श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हंउ कुरबानै जाउ मिहरवाना हंउ कुरबानै जाउ ॥ हंउ कुरबानै जाउ तिना कै लैनि जो तेरा नाउ ॥ लैनि जो तेरा नाउ तिना कै हंउ सद कुरबानै जाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मिहरवाना = हे मेहरवान प्रभु!।1। रहाउ।

नोट: ‘मजीठ’ लोग मजीठ को घोल के कपड़े रंगते थे। ये रंग पक्का होता था।

अर्थ: हे मेहरवान प्रभु! मैं कुर्बान जाता हूँ मैं सदके जाता हूँ, मैं वारने जाता हूँ उनसे, जो तेरा नाम स्मरण करते हैं। जो लोग तेरा नाम लेते हैं, मैं उनसे सदा कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ।

काइआ रंङणि जे थीऐ पिआरे पाईऐ नाउ मजीठ ॥ रंङण वाला जे रंङै साहिबु ऐसा रंगु न डीठ ॥२॥

पद्अर्थ: रंङणि = (रंगणि) वह खुला बर्तन जिसमें लिलारी कपड़े रंगता है, बरतन, माटी। थीऐ = बन जाए। साहिबु = मालिक प्रभु।2

अर्थ: (पर, हाँ!) अगर ये शरीर (लिलारी का) बरतन बन जाए, और हे सज्जन! इस में मजीठ जैसे पक्के रंग वाला प्रभु का नाम-रंग पाया जाए, फिर मालिक-प्रभु खुद लिलारी (बन के जीव-स्त्री के मन को) रंग (में डुबो) दे, तो ऐसा रंग चढ़ता है जो कभी पहले देखा ना हो।2।

जिन के चोले रतड़े पिआरे कंतु तिना कै पासि ॥ धूड़ि तिना की जे मिलै जी कहु नानक की अरदासि ॥३॥

पद्अर्थ: रतड़े = रंगे हुए। कहु = कहो। अरदासि = विनती।3।

अर्थ: हे प्यारे (सज्जन!) जिस जीव-स्त्रीयों के (शरीर-) चोले (जीवन नाम-रंग से) रंगे हुए हैं, पति-प्रभु (सदा) उनके पास (बसता) है। हे सज्जन! नानक की ओर से उनके पास विनती कर, भला नानक को भी उनके चरणों की धूल मिल जाए।3।

आपे साजे आपे रंगे आपे नदरि करेइ ॥ नानक कामणि कंतै भावै आपे ही रावेइ ॥४॥१॥३॥

पद्अर्थ: साजे = सवारता है। नदरि = मेहर की नजर। करेइ = करता है, करै। कामणि = स्त्री, जीव-स्त्री। रावेइ = माणता है, अपने साथ मिलाता है।4।

नोट: अंक 4 से अगला अंक 1 बताता है के ‘घरु ३’का ये पहला शब्द है।

अर्थ: हे नानक! जिस जीव-स्त्री पर प्रभु खुद मेहर की नजर करता है उसको वह आप ही सँवारता है खुद ही (नाम का) रंग चढ़ाता है, वह जीव-स्त्री पति-प्रभु को प्यारी लगती है, उसको प्रभु खुद ही अपने चरणों में जोड़ता है।4।1।3।

तिलंग मः १ ॥ इआनड़ीए मानड़ा काइ करेहि ॥ आपनड़ै घरि हरि रंगो की न माणेहि ॥ सहु नेड़ै धन कमलीए बाहरु किआ ढूढेहि ॥ भै कीआ देहि सलाईआ नैणी भाव का करि सीगारो ॥ ता सोहागणि जाणीऐ लागी जा सहु धरे पिआरो ॥१॥

पद्अर्थ: इआनी = अंजान लड़की। इआनड़ी = बहुत अंजान लड़की। इआनड़ीए = हे बहुत ही अंजान जिंदे! हे नासमझ जीवात्मा! मानड़ा = अनुचित गुमान। काइ = क्यों? करेहि = तू करती है। घरि = घर में, हृदय में। रंगो = रंगु, आनंद। की = क्यों? धन कंमलीए = हे भोली जीव-स्त्रीये! बाहुर = बाहरी जगत। भाव का = प्रेम का। सलाई = सुरमचू जिससे सुर्मा डाला जाता है। लागी = लगी हुई, जुड़ी हुई।1।

(नोट: ‘बाहरि’ और ‘बाहरु’ का फर्क याद रखने योग्य है)।

अर्थ: हे अति अंजान जिंदे! तू इतना अनुचित गुमान क्यों करती है? परमात्मा तेरे अपने ही हृदय-घर में है, तू उस (के मिलाप) का आनंद क्यों नहीं लेती? हे भोली जीव-स्त्री! पति-प्रभु (तेरे अंदर ही तेरे) नजदीक बस रहा है, तू (जंगल आदिक) बाहरी संसार क्यों तलाशती फिरती है? (अगर तूने उसका दीदार करना चाहती है, तो अपने ज्ञान की) आँखों में (प्रभु के) डर-अदब (के अंजन) की सलाईयां डाल, प्रभु के प्यार का हार-श्रृंगार कर।

जीव-स्त्री तब ही सोहाग-भाग वाली और प्रभु-चरणों में जुड़ी हुई समझी जाती है, जब प्रभु-पति उससे प्यार करे।1।

इआणी बाली किआ करे जा धन कंत न भावै ॥ करण पलाह करे बहुतेरे सा धन महलु न पावै ॥ विणु करमा किछु पाईऐ नाही जे बहुतेरा धावै ॥ लब लोभ अहंकार की माती माइआ माहि समाणी ॥ इनी बाती सहु पाईऐ नाही भई कामणि इआणी ॥२॥

पद्अर्थ: किआ करे = क्या कर सकती है? कंत न भावै = कंत का ठीक ना लगे। करण पलाह = (करुणा प्रलाप) तरले, दुहाई। साधन = जीव-स्त्री। करमा = करम, मेहर, बख्शिश। धावै = दौड़ भाग करे। माती = मस्त। इनी बाती = इन बातों से। कामणि = स्त्री।2।

अर्थ: (पर) नासमझ जीव-स्त्री भी क्या कर सकती है यदि वह जीव-स्त्री प्रभु-पति को अच्छी ना लगे? ऐसी जीव-स्त्री भले कितने ही करुणा प्रलाप करती फिरे, वह प्रभु-पति का महल-गृह नहीं पा सकती। (दरअसल बात ये है कि) जीव-स्त्री भले ही कितनी ही दौड़-भाग करती रहे, प्रभु की मेहर के बिना कुछ भी हासिल नहीं होता।

यदि जीव-स्त्री जीभ के चस्के लालच और अहंकार (आदि) में ही मस्त रहे, और सदा माया (के मोह) में डूबी रहे, तो इन बातों से पति-प्रभु नहीं मिलता। वह जीव-स्त्री बेसमझ ही रही (जो विकारों में मस्त रहके और फिर भी समझे कि वह पति-प्रभु को प्रसन्न कर सकती है)।2।

जाइ पुछहु सोहागणी वाहै किनी बाती सहु पाईऐ ॥ जो किछु करे सो भला करि मानीऐ हिकमति हुकमु चुकाईऐ ॥ जा कै प्रेमि पदारथु पाईऐ तउ चरणी चितु लाईऐ ॥ सहु कहै सो कीजै तनु मनो दीजै ऐसा परमलु लाईऐ ॥ एव कहहि सोहागणी भैणे इनी बाती सहु पाईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: वाहै = उनको। हिकमति = चालाकी। हुकमु = जबरदस्ती। जा के प्रेमि = जिसके प्रेम से। तउ = उस की। मनो = मन। परमलु = सुगंधि। एव = इस तरह। कहहि = कहती हैं।3।

अर्थ: (जिनको पति-प्रभु मिल गया है, बेशक) उन सोहाग-भाग वालियों को जा के पूछ के देखो कि किन बातों से पति-प्रभु मिलता है, (वे यही उक्तर देती हैं कि) चालाकी और जबरदस्ती त्याग दो, जो कुछ प्रभु करता है उसको अच्छा समझ के (सिर माथे पर) मानो, जिस प्रभु के प्रेम के सदका नाम-वस्तु मिलती है उसके चरणों में मन जोड़ो, पति-प्रभु जो हुक्म करता है वह करो, अपना शरीर और मन उसके हवाले करो, बस! ये सुगंधि (जिंद के लिए) बरतो। सोहाग-भाग वाली सही कहतीं हैं कि हे बहन! इन बातों से ही पति-प्रभु मिलता है।3।

आपु गवाईऐ ता सहु पाईऐ अउरु कैसी चतुराई ॥ सहु नदरि करि देखै सो दिनु लेखै कामणि नउ निधि पाई ॥ आपणे कंत पिआरी सा सोहागणि नानक सा सभराई ॥ ऐसै रंगि राती सहज की माती अहिनिसि भाइ समाणी ॥ सुंदरि साइ सरूप बिचखणि कहीऐ सा सिआणी ॥४॥२॥४॥

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। अउरु = कोई और उद्यम। कैसी चतुराई = व्यर्थ की चालाकी। लेखै = लेखे में, सफल। नउनिधि = नौ खजाने। सभराई = भाईयों वाली, सारे परिवार में आदर वाली। रंगि = रंग में। राती = रंगी हुई। अहि = दिन। निसि = रात। भाइ = भाउ में, प्रेम में। सुंदरि = सुंदरी। साई = वही स्त्री। सरूप = रूप वाली। बिचखणि = (विचक्षण, विलक्षण) तीक्ष्ण बुद्धि। सा = वह स्त्री।4।

अर्थ: पति-प्रभु तब ही मिलता है जब स्वै भाव दूर करें। इसके बिना किया गया और कोई उद्यम व्यर्थ है, चालाकी है। (जिंदगी का) वह दिन सफल जानो जब पति-प्रभु मेहर की निगाह से देखे, (जिस) जीव-स्त्री (की ओर मेहर की) निगाह करता है वह मानो नौ खजाने पा लेती है।

हे नानक! जो जीव-स्त्री पति-प्रभु को प्यारी है वह सोहाग-भाग वाली है वह (जगत-) परिवार में आदर पाती है। जो प्रभु के प्यार-रंग में रंगी रहती है, जो अडोलता में मस्त रहती है, जो दिन-रात प्रभु के प्रेम-रंग में मगन रहती है, वही सोहानी है सुंदर रूप वाली है तीक्ष्ण बुद्धि वाली है और समझदार कही जाती है।4।2।4।

तिलंग महला १ ॥ जैसी मै आवै खसम की बाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो ॥ पाप की जंञ लै काबलहु धाइआ जोरी मंगै दानु वे लालो ॥ सरमु धरमु दुइ छपि खलोए कूड़ु फिरै परधानु वे लालो ॥ काजीआ बामणा की गल थकी अगदु पड़ै सैतानु वे लालो ॥ मुसलमानीआ पड़हि कतेबा कसट महि करहि खुदाइ वे लालो ॥ जाति सनाती होरि हिदवाणीआ एहि भी लेखै लाइ वे लालो ॥ खून के सोहिले गावीअहि नानक रतु का कुंगू पाइ वे लालो ॥१॥

पद्अर्थ: मै = मुझे। बाणी = प्रेरणा। करी = मैं करता हूँ। गिआनु = जान पहचान, वाकफियत। करी गिआनु = मैं हाल बताता हूँ। वे = हे! काबलहु = काबुल से। धाइआ = हमला करके आया। जोरी = जोर जबरदस्ती।

सरमु = शर्म, हया। परधानु = चौधरी। थकी = रह गई, खत्म हो गई। अगदु = निकाह, विवाह। करहि खुदाइ = खुदा खुदा करती हैं, खुदा के आगे पुकार करती हैं। सनाती = नीच जाति। एहि भी = ये भी सारी। लेखै लाइ = उस जुल्म के लेखे में ही गिन। खून के सोहिले = दुहाई, विरलाप, वैण। रतु = रक्त, लहू। कुंगू = केसर।1।

अर्थ: हे (भाई) लालो! मुझे जैसी प्रभु-पति से प्रेरणा आई है उसी अनुसार मैं तुझे (उस दुघर्टना के) बारे में बता देता हूँ (जो इस शहर सैदपुर में घटित हुई है)। (बाबर) काबुल से (फौज, जो मानो) पाप-जुल्म की बारात (है) इकट्ठी करके आ चढ़ा है, और जोर-जबरदस्ती से हिन्द की हकूमत रूपी कन्या का दान माँग रहा है। (सैदपुर में से) हया और शर्म दोनों अलोप हो चुके हैं, झूठ ही झूठ चौधरी बना फिरता है। (बाबर के सिपाहियों द्वारा सैदपुर की स्त्रीयों पर इतने अत्याचार हो रहे हैं कि, जैसे) शैतान (इस शहर में) विवाह पढ़ा रहा है और काज़ियों व ब्राहमणों की (शिष्टाचार वाली) मर्यादा समाप्त हो चुकी है। मुसलमान औरतें (भी इस जुल्म का शिकार हो रही हैं जो) इस बिपता में (अपनी धर्म-पुस्तक) कुरान (की आयतें) पढ़ रही है। और ख़ुदा के आगे अरदास कर रही हैं। उच्च जातियों की, नीच जातियों की और भी सारी हिन्दू सि्त्रयाँ - इन सभी पर अत्याचार हो रहे हैं।

हे नानक! (इस ख़ूनी विवाह में सैदपुर नगर के अंदर चारों तरफ) विरलाप हो रहे हैं और लहू का केसर छिड़का जा रहा है।1।

नोट: (दानु) विवाह के समय लड़की वाले के घर लड़के वाले बारात के रूप में आते हैं। खुशी के गीत गाए जाते हैं। हिन्दुओं का विवाह ब्राहमण और मुसलमानों का काजी पढ़ता है। हिन्दू कन्या-दान करते हैं, दान के तौर पर कन्या भेट करते हैं। उस सोहाने समय में बारातियों पर केसर छिड़का जाता है। विवाह का ये दृष्टांत दे के गुरु नानक देव जी इस शब्द के माध्यम से बताते हैं कि बाबर ने काबुल से फौज ले कर चढ़ाई की, जैसे, पाप-जुल्म की बारात ले के हिन्द की हकूमत-रूपी दुल्हन को ब्याहने आया हो। बाबर के फौजियों ने सैदपुर, ऐमनाबाद, की स्त्रीयों की बहुत बेइज्जती की, ये जैसे, काजी और ब्राहमण की जगह शैतान विवाह पढ़ा रहा था। कत्लेआम से शहर की गलियों-बाजारों में लहू ही लहू था। ये मानो, उस खूनी विवाह में केसर छिड़का जा रहा था। विवाहों के खुशी के सोहिलों की जगह खून के सोहिले गाए जा रहे थे, हर तरफ मौत के ताण्डव के कारण विरलाप ही विरलाप पड़ रहे थे।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh