श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 724 है तूहै तू होवनहार ॥ अगम अगाधि ऊच आपार ॥ जो तुधु सेवहि तिन भउ दुखु नाहि ॥ गुर परसादि नानक गुण गाहि ॥२॥ पद्अर्थ: तू है = तू ही। होवनहार = सदा कायम रहने वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = अथाह। आपार = बेअंत। तुधु = तुझे। सेवहि = स्मरण करते हैं। प्रसादि = कृपा से। गाहि = गाते हैं।2। अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे अथाह प्रभु! हे सबसे ऊँचे और बेअंत प्रभु! हर जगह हर वक्त तू ही तू है, तू ही सदा कायम रहने वाला है। हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे स्मरण करते हैं, उनको कोई डर, कोई दुख छू नहीं सकता। हे नानक! गुरु की कृपा से ही (मनुष्य परमात्मा के) गुण गा सकते हैं।2। जो दीसै सो तेरा रूपु ॥ गुण निधान गोविंद अनूप ॥ सिमरि सिमरि सिमरि जन सोइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥३॥ पद्अर्थ: दीसै = दिखता है। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! अनूप = हे सुंदर! जन = हे जन! सेइ = उस परमात्मा को ही। करमि = मेहर से।3। अर्थ: हे गुणों के खजाने! हे सुंदर गोबिंद! (जगत में) जो कुछ दिखता है तेरा ही स्वरूप है। हे मनुष्य! सदा उस परमात्मा का स्मरण करता रह। हे नानक! (परमात्मा का स्मरण) परमात्मा की कृपा से ही मिलता है।3। जिनि जपिआ तिस कउ बलिहार ॥ तिस कै संगि तरै संसार ॥ कहु नानक प्रभ लोचा पूरि ॥ संत जना की बाछउ धूरि ॥४॥२॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कै संगि = के साथ। लोचा = चाहत। पूरि = पूरी कर। बाछउ = मैं चाहता हूँ। धूरि = चरण धूल।4। नोट: ‘तिस कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है, उससे कुर्बान होना चाहिए। उस मनुष्य की संगति में (रह के) सारा जगत संसार समुंदर से पार लांघ जाता है। हे नानक! कह: हे प्रभु! मेरी तमन्ना पूरी कर, मैं (तेरे दर से) तेरे संत जनों के चरणों की धूल माँगता हूँ।4।2। तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ मिहरवानु साहिबु मिहरवानु ॥ साहिबु मेरा मिहरवानु ॥ जीअ सगल कउ देइ दानु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मिहरवानु = दयालु। साहिबु = मालिक। जीअ = जीव। देइ = देता है। रहाउ। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ/जीव’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक प्रभु सदा दया करने वाला है, सदा दयालु है, सदा दयालु है। वह सारे जीवों को (सब पदार्थों का) दान देता है। रहाउ। तू काहे डोलहि प्राणीआ तुधु राखैगा सिरजणहारु ॥ जिनि पैदाइसि तू कीआ सोई देइ आधारु ॥१॥ पद्अर्थ: डोलहि = तू घबराता है। प्राणीआ = हे प्राणी! तुधु = तुझे। सिरजणहारु = पैदा करने वाला प्रभु। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तू = तुझे। आधारु = आसरा।1। अर्थ: हे भाई! तू क्यों घबराता है? पैदा करने वाला प्रभु तेरी (जरूर) रक्षा करेगा। जिस (प्रभु) ने तुझे पैदा किया है, वही (सारी सृष्टि को) आसरा (भी) देता है।1। जिनि उपाई मेदनी सोई करदा सार ॥ घटि घटि मालकु दिला का सचा परवदगारु ॥२॥ पद्अर्थ: मेदनी = धरती। सार = संभाल। घटि घटि = हरेक शरीर में। परवदगारु = पालने वाला।2। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने सृष्टि पैदा की है, वही (इसकी) संभाल करता है। हरेक शरीर में बसने वाला प्रभु (सारे जीवों के) दिलों का मालिक है, वह सदा कायम रहने वाला है, और, सब की पालना करने वाला है।2। कुदरति कीम न जाणीऐ वडा वेपरवाहु ॥ करि बंदे तू बंदगी जिचरु घट महि साहु ॥३॥ पद्अर्थ: कीम = कीमति, मूल्य। वेपरवाहु = बेमुथाज। घट महि = शरीर में। साहु = सांस।3। अर्थ: हे भाई! उस मालिक की कुदरत का मूल्य नहीं समझा जा सकता, वह सबसे बड़ा है उसे किसी की अधीनता नहीं। हे बँदे! जब तक तेरे शरीर में सांस चलती है तब तक उस मालिक की बँदगी करता रह।3। तू समरथु अकथु अगोचरु जीउ पिंडु तेरी रासि ॥ रहम तेरी सुखु पाइआ सदा नानक की अरदासि ॥४॥३॥ पद्अर्थ: समरथु = सब ताकतों का मालिक। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। रहम = रहिमत, कृपा।4। अर्थ: हे प्रभु! तू सब ताकतों का मालिक है, तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, ज्ञानेन्दिंयों के द्वारा तुझ तक पहुँच नहीं की जा सकती। (हम जीवों का ये) शरीर और जिंद तेरी ही दी हुई पूंजी है। जिस मनुष्य पर तेरी मेहर हो उस को (तेरे दर से बँदगी का) सुख मिलता है। नानक की भी सदा तेरे दर पे यही अरदास है (कि तेरी बँदगी का सुख मिले)।4।3। तिलंग महला ५ घरु ३ ॥ करते कुदरती मुसताकु ॥ दीन दुनीआ एक तूही सभ खलक ही ते पाकु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! कुदरती = कुदरत से, तेरी कुदरत देख के। मुसताकु = मुश्ताक, (तेरे दर्शनों का) चाहवान। ते = से। पाकु = निर्लिप। रहाउ। अर्थ: हे कर्तार! तेरी कुदरत को देख के मैं दशनों का चाहवान हो गया हूँ। मेरे दीन और दुनिया की दौलत एक तू ही है। तू सारी सृष्टि से निर्लिप रहता है। रहाउ। खिन माहि थापि उथापदा आचरज तेरे रूप ॥ कउणु जाणै चलत तेरे अंधिआरे महि दीप ॥१॥ पद्अर्थ: माहि = में। थापि = बना के, पैदा करके। उथापदा = नाश कर देता है। आचरज = हैरान कर देने वाला। चलत = करिश्मे। दीप = दीया, प्रकाश।1। अर्थ: हे कर्तार! तू एक-छिन में (जीवों को) बना के नाश भी कर देता है तेरे स्वरूप हैरान कर देने वाले हैं। कोई जीव तेरे करिश्मों को समझ नहीं सकता। (अज्ञानता के) अंधेरे में (तू खुद ही जीवों के वास्ते) रौशनी है।1। खुदि खसम खलक जहान अलह मिहरवान खुदाइ ॥ दिनसु रैणि जि तुधु अराधे सो किउ दोजकि जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: खुदि = खुद। अलह = हे अल्लाह! हे परमात्मा! जहान = दुनिया। खुदाइ = ख़ुदाय, परमात्मा। रैणि = रात। जि = जो। तुधु = तुझे। दोजकि = नर्क में।2। अर्थ: हे अल्लाह! हे मेहरवान ख़ुदा! सारी सृष्टि का सारे जहान का तू खुद ही मालिक है। जो मनुष्य दिन-रात तुझे आराधता है, वे दोज़क कैसे जा सकता है?।2। अजराईलु यारु बंदे जिसु तेरा आधारु ॥ गुनह उस के सगल आफू तेरे जन देखहि दीदारु ॥३॥ पद्अर्थ: अजराईलु = मौत का फरिश्ता। आधारु = आसरा। गुनह = गुनाह, पाप। सगल = सारे। आफू = अफ़व, बख्शे जाते हैं। तेरे जन = तेरे दास। देखहि = देखते हें।3। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा आसरा मिल जाता है, मौत का फरिश्ता उस मनुष्य का मित्र बन जाता है (उसे मौत का डर नहीं रहता) (क्योंकि) उस मनुष्य के सारे पाप बख्शे जाते हैं।3। दुनीआ चीज फिलहाल सगले सचु सुखु तेरा नाउ ॥ गुर मिलि नानक बूझिआ सदा एकसु गाउ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: दुनीआ चीज = दुनिया के सारे पदार्थ। फिलहाल = फिल हाल, अभी अभी के लिए, छण भंगुर, जल्दी नाश हो जाने वाले। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुर मिलि = गुरु को मिल के। एकसु = एक को ही। गाउ = गाऊँ।4। अर्थ: हे प्रभु! दुनिया के (और) सारे पदार्थ जल्दी ही नाश हो जाने वाले हैं। सदा कायम रहने वाला सुख तेरा नाम (ही बख्शता) है। हे नानक! कह: ये बात (मैंनें गुरु को मिल के समझी है, इस वास्ते) मैं सदा एक परमात्मा का ही यश गाता रहता हूँ।4।4। तिलंग महला ५ ॥ मीरां दानां दिल सोच ॥ मुहबते मनि तनि बसै सचु साह बंदी मोच ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मीरां = हे सरदार! दानां = हे समझदार! दिल सोच = हे (जीवों के) दिलों को पवित्र करने वाले! सोच = पवित्रता। मुहबते = तेरी मुहब्बत। मनि = मन में। तनि = तन में। सचु साह = हे सदा कायम रहने वाले शाह! बंदी मोच = हे बंधनो से छुड़ाने वाले! बँदी = कैद।1। रहाउ। अर्थ: हे सरदार! हे समझदार! हे (जीवों के) दिल को पवित्र करने वाले! हे सदा स्थिर शाह! हे बंधनो से छुड़ाने वाले! तेरी मुहब्बत मेरे मन में मेरे दिल में बस रही है।1। रहाउ। दीदने दीदार साहिब कछु नही इस का मोलु ॥ पाक परवदगार तू खुदि खसमु वडा अतोलु ॥१॥ पद्अर्थ: दीदन = देखना। साहिब = हे मालिक! पाक = हे पवित्र! परवदगार = हे पालनहार! खुदि = खुद, आप।1। नोट: ‘इस का’ में से ‘इसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे मालिक! तेरे दर्शन करना (एक अमोलक दाति है), तेरे इस (दर्शन) का कोई मुल्य नहीं आँका जा सकता। हे पवित्र! हे पालणहार! तू खुद (हमारा) पति है तू सबसे बड़ा है, तेरी बड़ी हस्ती को तोला नहीं जा सकता।1। दस्तगीरी देहि दिलावर तूही तूही एक ॥ करतार कुदरति करण खालक नानक तेरी टेक ॥२॥५॥ पद्अर्थ: दस्त = हाथ। दस्तगीरी = हाथ पकड़ने की क्रिया, सहायता। दस्तगीरी देहि = (मेरा) हाथ पकड़, मेरी सहायता कर। दिलावर = हे दिलावर! हे सूरमे प्रभु! करतार = हे कर्तार! कुदरति करण = हे कुदरति के रचनहार! खालक = हे सृष्टि के मालिक! टेक = आसरा।2। अर्थ: हे सूरमे प्रभु! मेरी सहायता कर, एक तू ही (मेरा आसरा) है। हे नानक! (कह:) हे कर्तार! हे कुदरति के रचनहार! हे सृष्टि के मालिक! मुझे तेरा सहारा है।2।5। तिलंग महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ किआ कहीऐ रे भाई ॥ आपे जाणै करे आपि जिनि वाड़ी है लाई ॥१॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कीआ = बनाया है। तिनि = उस (परमात्मा) ने। देखिआ = संभाल की है। रे भाई = हे भाई! किआ कहीऐ = (उसकी जगत संभाल के बाबत) कुछ नहीं कहा जा सकता। आपे = आप ही। वाड़ी = जगत-बगीची।1। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (ये जगत) बनाया है, उसने ही (सदा) इसकी संभाल की है। ये कहा नहीं जा सकता (कि वह कैसे संभाल करता है)। जिसने ये जगत-वाड़ी लगाई है वह खुद ही (इसकी जरूरतें) जानता है, और खुद (वह जरूरतें पूरी) करता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |