष्ट पदार्थों के चस्के - (इनमें लग के) हे नानक! जो मनुष्य कभी परमात्मा को याद नहीं करते, वह (जैसे) विष्टा के कीड़े हैं।1।

मुचु अड्मबरु हभु किहु मंझि मुहबति नेह ॥ सो सांई जैं विसरै नानक सो तनु खेह ॥२॥

पद्अर्थ: मुचु = बहुत, बड़ा। अडंबरु = सज धज, खिलारा। हभु किहु = हरेक चीज। मंझि = (हृदय) में। नेह = प्यार। जैं = जिस बंदे को। तनु = शरीर। खेह = राख।2।

अर्थ: बड़ी सज-धज हो, हरेक चीज (मिली हुई) हो, हृदय में (इन दुनियावी पदार्थों की) मुहब्बत और कसक हो- इनके कारण, हे नानक! जिसको साई (की याद) भूल गई है वह शरीर (जैसे) राख (ही) है।2।

पउड़ी ॥ सुंदर सेज अनेक सुख रस भोगण पूरे ॥ ग्रिह सोइन चंदन सुगंध लाइ मोती हीरे ॥ मन इछे सुख माणदा किछु नाहि विसूरे ॥ सो प्रभु चिति न आवई विसटा के कीरे ॥ बिनु हरि नाम न सांति होइ कितु बिधि मनु धीरे ॥६॥

पद्अर्थ: पूरे = सम्पूर्ण। ग्रिह सोइन = सोने के घर। सुगंध = खुशबू। विसूरे = फिक्र, चिन्ता। चिति = चिक्त में। कीरे = कीड़े। कितु बिधि = किस विधि से? धीरे = धैर्य।

अर्थ: अगर सुंदर सेज मिली हो, अनेक सुख हों, सब किस्म के स्वादिष्ट भोग हों भोगने के लिए। अगर हीरे-मोती से जड़े हुए सोने के घर हों जिनमें चन्दन की सुगन्धि हो। अगर मनुष्य मन-मानी मौजें माणता हो, और कोई चिन्ता-झोरा ना हो, (पर ये सब कुछ होते हुए) अगर (ये दातें देने वाला) वह प्रभु मन में याद नहीं है तो (इन भोगों को भोगने वाले को) गंदगी का कीड़ा समझो, क्योकि प्रभु के नाम के बिना शांति नहीं मिलती, किसी और तरह भी मन को धैर्य नहीं मिलता।6।

सलोक ॥ चरन कमल बिरहं खोजंत बैरागी दह दिसह ॥ तिआगंत कपट रूप माइआ नानक आनंद रूप साध संगमह ॥१॥

पद्अर्थ: चरन कमल बिरहं = प्रभु के सुंदर चरण-कमल के वियोग में। बिरह = मिलने की खींच, वियोग। दह = दस। दिसह = दिशाएं। दह दिसह = दसों दिशाएं। बैरागी = वैराग वान, आशिक, प्रेमी। कप्ट = छल। साध संगमह = साधु-संगत।1।

अर्थ: हे नानक! प्रभु का प्रेमी प्रभु के सुंदर चरणों से जुड़ने की कसक में दसों दिशाओं में भटकता है, (जब) छल-रूपी माया (को) छोड़ता है तब (ढूँढ-ढूँढ के उसे) आनंद-रूप साधु-संगत प्राप्त होती है (जहाँ उसे प्रभु की महिमा सुनने का अवसर प्राप्त होता है)।1।

मनि सांई मुखि उचरा वता हभे लोअ ॥ नानक हभि अड्मबर कूड़िआ सुणि जीवा सची सोइ ॥२॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। मुखि = मुख से। वता = भटकता हूँ। हभे लोअ = सारे लोकों में, सारे जगत में। हभी = सारे। कूड़िआ = नाशवान। सोइ = सूह, खबर।2।

अर्थ: हे नानक! (जगत वाले) सारे दिखावे मुझे नाशवान दिख रहे हैं, मेरे मन में साई (की याद) है, मैं मुँह से उसका नाम उचारता हूँ और सारे जगत में चक्कर लगाता हूँ (कि कहीं उसकी महिमा सुन सकूँ) उसकी सदा-स्थिर रहने वाली शोभा सुन के मैं जी पड़ता हूँ।2।

पउड़ी ॥ बसता तूटी झु्मपड़ी चीर सभि छिंना ॥ जाति न पति न आदरो उदिआन भ्रमिंना ॥ मित्र न इठ धन रूपहीण किछु साकु न सिंना ॥ राजा सगली स्रिसटि का हरि नामि मनु भिंना ॥ तिस की धूड़ि मनु उधरै प्रभु होइ सुप्रसंना ॥७॥

पद्अर्थ: झुंपड़ी = झोपड़ी, कुल्ली। चीर = कपड़े। छिंना = फटे हुए। पति = इज्जत। उदिआन = उद्यान, जंगल। भ्रमिंना = भटकना। इठ = प्यारा। सिंना = सैण, संबंधी। भिंना = भीगा। उधरै = (विकारों से) उद्धार होता है। नामि = नाम में।

अर्थ: अगर कोई मनुष्य टूटी हुई कुल्ली में रहता हो, उसके सारे कपड़े फटे हुए हों, ना उसकी ऊँची जाति हो, ना कोई इज्जत आदर करता हो, और वह उजाड़ में भटकता हो (भाव, कहीं मान-सम्मान ना होने के कारण उसकी बाबत तो हर तरफ उजाड़ ही हुआ)। कोई उसका मित्र-प्यारा ना हो, ना धन ही हो, ना रूप ही हो, और कोई साक-संबंधी भी ना हों, (ऐसा निथावां होते हुए भी) अगर उसका मन प्रभु के नाम में भीगा हुआ है तो उसे सारी धरती का राजा समझो। उस मनुष्य के चरणों की धूड़ी ले के मन विकारों से बचता है और परमात्मा प्रसन्न होता है।7।

सलोक ॥ अनिक लीला राज रस रूपं छत्र चमर तखत आसनं ॥ रचंति मूड़ अगिआन अंधह नानक सुपन मनोरथ माइआ ॥१॥

पद्अर्थ: लीला = चोज तमाशे। राज रस = राज की मौजें। रूप = सुंदरता। छत्र = (सिर पर) छत्र। चमर = चवर, चौर। तखतआसनं = बैठने का शाही तख़्त। मूढ़ = मूर्ख। अंधह = अंधे। मनोरथ = (मनो+रथ) मन की दौड़ें, मन बांछत पदार्थ।1।

अर्थ: अनेक चोज तमाशे, राज की मौजें, सुंदरता, (सिर पर) छत्र-चउर, और बैठने के लिए शाही तख़्त- इन पदार्थों में, हे नानक! अंधे मूर्ख अज्ञानी बंदे ही मस्त होते हैं, माया के ये करिश्में तो स्वप्न की चीजों (के समान) हैं।1।

सुपनै हभि रंग माणिआ मिठा लगड़ा मोहु ॥ नानक नाम विहूणीआ सुंदरि माइआ ध्रोहु ॥२॥

पद्अर्थ: हभि = सारे। सुंदरि माइआ = सोहणी माया। ध्रोहु = छल, धोखा।2।

अर्थ: हे नानक! अगर प्रभु के नाम से वंचित रहे तो सुंदर माया धोखा ही है (ये ऐसे हैं जैसे) सपने में सारी मौजें लीं, उनके मोह की कसक डाल ली (पर जाग खुली तो पल्ले कुछ भी ना रहा)।2।

पउड़ी ॥ सुपने सेती चितु मूरखि लाइआ ॥ बिसरे राज रस भोग जागत भखलाइआ ॥ आरजा गई विहाइ धंधै धाइआ ॥ पूरन भए न काम मोहिआ माइआ ॥ किआ वेचारा जंतु जा आपि भुलाइआ ॥८॥

पद्अर्थ: सेती = से, साथ। मूरखि = मूर्ख ने। जागत = जागते हुए ही। भखलाइआ = बड़ बड़ाता है। आरजा = उम्र। धंधै = धंधें में। धाइआ = भटकता फिरता है। पूरन भए न = खत्म नहीं होते, सिरे नहीं चढ़ते।8।

अर्थ: मूर्ख मनुष्य ने सपने से प्यार डाला हुआ है। इस राज व रसों के भोगों में प्रभु को विसार के जागते हुए ही बड़ बड़ाता है। दुनिया के धंधों में भटकते की सारी उम्र बीत जाती है, पर माया में मोहे हुए के काम खत्म होने में नहीं आते। विचारे जीव के भी क्या वश? उस प्रभु ने खुद ही इसको भुलेखे में डाला हुआ है।8।

सलोक ॥ बसंति स्वरग लोकह जितते प्रिथवी नव खंडणह ॥ बिसरंत हरि गोपालह नानक ते प्राणी उदिआन भरमणह ॥१॥

पद्अर्थ: बसंति = बसते हों। स्वरग लोकह = स्वर्ग जैसे देशों में। जितते = जीत लें। नव खंडणह प्रिथमी = नौ खण्डों वाली धरती, सारी धरती। गोपाल = (गो+पाल) धरती को पालने वाला। उदिआन = जंगल।1।

अर्थ: अगर स्वर्ग जैसे देश में बसते हों, अगर सारी धरती को जीत लें, पर, हे नानक! अगर जगत के रखवाले प्रभु को बिसार दे, तो वे मनुष्य (मानो) जंगल में भटक रहे हैं।1।

कउतक कोड तमासिआ चिति न आवसु नाउ ॥ नानक कोड़ी नरक बराबरे उजड़ु सोई थाउ ॥२॥

पद्अर्थ: कउतक = खेल, चोज। कोड = करोड़ों। चिति = चिक्त में। न आवसु = अगर उसे ना आए। कोड़ी नर्क = घोर भयानक नर्क। उजड़ु = उजाड़।2।

अर्थ: जगत के करोड़ों चोज-तमाशों के कारण अगर प्रभु का नाम चिक्त में (याद) ना रहे, तो हे नानक! वह जगह तो उजाड़ ही समझो, वह जगह भयानक नर्क के बराबर है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh