श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक ॥ रसना उचरंति नामं स्रवणं सुनंति सबद अम्रितह ॥ नानक तिन सद बलिहारं जिना धिआनु पारब्रहमणह ॥१॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ। सबद अंम्रितह = पवित्र सबद, महिमा की पवित्र वाणी। स्रवण = कानों से। बलिहार = सदके।1।

अर्थ: जो मनुष्य जीभ से पारब्रहम का नाम उचारते हैं, जो कानों से महिमा की पवित्र वाणी सुनते हैं और पारब्रहम का ध्यान (धरते हैं), हे नानक! मैं उन लोगों से सदा सदके जाता हूँ।1।

हभि कूड़ावे कम इकसु साई बाहरे ॥ नानक सेई धंनु जिना पिरहड़ी सच सिउ ॥२॥

पद्अर्थ: हभि = सारे। कूड़ावे = झूठे, व्यर्थ, निष्फल। साई = पति प्रभु। सेई = वही मनुष्य। धंनु = भाग्यशाली।2।

अर्थ: एक पति-प्रभु की याद के बिना और सारे ही काम व्यर्थ हैं (भाव, यदि पति-प्रभु को भुला दिया तो....)। हे नानक! सिर्फ वही लोग भाग्यशाली हैं, जिनका सदा कायम रहने वाले प्रभु के साथ प्यार है।2।

पउड़ी ॥ सद बलिहारी तिना जि सुनते हरि कथा ॥ पूरे ते परधान निवावहि प्रभ मथा ॥ हरि जसु लिखहि बेअंत सोहहि से हथा ॥ चरन पुनीत पवित्र चालहि प्रभ पथा ॥ संतां संगि उधारु सगला दुखु लथा ॥१४॥

पद्अर्थ: कथा = बातें। परधान = सबसे अच्छे। सोहहि = सुंदर लगते हैं। पुनीत = पवित्र। पथा = राह (संस्कृत: पथिन)। संगि = संगति में। उधारु = (दुखों से) बचाव। जि = जो मनुष्य।

अर्थ: मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो प्रभु की बातें सुनते हैं। वे मनुष्य सब गुणों वाले व सबसे अच्छे हैं जो प्रभु के आगे सिर निवाते हैं। (उनके) हाथ सुंदर लगते हैं जो बेअंत प्रभु की महिमा लिखते हैं और वह पैर पवित्र हैं जो प्रभु की राह पर चलते हैं। (ऐसे) संतों की संगति में (दुख-विकारों से) बचाव हो जाता है, सारा दुख दूर हो जाता है।14।

सलोकु ॥ भावी उदोत करणं हरि रमणं संजोग पूरनह ॥ गोपाल दरस भेटं सफल नानक सो महूरतह ॥१॥

पद्अर्थ: भावी = माथे के भाग्य, जो कुछ अवश्य घटित होना है। उदोत = प्रगट होना, उघड़ना। भावी उदोत करणं = माथे पर लिखे लेखों का उघड़ना। संजोग पूरनह = पूरे संयोगों से। गोपाल दरस भेटं = जगत के रक्षक प्रभु का दीदार होना। महूरतह = महूरतए घड़ी, समय। सफल = इनायत वाला।1।

अर्थ: हे नानक! वह घड़ी इनायत वाली होती है, जब पूर्ण संयोगों से माथे पर लिखे लेख उघड़ते हैं, प्रभु का स्मरण करते हैं और गोपाल हरि का दीदार होता है।1।

कीम न सका पाइ सुख मिती हू बाहरे ॥ नानक सा वेलड़ी परवाणु जितु मिलंदड़ो मा पिरी ॥२॥

पद्अर्थ: कीम = कीमत। मिती = अंदाजा, लेखा, मिनती। मिती हू बाहरे = पैमायश से परे। वेलती = सुंदर घड़ी। जितु = जिस घड़ी में। मा पिरी = मेरा प्यारा।2।

अर्थ: इतने असीम सुख प्रभु देता है कि मैं उनका मूल्य नहीं पा सकता, (पर) हे नानक! वही सुलक्षणी घड़ी स्वीकार होती है जब अपना प्यारा प्रभु मिल जाए।2।

पउड़ी ॥ सा वेला कहु कउणु है जितु प्रभ कउ पाई ॥ सो मूरतु भला संजोगु है जितु मिलै गुसाई ॥ आठ पहर हरि धिआइ कै मन इछ पुजाई ॥ वडै भागि सतसंगु होइ निवि लागा पाई ॥ मनि दरसन की पिआस है नानक बलि जाई ॥१५॥

पद्अर्थ: सा...है = वह कौन सी बेला हो? (भाव, वह घड़ी जल्दी आए)। जितु = जिस वक्त। मूरतु = महूरत, साहा। संजोगु = मिलने का समय। मन इछ = मन की इच्छा। पुजाई = पूरी करूँ। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। निवि = झुक के। पाई = पैरों पर। मनि = मन में।15।

अर्थ: (रब करके) वह बेला जल्दी से आए जब मैं प्रभु से मिलूँ। वह महूरत, वह मिलने का समय भाग्यशाली होता है, जब धरती का साई मिलता है। (मेहर कर) आठों पहर स्मरण करके मैं अपने मन की चाह पूरी करूँ। अच्छी किस्मत से सत्संग मिल जाए और मैं झुक-झुक के (सत्संगियों के) पैरों पर लगूँ। मेरे मन में (प्रभु के) दर्शनों की प्यास है। हे नानक! (कह) मैं (सत्संगियों पर से) सदके जाता हूँ।15।*

सलोक ॥ पतित पुनीत गोबिंदह सरब दोख निवारणह ॥ सरणि सूर भगवानह जपंति नानक हरि हरि हरे ॥१॥

पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। पतित पुनीत = विकारियों को पवित्र करने वाला। सरब = सारे। दोख = ऐब। सरणि सूर = शरण का सूरमा, शरण आए को बचाने के समर्थ। जपंति = जो जपते हैं।1।

अर्थ: गोबिंद विकारियों को पवित्र करने वाला है। (पापियों के) सारे एैब दूर करने वाला है। हे नानक! जो मनुष्य उस प्रभु को जपते हैं, भगवान उन शरण आए हुओं की इज्जत रखने के समर्थ है।1।

छडिओ हभु आपु लगड़ो चरणा पासि ॥ नठड़ो दुख तापु नानक प्रभु पेखंदिआ ॥२॥

पद्अर्थ: छडिओ = जिसने छोड़ा है। हभु आप = सारा स्वै भाव, सारा अहंकार। लगड़ो = जो लगा है। नठड़ो = भाग गए हैं। पेखंदिआ = दीदार करने से।2।

अर्थ: जिस मनुष्य ने सारा स्वै भाव मिटा दिया, जो मनुष्य प्रभु के चरणों के साथ जुड़ा रहा, हे नानक! प्रभु का दीदार करने से उसके सारे दुख-कष्ट नाश हो जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ मेलि लैहु दइआल ढहि पए दुआरिआ ॥ रखि लेवहु दीन दइआल भ्रमत बहु हारिआ ॥ भगति वछलु तेरा बिरदु हरि पतित उधारिआ ॥ तुझ बिनु नाही कोइ बिनउ मोहि सारिआ ॥ करु गहि लेहु दइआल सागर संसारिआ ॥१६॥

पद्अर्थ: दइआल = (दया+आलय) दया का घर, हे दयालु! ढहि पए = आ गिरा हूँ। भ्रमत = भटकते। हारिआ = थक गया हूँ। भगति वछलु = भक्ति को प्यार करने वाला। बिरदु = पुराना स्वभाव। पतित उधारिआ = विकारों में गिरे हुओं को बचाने वाला। बिनउ मोहि = मेरी विनती को। सारिआ = सार लेने वाला, सिरे चढ़ाने वाला। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। सागर = समुंदर।

अर्थ: हे दयालु! मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ, मुझे (अपने चरणों में) जोड़ ले। हे दीनों पर दया करने वाले! मुझे रख ले, मैं भटकता-भटकता अब बहुत थक गया हूँ। भक्ति को प्यार करना और गिरे हुओं को बचाना- ये तेरा बिरद स्वभाव है। हे प्रभु! तेरे बिना और कोई नहीं जो मेरी इस विनती को सिरे चढ़ा सके। हे दयालु! मेरा हाथ पकड़ ले (और मुझे) संसार-समुंदर में से बचा ले।16।

सलोक ॥ संत उधरण दइआलं आसरं गोपाल कीरतनह ॥ निरमलं संत संगेण ओट नानक परमेसुरह ॥१॥

पद्अर्थ: संत उधरण = संतों को (विकारों की तपस से) बचाने वाला। दइआलं = दयालु प्रभु। आसरं गोपाल कीरतनह = (जिस को) गोपाल के कीर्तन का आसरा है, जिन्होंने गोपाल के कीर्तन को अपने जीवन का आसरा बनाया है। संत संगेण = (उन) संतों की संगति करने से।1।

अर्थ: जो संत जन गोपाल प्रभु के कीर्तन को अपने जीवन का सहारा बना लेते हैं, दयाल प्रभु उन संतों को (माया की तपस से) बचा लेता है, उन संतों की संगति करने से पवित्र हो जाते हैं। हे नानक! (तू भी ऐसे गुरमुखों की संगति में रह के) परमेश्वर का पल्ला पकड़।1।

चंदन चंदु न सरद रुति मूलि न मिटई घांम ॥ सीतलु थीवै नानका जपंदड़ो हरि नामु ॥२॥

पद्अर्थ: सरद रुति = शरद ऋतु, ठण्ड का मौसम। घांम = धूप, मन की तपस। सीतलु = शांत, ठंड।2।

अर्थ: चाहे चंदन (का लेप किया) हो चाहे चंद्रमा (की चाँदनी) हो, और चाहे ठंडी ऋतु हो - इनसे मन की तपस बिल्कुल भी समाप्त नहीं हो सकती। हे नानक! प्रभु का नाम स्मरण करने से ही मनुष्य (का मन) शांत होता है।2।

पउड़ी ॥ चरन कमल की ओट उधरे सगल जन ॥ सुणि परतापु गोविंद निरभउ भए मन ॥ तोटि न आवै मूलि संचिआ नामु धन ॥ संत जना सिउ संगु पाईऐ वडै पुन ॥ आठ पहर हरि धिआइ हरि जसु नित सुन ॥१७॥

पद्अर्थ: ओट = आसरा। सगल = सारे। जन = मनुष्य। परतापु = बड़ाई। निरभउ = निडर। तोटि = कमी, घटा। न मूलि = कभी भी नहीं। संचिआ = इकट्ठा किया। वडै पुन = अच्छे भाग्यों से। मिल = कमल का फूल। चरन कमल = कमल के फूल जैसे चरन।

अर्थ: प्रभु के सुंदर चरणों का आसरा ले के सारे जीव (दुनिया की तपस से) बच जाते हैं। गोबिंद की महिमा सुन के (बँदगी वालों के) मन निडर हो जाते हैं। वे प्रभु का नाम-धन इकट्ठा करते हैं और उस धन में कभी घाटा नहीं पड़ता। ऐसे गुरमुखों की संगति बड़े भाग्यों से मिलती है, ये संत जन आठों पहर प्रभु को स्मरण करते हैं और सदा प्रभु का यश सुनते हैं।17।

सलोक ॥ दइआ करणं दुख हरणं उचरणं नाम कीरतनह ॥ दइआल पुरख भगवानह नानक लिपत न माइआ ॥१॥

पद्अर्थ: कीरतन = महिमा, बड़ाई। लिपत न = नहीं लिबड़ता, नहीं फसता। पुरख = सार व्यापक। भगवान = भाग्यशाली, प्रतापवान प्रभु।1।

अर्थ: हे नानक! अगर मनुष्य दयालु सर्व-व्यापक भगवान के नाम की बड़ाई करे तो प्रभु मेहर करता है, उसके दुखों का नाश करता है और वह मनुष्य माया के मोह में नहीं फंसता।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh