श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 723 साहिब के गुण नानकु गावै मास पुरी विचि आखु मसोला ॥ जिनि उपाई रंगि रवाई बैठा वेखै वखि इकेला ॥ सचा सो साहिबु सचु तपावसु सचड़ा निआउ करेगु मसोला ॥ काइआ कपड़ु टुकु टुकु होसी हिदुसतानु समालसी बोला ॥ आवनि अठतरै जानि सतानवै होरु भी उठसी मरद का चेला ॥ सच की बाणी नानकु आखै सचु सुणाइसी सच की बेला ॥२॥३॥५॥ पद्अर्थ: मासपुरी = वह नगर जहाँ हर तरफ मास ही मास बिखरा पड़ा है, जहाँ लाशों के ढेर लगे पड़े हैं, लाशों भरा शहर। आखु = (हे भाई लालो! तू भी) कह। मसोला = मसला, असूल की बात, अटल नियम। जिनि = जिस (मालिक प्रभु) ने। रंगि = रंग में, माया के मोह में। रवाई = पचाई, प्रवृत की। वखि = अलग हो के, निर्लिप रह के। इकेला = अकेला रह के। टुकु टुकु = टुकड़े टुकड़े। होसी = होगा, हो रहा है। समालसी = याद रखेगा। बोला = बात, दुर्घटना। आवनि = आते हैं, आए हैं। अठतरै = अठक्तर में, संवत् 1578 में (सन् 1521में। जानि = जाते हैं, जाएंगे। सतानवै = संवत् 1597 में (सन् 1540 में)। उठसी = उठेगा, ताकत पकड़ेगा, शक्ति में आएगा। मरद का चेला = शूरवीर। सच की वाणी = सदा कायम रहने वाले प्रभु की महिमा की वाणी। आखै = कहता है, उचारता है। सुणाइसी = सुनाता रहेगा, उचारता रहेगा, कहता रहेगा। बेला = समय, मानव जन्म का समय। सच की बेला = स्मरण, महिमा का ही यह समय है।2। अर्थ: (सैदपुर के कत्लेआम की ये दुर्घटना बहुत ही भयानक है, पर ये भी ठीक है कि जगत में ये सब कुछ मालिक-प्रभु की रजा में हो रहा है, इस वास्ते) लाशों भरे शहर में बैठ के भी नानक उस मालिक-प्रभु के गुण गाता है, (हे भाई लालो! तू भी इस) अटल नियम को उचार (याद रख कि) जिस मालिक प्रभु ने (ये सृष्टि) पैदा की है, उसी ने ही इसे माया के मोह में प्रवृति किया हुआ है, वह स्वयं ही निर्लिप रहके (उन दुर्घटनाओं को) देख रहा है (जो माया के मोह के कारण घटित होती हैं)। वह मालिक-प्रभु अटल नियमों वाला है, उसका न्याय (अब तक) अटल है, वह (भविष्य में भी) अटल नियम को जारी रखेगा वही न्याय करेगा जो अटल है। (उस अटल नियम के मुताबिक ही इस वक्त सैदपुर में हर तरफ़) मानव-शरीर- रूपी कपड़े टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं। ये एक ऐसी भयानक घटना हुई है जिसको हिन्दुस्तान भुला नहीं सकेगा। (पर, हे भाई लालो! जब तक मनुष्य माया के मोह में प्रवृति हैं, ऐसे कत्लेआम होते रहेंगे, मुग़ल आज) संवत् अठक्तर में आए हैं, ये संवत् सक्तानबे में चले जाएंगे, कोई और सूरमा भी उठ खड़ा होगा। (जीव माया के रंग में मस्त हो के उम्र व्यर्थ गवा रहे हैं) नानक तो (इस वक्त भी) सदा कायम रहने वाले प्रभु की महिमा करता है, (सारी उम्र ही) ये महिमा करता रहेगा, क्योंकि मनुष्य को जीवन का ये समय ईश्वर की महिमा करने के लिए मिला है।2।3।5। नोट: गुरु नानक साहिब की तीसरी ‘उदासी’ के समय सन् 1518 में मक्के गए थे। वहाँ से ईरान देश व अफगानिस्तान देश के हाजियों से मिल के बग़दाद से काबुल के रास्ते वापस आ के ऐमनाबाद (सैदपुर) सन् 1521 में उसी वक्त पहुँचे थे, जब बाबर शहर स्यालकोट का कत्लेआम करके यहाँ पहुँचा था)। (नोट: शेरशाह सूरी ने बाबर के पुत्र हिमायूँ को हिन्दुस्तान से मार भगाया और स्वयं सन् 1540 में यहाँ का शासन सम्भाला था)। तिलंग महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभि आए हुकमि खसमाहु हुकमि सभ वरतनी ॥ सचु साहिबु साचा खेलु सभु हरि धनी ॥१॥ पद्अर्थ: सभि = सारे जीव। हुकमि = हुक्म अनुसार। खसमाहु = पति से। हुकमि = हुक्म में। सभ = सारी सृष्टि। वरतनी = काम कर रही है। सचु = सदा कायम रहने वाला। साचा = अटल (नियमों वाला)। खेलु = जगत तमाशा। सभ = हर जगह। धनी = मालिक।1। अर्थ: हे भाई! सारे जीव हुक्म अनुसार पति-प्रभु से ही जगत में आए हैं, सारी दुनिया उसके हुक्म में (ही) काम कर रही है। वह मालिक सदा कायम रहने वाला है, उसका (रचा हुआ जगत-) तमाशा अटल (नियमों वाला है)। हर जगह वह मालिक खुद मौजूद है।1। सालाहिहु सचु सभ ऊपरि हरि धनी ॥ जिसु नाही कोइ सरीकु किसु लेखै हउ गनी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिसु सरीकु = जिसके बराबर का। लेखै = लेखे में। हउ = मैं। गनी = मैं (गुण) बयान करूँ। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर हरि की महिमा किया करो। वह हरि सब के ऊपर है और मालिक है। जिस हरि के बराबर का और कोई नहीं है, मैं (तो) किस गिनती में हूँ कि उसके गुण बयान कर सकूँ?। रहाउ। पउण पाणी धरती आकासु घर मंदर हरि बनी ॥ विचि वरतै नानक आपि झूठु कहु किआ गनी ॥२॥१॥ पद्अर्थ: वरतै = मौजूद है। कहु = बताओ। किआ = किस को?।2। अर्थ: हे भाई! हवा, पानी, धरती, आकाश- ये सारे परमात्मा के (रहने के वास्ते) घर-मंदिर बने हुए हैं। हे नानक! इन सभी में परमात्मा खुद बस रहा है। बताओ, इनमें से किसको मैं असत्य कहूँ?।2।1। तिलंग महला ४ ॥ नित निहफल करम कमाइ बफावै दुरमतीआ ॥ जब आणै वलवंच करि झूठु तब जाणै जगु जितीआ ॥१॥ पद्अर्थ: निहफल = वे काम जिनसे कोई लाभ नहीं होता। बफावै = फुकरी मारता है, गुमान करता है। दुरमतीआ = खोटी बुद्धि वाला मनुष्य। आवै = लाता है। वलवंच = छल। करि = कर के। जाणै = समझता है।1। अर्थ: हे मेरे मन! दुर्मति वाला मनुष्य सदा वह काम करता रहता है जिनका कोई लाभ नहीं होता, (फिर भी ऐसे व्यर्थ कर्म करके) फुकरियाँ मारता रहता है (बड़े-बड़े बोल बोलता फिरता है)। जब कोई ठगी करके, कोई झूठ बोल के (कुछ धन-माल) ले आता है, तब समझता है कि मैंने दुनिया को जीत लिया है।1। ऐसा बाजी सैसारु न चेतै हरि नामा ॥ खिन महि बिनसै सभु झूठु मेरे मन धिआइ रामा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाजी = खेल, तमाशा। बिनसै = नाश हो जाता है। झूठु = नाशवान। मन = हे मन!। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! जगत ऐसा है जैसे एक खेल, ये सारा नाशवान है, एक छिन में नाश हो जाता है (पर खोटी बुद्धि वाला मनुष्य फिर भी) परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता। हे मेरे मन! तू तो परमात्मा का ध्यान धरता रह। रहाउ। सा वेला चिति न आवै जितु आइ कंटकु कालु ग्रसै ॥ तिसु नानक लए छडाइ जिसु किरपा करि हिरदै वसै ॥२॥२॥ पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। जितु = जिस (समय) में। आइ = आ के। कंटकु = काँटा, काँटे जैसा दुखदाई। ग्रसै = पकड़ लेता है। जिसु हिरदै = जिसके हृदय में।2। अर्थ: हे मेरे मन! खोटी मति वाले मनुष्य को वह वक्त (कभी) याद नहीं आता, जब दुखदाई काल आ के पकड़ लेता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा मेहर करके आ बसता है, उस को (मौत के डर से) छुड़ा लेता है।2।2।7। तिलंग महला ५ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥ असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥१॥ पद्अर्थ: खाक = ख़ाक, मिट्टी, अचेतन। नूर = ज्योति, आत्मा। करदं = बना दिया। आलम = जहान। जिमी = धरती। दरखत = वृक्ष। आब = पानी। पैदाइसि खुदाइ = परमात्मा की रचना। खुदाइ = परमात्मा।1। अर्थ: हे भाई! चेतन ज्योति और अचेतन मिट्टी मिला के परमात्मा ने ये जगत ये जहान बना दिया है। आसमान, धरती, वृक्ष, पानी (आदि ये सब कुछ) परमात्मा की ही रचना है।1। बंदे चसम दीदं फनाइ ॥ दुनींआ मुरदार खुरदनी गाफल हवाइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बंदे = हे मनुष्य! चसम = आँखें। दीदं = दिखता। फनाइ = नाशवान। मुरदार = हराम। खुरदनी = खाने वाली। गाफल = भूला हुआ। हवाइ = हिरस, लालच। रहाउ। अर्थ: हे मनुष्य! जो कुछ आँखों से देखता है नाशवान है। पर दुनिया (माया के) लालच में (परमात्मा को) भूली हुई है, हराम खाती रहती है (पराया हक खोती रहती है)। रहाउ। गैबान हैवान हराम कुसतनी मुरदार बखोराइ ॥ दिल कबज कबजा कादरो दोजक सजाइ ॥२॥ पद्अर्थ: गैबान = ना दिखने वाले, भूत प्रेत। हैवान = पशू। कुसतनी = कुश्तनी, मारने वाली। बखोराइ = बख़ोराय, खाती है। कबज कबजा = कबज़ कबज़ा, मुकम्मल कबज़ा। कादरो = पैदा करने वाला प्रभु! दोजक सजाइ = दोज़क सजाय, दोज़क की सज़ा देता है।2। अर्थ: हे भाई! ग़ाफ़ल मनुष्य भूतों, प्रेतों, पशुओं की तरह हराम मार के हराम खाता है। इसके दिल पर (माया का) पूरी तरह से कब्ज़ा हुआ रहता है, परमात्मा इसको दोजक की सजा देता है।2। वली निआमति बिरादरा दरबार मिलक खानाइ ॥ जब अजराईलु बसतनी तब चि कारे बिदाइ ॥३॥ पद्अर्थ: वली निआमति = नियामतें देने वाला पिता। बिरादरा = भाई। मिलक = जाइदाद। खानाइ = ख़ानाय, घर। बसतनी = बाँध लेगा। चि कारे = किस काम के? चि = किस? बिदाइ = विदा होते समय, विदाई के वक्त। अजराईलु = मौत का फरिश्ता।3। अर्थ: हे भाई! जब मौत का फरिश्ता (आ के) बाँध लेता है, तब पालने वाला पिता, भाई, दरबार, जायदाद, घर- ये सारे (जगत से) विदा होने के वक्त किस काम आएंगे?।3। हवाल मालूमु करदं पाक अलाह ॥ बुगो नानक अरदासि पेसि दरवेस बंदाह ॥४॥१॥ पद्अर्थ: पाक अलाह = पवित्र परमात्मा। अलाह = अल्लाह। हवाल मालूम करदं = (तेरे दिल का) हाल जानता है। बुगो = कह। पेसि = सामने, पेश। पेसि दरवेस बंदाह = दरवेश बँदों के सामने।4। अर्थ: हे भाई! पवित्र परमात्मा (तेरे दिल का) सारा हाल जानता है। हे नानक! संत जनों की संगति में रह के (परमात्मा के दर पे) अरदास किया कर (कि तुझे माया की हवस में ना फसने दे)।4।1। तिलंग घरु २ महला ५ ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू करतारु करहि सो होइ ॥ तेरा जोरु तेरी मनि टेक ॥ सदा सदा जपि नानक एक ॥१॥ पद्अर्थ: करहि = तू करता है। जोरु = बल। मनि = मन में। टेक = आसरा। नानक = हे नानक!।1। अर्थ: हे प्रभु! तू सारे जगत को पैदा करने वाला है, जो कुछ तू करता है, वही होता है, तेरे बिना और कोई दूसरा कुछ करने के काबिल नहीं है। (हम जीवों को) तेरा ही ताण है, (हमारे) मन में तेरा ही सहारा है। हे नानक! सदा उस एक परमात्मा का नाम जपता रह।1। सभ ऊपरि पारब्रहमु दातारु ॥ तेरी टेक तेरा आधारु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आधारु = आसरा। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सब जीवों को दातें देने वाला परमात्मा सब जीवों के सर पर रखवाला है। हे प्रभु! (हम जीवों को) तेरा ही आसरा है, तेरा ही सहारा है। रहाउ। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |