श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 734

हरि धनु संचीऐ भाई ॥ जि हलति पलति हरि होइ सखाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संचीऐ = इकट्ठा करना चाहिए। भाई = हे भाई!। जि हरि = जो हरि!। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सखाई = मित्र।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो हरि इस लोक में और परलोक में मित्र बनता है, उसका नाम-धन इकट्ठा करना चाहिए।1। रहाउ।

सतसंगती संगि हरि धनु खटीऐ होर थै होरतु उपाइ हरि धनु कितै न पाई ॥ हरि रतनै का वापारीआ हरि रतन धनु विहाझे कचै के वापारीए वाकि हरि धनु लइआ न जाई ॥२॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। सत संगती संगि = सत्संगियों से (मिल के)। खटीऐ = कमाया जा सकता है। होरथै = किसी और जगह। होरतु उपाइ = किसी और प्रयत्न से। कितै = किसी भी जगह। विहाझे = खरीदता है। कचै के वापारीए = कच्ची चीजों का व्यापार करने वाले (कच्चा समान ही पाते हैं)। वाकि = (उनके) वाक से, (उनकी) शिक्षा से।2।

अर्थ: हे भाई! सत्संगियों के साथ (मिल के) परमात्मा का नाम-धन कमाया जा सकता है, (सत्संग के बिना) किसी भी और जगह, किसी भी अन्य प्रयासों से (अगर) नाम-धन खरीदता है, (तो) नाशवान चीजों के (कच्ची चीजों के) के व्यापारी (मायावी पदार्थ ही अर्थात कच्ची चीजें ही खरीदते हैं उनकी) शिक्षा से हरि-नाम-धन प्राप्त नहीं किया जा सकता।2।

हरि धनु रतनु जवेहरु माणकु हरि धनै नालि अम्रित वेलै वतै हरि भगती हरि लिव लाई ॥ हरि धनु अम्रित वेलै वतै का बीजिआ भगत खाइ खरचि रहे निखुटै नाही ॥ हलति पलति हरि धनै की भगता कउ मिली वडिआई ॥३॥

पद्अर्थ: जवेहरु = जवाहर। माणकु = मोती। अंम्रित वेलै = आत्मिक जीवन देने वाले समय में। वतै = वतर के समय। हरि भगती = हरि के भक्तों ने। लिव = लगन। लिव लाई = तवज्जो जोड़ी। निखुटै = खत्म होता। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। कउ = को।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (भी) धन (है, ये धन) रत्न-जवाहर-मोती (जैसा कीमती) है। प्रभु के भक्तों ने वत्र के वक्त उठ के अमृत बेला में उठ के (उस वक्त उठ के जब आत्मिक जीवन अंकुरित होता है) इस हरि-नाम-धन से तवज्जो जोड़ी होती है। अमृत बेला में (उठ के) बीजा हुआ ये हरि-नाम-धन भक्त जन खुद इस्तेमाल करते रहते हैं, और लोगों कोबाँटते रहते हैं, पर ये खत्म नहीं होता। भक्त जनों को इस लोक में परलोक में इस हरि-नाम-धन के कारण इज्जत मिलती है।3।

हरि धनु निरभउ सदा सदा असथिरु है साचा इहु हरि धनु अगनी तसकरै पाणीऐ जमदूतै किसै का गवाइआ न जाई ॥ हरि धन कउ उचका नेड़ि न आवई जमु जागाती डंडु न लगाई ॥४॥

पद्अर्थ: असथिरु = सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा टिके रहने वाला। तसकर = चोर। उचका = उठा के ले जाने वाला, लुटेरा। जागाती = मसूलिया। डंडु = दण्ड।4।

अर्थ: हे भाई! जिस हरि-नाम-धन को किसी किस्म का कोई खतरा नहीं, ये सदा ही कायम रहने वाला है, सदा ही टिका रहता है। आग-चोर-पानी-मौत, किसी के द्वारा भी इस धन का नुकसान नहीं किया जा सकता। कोई लुटेरा इस हरि-नाम-धन के नजदीक नहीं फटक सकता। जम मसूलिया इस धन को महसूल नहीं लगा सकता।4।

साकती पाप करि कै बिखिआ धनु संचिआ तिना इक विख नालि न जाई ॥ हलतै विचि साकत दुहेले भए हथहु छुड़कि गइआ अगै पलति साकतु हरि दरगह ढोई न पाई ॥५॥

पद्अर्थ: साकती = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों ने। बिखिआ = माया। संचिआ = इकट्ठा किया, जोड़ा। विख = कदम। दुहेले = दुखी। साकत = माया ग्रसित मनुष्य। हथहु = हाथ में से। छुड़कि = छूट गया। अगै पलति = आगे परलोक में। साकतु = माया ग्रसित मनुष्य (एकवचन)। ढोई = आसरा।5।

अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित मनुष्यों ने (सदा) पाप कर-करके माया-धन ही जोड़ा, (पर) उनके साथ (जगत से चलने के वक्त) ये धन एक कदम भी साथ नहीं निभा सका। (इस माया धन के कारण) माया-ग्रसित लोग इस लोक में दुखी ही रहे (मरने के वक्त ये धन) हाथों से छिन गया, आगे परलोक में जा के माया-ग्रसित मनुष्य को परमात्मा की हजूरी में कोई जगह नहीं मिलती।5।

इसु हरि धन का साहु हरि आपि है संतहु जिस नो देइ सु हरि धनु लदि चलाई ॥ इसु हरि धनै का तोटा कदे न आवई जन नानक कउ गुरि सोझी पाई ॥६॥३॥१०॥

पद्अर्थ: साहु = शाहू, सरामाए का मालिक। संतहु = हे संत जनो! देइ = देता है। लदि = लाद के। तोटा = कमी। आवई = आए। गुरि = गुरु ने। जन कउ = अपने दास को। नानक = हे नानक!।6।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे संत जनो! इस हरि-नाम-धन का मालिक परमात्मा स्वयं ही है। जिस मनुष्य को शाहूकार-प्रभु ये धन देता है, वह मनुष्य (इस जगत में) ये हरि-नाम-सौदा कमा के यहाँ से चलता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) इस हरि-नाम-धन के व्यापार में कभी घाटा नहीं पड़ता। गुरु ने अपने सेवक को ये बात अच्छी तरह समझा दी है।6।3।10।

सूही महला ४ ॥ जिस नो हरि सुप्रसंनु होइ सो हरि गुणा रवै सो भगतु सो परवानु ॥ तिस की महिमा किआ वरनीऐ जिस कै हिरदै वसिआ हरि पुरखु भगवानु ॥१॥

पद्अर्थ: सुप्रसंनु = अच्छी तरह खुश। रवै = याद करता है। परवानु = स्वीकार। महिमा = बड़ाई। वरनीऐ = बयान की जाए। कै हिरदै = के हृदय में।1।

नोट: ‘जिस नो, जिस कै, तिस की, जिस ते, तिस का’ में से शब्द ‘जिसु’, ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ ‘कै’ ‘की’ ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा अच्छी तरह खुश होता है, वह मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, वह मनुष्य (उसकी नजरों में) भक्त है (उसके दर पर) स्वीकार है। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में भगवान पुरुष आ बसता है, उसकी महिमा बयान नहीं की जा सकती।1।

गोविंद गुण गाईऐ जीउ लाइ सतिगुरू नालि धिआनु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गाईऐ = आओ गाएं। जीउ लाइ = जी लगा के, चित जोड़ के।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! आओ, चिक्त जोड़ के, गुरु (की वाणी) से तवज्जो जोड़ के, परमात्मा की महिमा के गीत गाया करें।1। रहाउ।

सो सतिगुरू सा सेवा सतिगुर की सफल है जिस ते पाईऐ परम निधानु ॥ जो दूजै भाइ साकत कामना अरथि दुरगंध सरेवदे सो निहफल सभु अगिआनु ॥२॥

पद्अर्थ: सफल = कामयाब। ते = से। निधान = खजाना। दूजै भाइ = माया के प्यार में। कामना अरथि = मन की वासना की खातिर। दुरगंध = विषौ विकार। अगिआनु = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी।2।

अर्थ: हे भाई! वह गुरु (ऐसा समर्थ है) कि उसकी तरफ से सबसे ऊँचा खजाना मिल जाता है, उस गुरु की बताई हुई वह सेवा भी फल लाती है। जो माया-ग्रसित मनुष्य माया के प्यार में (फंस के) मन की वासनाएं (पूरी करने) की खातिर किसी विषौ-विकारों में लगे रहते हैं, वे जीवन व्यर्थ गवा लेते हैं, उनका सारा जीवन ही आत्मिक जीवन की ओर से बे-समझी है।2।

जिस नो परतीति होवै तिस का गाविआ थाइ पवै सो पावै दरगह मानु ॥ जो बिनु परतीती कपटी कूड़ी कूड़ी अखी मीटदे उन का उतरि जाइगा झूठु गुमानु ॥३॥

पद्अर्थ: परतीति = श्रद्धा, निश्चय। थाइ पवै = स्वीकार होता है। मानु = आदर। कपटी = फरेबी। कूड़ी कूड़ी = झूठ मूठ। गुमानु = मान, अहंकार।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को (गुरु पर) श्रद्धा होती है, उसका हरि-यश गाना (हरि की हजूरी में) स्वीकार पड़ता है; वह मनुष्य परमात्मा की दरगाह में आदर पाता है। पर जो फरेबी मनुष्य (गुरु पर) ऐतबार किए बिना झूठ-मूठ ही आँखें बँद करते हैं (जैसे, समाधि लगा के बैठे हों) उनका (अपनी उच्चता के बारे में) झूठा अहंकार (आखिर) उतर जाएगा।3।

जेता जीउ पिंडु सभु तेरा तूं अंतरजामी पुरखु भगवानु ॥ दासनि दासु कहै जनु नानकु जेहा तूं कराइहि तेहा हउ करी वखिआनु ॥४॥४॥११॥

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। दासनि दासु = दासों का दास। वखिआनु = बयान। करी = मैं करता हूँ।4।

अर्थ: हे प्रभु! जितना भी (जीवों के) जिंद-शरीर हैं ये सभ तेरा ही दिया हुआ है, तू सबके दिल की जानने वाला सर्व-व्यापक प्रभु है। हे प्रभु! तेरे दासों का दास नानक कहता है: (हे प्रभु!) तू जो कुछ मुझसे कहलवाता है, मैं वही कुछ कहता हूँ।4।4।11।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh