श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नदरि करे ता सतिगुरु पावै ॥ नानक हरि रसि हरि रंगि समावै ॥४॥२॥६॥

पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। रस = रस में। रंगि = रंग में।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: जब परमात्मा किसी मनुष्य पर) मेहर की निगाह करता है, तो वह गुरु (का मिलाप) प्राप्त करता है, (फिर वह) परमात्मा के नाम-रस में परमात्मा के प्रेम-रंग में समाया रहता है।4।2।6।

सूही महला ४ ॥ जिहवा हरि रसि रही अघाइ ॥ गुरमुखि पीवै सहजि समाइ ॥१॥

पद्अर्थ: जिहवा = जीभ। रसि = रस में। अघाइ रही = तृप्त रहती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य की जीभ परमात्मा के नाम के रस में तृप्त रहती है, वह सदा वह नाम-रस ही पीता है, और आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1।

हरि रसु जन चाखहु जे भाई ॥ तउ कत अनत सादि लोभाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भाई जन = हे भाई जनो! हे प्यारे सज्जनो! तउ = तब। सादि = स्वाद में। अनत सादि = और स्वादों में। कत = कहाँ? कत अनद सादि = किसी भी स्वाद में नहीं।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे सज्जनों! अगर तुम परमात्मा के नाम का स्वाद चख लो, तो फिर किसी भी और स्वाद में नहीं फंसोगे।1। रहाउ।

गुरमति रसु राखहु उर धारि ॥ हरि रसि राते रंगि मुरारि ॥२॥

पद्अर्थ: उर = हृदय। धारि = टिका के। रंगि = प्रेम रंग में।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शिक्षा पर चल के प्रभु के नाम का स्वाद अपने हृदय में बसाए रखो। जो मनुष्य प्रभु के नाम-रस में मगन हो जाते हैं, वह मुरारी प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं।2।

मनमुखि हरि रसु चाखिआ न जाइ ॥ हउमै करै बहुती मिलै सजाइ ॥३॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। हउमै करै = ‘मैं मैं’ करता है, ‘मैं बड़ा मैं बहुत समझदार’ कहता फिरता है।3।

अर्थ: पर, हे भाई! जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह परमात्मा के नाम-रस का स्वाद नहीं चख सकता, (ज्यों-ज्यों अपनी समझदारी का) अहंकार करता है (त्यों-त्यों) उसे और ज्यादा से ज्यादा सजा मिलती है (आत्मिक कष्ट सहना पड़ता है)।3।

नदरि करे ता हरि रसु पावै ॥ नानक हरि रसि हरि गुण गावै ॥४॥३॥७॥

पद्अर्थ: पावै = हासिल करता है। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जब परमात्मा (किसी मनुष्य पर) मेहर की निगाह करता है तब वह प्रभु के नाम का स्वाद हासिल करता है, (फिर) वह हरि-नाम के स्वाद में मगन हो के परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है।4।3।7।

सूही महला ४ घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

नीच जाति हरि जपतिआ उतम पदवी पाइ ॥ पूछहु बिदर दासी सुतै किसनु उतरिआ घरि जिसु जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: नीच जाति = नीच जाति का मनुष्य। उतम पदवी = उच्च आत्मिक दर्जा। पाइ = पा लेता है। बिदर = बिदर भक्त राजा विचित्रवीर्य की दासी सुदेशणा की कोख से जन्मा व्यास ऋषि का पुत्र था। इसका भक्ति भाव देख के ही कृष्ण जी दुर्योधन की महल-माढ़ियां छोड़ के बिदर के घर आ ठहरे थे (देखें भाई गुरदास जी की वार 10)। घरि जिसु = जिसके घर में। जाइ = जा के।1।

अर्थ: हे भाई! नीच जाति वाला मनुष्य भी परमात्मा का नाम जपने से उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है (अगर यकीन नहीं होता, तो किसी से) दासी के पुत्र बिदर की बात पूछ के देख लो। उस बिदर के घर में कृष्ण जी जा के ठहरे थे।1।

हरि की अकथ कथा सुनहु जन भाई जितु सहसा दूख भूख सभ लहि जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जितु = जिस (कथा) के द्वारा। सहसा = सहम।1। रहाउ।

अर्थ: हे सज्जनो! परमात्मा की आश्चर्य महिमा सुना करो, जिसकी इनायत से हरेक किस्म की सहम, हरेक दुख दूर हो जाता है, (माया की) भूख मिट जाती है।1। रहाउ।

रविदासु चमारु उसतति करे हरि कीरति निमख इक गाइ ॥ पतित जाति उतमु भइआ चारि वरन पए पगि आइ ॥२॥

पद्अर्थ: निमख इक = एक-एक निमख, हर वक्त (निमेष = आँख झपकने जितना समय)। कीरति = महिमा। पतित जाति = नीच जाति वाला। चारि वरन = ब्राहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र। पगि = पैर पर। आइ = आ के।2।

अर्थ: हे भाई! (भक्त) रविदास (जाति का) चमार (था, वह परमात्मा की) महिमा करता था, वह हर वक्त प्रभु की कीर्ति गाता रहता था। नीच जाति का रविदास महापुरुष बन गया। चारों वर्णों के मनुष्य उसके पैरों में आ के लगे।2।

नामदेअ प्रीति लगी हरि सेती लोकु छीपा कहै बुलाइ ॥ खत्री ब्राहमण पिठि दे छोडे हरि नामदेउ लीआ मुखि लाइ ॥३॥

पद्अर्थ: नामदेअ प्रीति = नामदेव की प्रीति। सेती = साथ। मुखि लाइ लीआ = दर्शन दिए, माथे से लगाया।3।

अर्थ: हे भाई! (भक्त) नामदेव की परमात्मा के साथ प्रीति बन गई। जगत उसे धोबी (छींबा) बुलाता था। परमात्मा ने क्षत्रियों-ब्राहमणों को पीठ दे दी, और नामदेव को माथे से लगाया था।3।

(नामदेव जी का जन्म गाँव नरसी वांमनी, जिला सतारा, प्रांत बंबई में सन् 1270 में हुआ था। उम्र का बहुत सारा हिस्सा इन्होंने पंडरपुर में गुजारा। वहीं सन्1350 में देहांत हुआ)।

जितने भगत हरि सेवका मुखि अठसठि तीरथ तिन तिलकु कढाइ ॥ जनु नानकु तिन कउ अनदिनु परसे जे क्रिपा करे हरि राइ ॥४॥१॥८॥

पद्अर्थ: मुखि = मुँह पर। अठसठि = अढ़सठ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। परसे = छूए। हरि राइ = प्रभु पातशाह।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के जितने भी भक्त हैं, सेवक हैं, उनके माथे पर अढ़सठ तीर्थ तिलक लगाते हैं (सारे ही तीर्थ भी उनका आदर-मान करते हैं)। हे भाई! अगर प्रभु-पातशाह मेहर करे, तो दास नानक हर वक्त उन (भगतों-सेवकों) के चरण छूता है।4।1।8।

नोट: ‘घरु 2’ के शबदों का संग्रह समाप्त होता है। आगे ‘घरु 6’ के संग्रह का ये पहला शब्द है। कुल जोड़ 8 है।

सूही महला ४ ॥ तिन्ही अंतरि हरि आराधिआ जिन कउ धुरि लिखिआ लिखतु लिलारा ॥ तिन की बखीली कोई किआ करे जिन का अंगु करे मेरा हरि करतारा ॥१॥

पद्अर्थ: तिनी = उन मनुष्यों ने। अंतरि = अपने हृदय में। धुरि = धुर दरगाह से। लिखतु = लेख। लिलारा = लिलाट, माथे पर। बखीली = चुग़ली, निंदा। अंगु = पक्ष।1।

अर्थ: हे भाई! धुर-दरगाह से जिस मनुष्यों के माथे पर लेख लिखा होता है, वही मनुष्य अपने हृदय में परमात्मार की आराधना करते हैं (और परमात्मा उनका ही पक्ष करता है)। प्यारा कर्तार जिनका पक्ष करता है, कोई मनुष्य उनकी निंदा करके उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।1।

हरि हरि धिआइ मन मेरे मन धिआइ हरि जनम जनम के सभि दूख निवारणहारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! सभि = सारे। निवारणहारा = दूर करने के लायक।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे मन! प्रभु का ध्यान धरा कर। परमात्मा (जीव के) जन्मों-जन्मांतरों के विकार दूर करने की सामर्थ्य रखता है।1। रहाउ।

धुरि भगत जना कउ बखसिआ हरि अम्रित भगति भंडारा ॥ मूरखु होवै सु उन की रीस करे तिसु हलति पलति मुहु कारा ॥२॥

पद्अर्थ: अंम्रित भगति = आत्मिक जीवन देने वाली भक्ति। भंडारा = खजाना। रीस = बराबरी। हलति = इस लोक में (अत्र)। पलति = (परत्र) परलोक में। कारा = काला।2।

अर्थ: हे भाई! धुर-दरगाह से परमात्मा ने अपने भक्तों को अपनी आत्मिक जीवन देने वाली भक्ति का खजाना बख्शा हुआ है। जो मनुष्य मूर्ख होता हैवही उनकी बराबरी करता है (इस ईष्या के कारण, बल्कि) उसका मुँह इस लोक में भी और परलोक में काला होता है (वह लोक-परलोक में बदनामी कमाता है)।2।

से भगत से सेवका जिना हरि नामु पिआरा ॥ तिन की सेवा ते हरि पाईऐ सिरि निंदक कै पवै छारा ॥३॥

पद्अर्थ: ते = से। पाईऐ = मिलता है। कै सिरि = के सिर पर। छारा = राख। पवै छारा = राख पड़ती है।3।

अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य भक्त हैं, वह मनुष्य (परमात्मा के) सेवक हैं, जिनको परमात्मा का नाम प्यारा लगता है। उन (सेवक-भक्तों) की शरण पड़ने से परमात्मा (का मिलाप) प्राप्त होता है। (सेवकों-भक्तों के) निंदक के सिर पर (तो जगत की ओर से) राख (ही) पड़ती है।3।

जिसु घरि विरती सोई जाणै जगत गुर नानक पूछि करहु बीचारा ॥ चहु पीड़ी आदि जुगादि बखीली किनै न पाइओ हरि सेवक भाइ निसतारा ॥४॥२॥९॥

पद्अर्थ: जिसु घरि = जिसके घर में, जिसके हृदय घर में। विरती = घटित होती है। पूछि = पूछ के। चहु पीढ़ी = चारों पीढ़ियों में, कभी भी। आदि जुगादि = जगत के आरम्भ से, जुगों के आरम्भ से। बखीली = चुगली करने से। किनै = किसी ने भी। भाइ = भावना से। निसतारा = पार उतारा।4।

अर्थ: हे भाई! (वैसे तो अपने अंदर की फिटकार को) वही मनुष्य जानता है जिसके हृदय में ये (बखीली वाली दशा) घटित होती है। (पर) तुम जगत के गुरु नानक (पातशाह) को पूछ के विचार के देखो (ये यकीन जानो कि) जगत के आरम्भ से ले के युगों की शुरुवात से ले के, कभी भी किसी मनुष्य ने (महां पुरुषों के साथ) ईष्या से (आत्मिक जीवन का धन) नहीं पाया। (महापुरुषों से) सेवक-भावना रखने से ही (संसार-समुंदर से) पार-उतारा होता है।4।2।9।

सूही महला ४ ॥ जिथै हरि आराधीऐ तिथै हरि मितु सहाई ॥ गुर किरपा ते हरि मनि वसै होरतु बिधि लइआ न जाई ॥१॥

पद्अर्थ: मितु = मित्र। सहाई = मददगार। ते = से। मनि = मन में। होरतु बिधि = और किसी तरीके से। (होरतु = और के द्वारा। जितु = जिसके द्वारा। जितु = उसके द्वारा)।1।

अर्थ: हे भाई! जिस भी जगह परमात्मा की आराधना की जाए, वह मित्र परमात्मा वहीं आ के मददगार बनता है। (पर वह) परमात्मा गुरु की कृपा से (ही मनुष्य के) मन में बस सकता है, किसी भी और तरीके से उसको पाया नहीं जा सकता।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh