श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 735 सूही महला ४ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तेरे कवन कवन गुण कहि कहि गावा तू साहिब गुणी निधाना ॥ तुमरी महिमा बरनि न साकउ तूं ठाकुर ऊच भगवाना ॥१॥ पद्अर्थ: कवन कवन = कौन कौन से? कहि कहि = कह कह के। गावा = गाऊँ। साहिब = मालिक। गुणी निधाना = गुणों का खजाना। महिमा = उपमा, बड़ाई। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता।1। अर्थ: हे सबसे ऊँचे भगवान! तू सबका मालिक है, तू सारे गुणों का खजाना है, तू सबको पालने वाला है। मैं तेरे कौन-कौन से गुण बता के तेरी महिमा कर सकता हूँ? मैं तेरी महिमा बयान नहीं कर सकता।1। मै हरि हरि नामु धर सोई ॥ जिउ भावै तिउ राखु मेरे साहिब मै तुझ बिनु अवरु न कोई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मै = मेरे वास्ते। धर = आसरा। अवरु = और।1। रहाउ। अर्थ: हे हरि! मेरे वास्ते तेरा वह नाम ही सहारा है। हे मेरे मालिक! जैसे तुझे अच्छा लगे वैसे मेरी रक्षा कर तेरे बिना मेरा और कोई (सहारा) नहीं है।1। रहाउ। मै ताणु दीबाणु तूहै मेरे सुआमी मै तुधु आगै अरदासि ॥ मै होरु थाउ नाही जिसु पहि करउ बेनंती मेरा दुखु सुखु तुझ ही पासि ॥२॥ पद्अर्थ: ताणु = बल। दीबाणु = सहारा। पहि = पास। करउ = मैं करूँ। पासे = पास।2। अर्थ: हे मेरे मालिक! तू ही मेरे वास्ते बल है, तू ही मेरे वास्ते आसरा है। मैं तेरे आगे ही आरजू कर सकता हूँ। मेरे लिए कोई और ऐसी जगह नहीं, जिसके पास मैं विनती कर सकूँ। मैं अपना हरेक सुख हरेक दुख तेरे सामने ही रख सकता हूँ।2। विचे धरती विचे पाणी विचि कासट अगनि धरीजै ॥ बकरी सिंघु इकतै थाइ राखे मन हरि जपि भ्रमु भउ दूरि कीजै ॥३॥ पद्अर्थ: विचे पाणी = (पानी के) बीच ही। विचे धरती = (धरती के) बीच ही। कासट = काठ, लकड़ी। धरीजै = धरी हुई है। सिंघु = शेर। इक तै थाइ = एक ही जगह में। मन = हे मन!।3। अर्थ: हे मेरे मन! देख, (पानी के) बीच में ही धरती है, (धरती के) बीच में ही पानी है, लकड़ी में आग रखी हुई है, (मालिक प्रभु ने, मानो) शेर और बकरी एक ही जगह रखे हुए हैं। हे मन! (तू डरता क्यों है? ऐसी शक्ति वाले) परमात्मा का नाम जप के तू अपना हरेक डर-भ्रम दूर कर लिया कर।3। हरि की वडिआई देखहु संतहु हरि निमाणिआ माणु देवाए ॥ जिउ धरती चरण तले ते ऊपरि आवै तिउ नानक साध जना जगतु आणि सभु पैरी पाए ॥४॥१॥१२॥ पद्अर्थ: चरण तले ते = पैरों के नीचे। आणि = ला के। सभु जगतु = सारा संसार।4। अर्थ: हे संत जनो! देखो परमात्मा की बड़ी ताकत! परमात्मा उनको आदर दिलवाता है, जिनकी कोई इज्जत नहीं करता था। हे नानक! जैसे धरती (मनुष्य के) पैरों के नीचे से (मौत आने से उसके) ऊपर आ जाती है, वैसे ही परमात्मा सारे जगत को ला के साधु-जनों के चरणों में डाल देता है।4।1।12। नोट: ‘घरु ७’ के नए संग्रह का ये पहला शब्द है। सूही महला ४ ॥ तूं करता सभु किछु आपे जाणहि किआ तुधु पहि आखि सुणाईऐ ॥ बुरा भला तुधु सभु किछु सूझै जेहा को करे तेहा को पाईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: करता = सृष्टि रचने वाला। सभु किछु = हरेक बात। जाणहि = तू जानता है। पहि = पास। आखि = कह के। सूझै = पता लग जाता है। को = कोई जीव। पाईऐ = फल पा लेता है।1। अर्थ: हे प्रभु! तू (सारी सृष्टि को) पैदा करने वाला है, (अपनी सारी सृष्टि की बाबत) हरेक बात तू खुद ही जानता है। तुझसे कोई बात छुपी नहीं (इस वास्ते) तुझे कौन सी बात कह के सुनाई जाए। हरेक जीव की बुराई और भलाई का तुझे खुद ही पता लग जाता है। (इसी लिए) जैसा कर्म कोई जीव करता है, वह वैसा ही फल पा लेता है।1। मेरे साहिब तूं अंतर की बिधि जाणहि ॥ बुरा भला तुधु सभु किछु सूझै तुधु भावै तिवै बुलावहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साहिब = हे मालिक! अंतर की बिधि = (हरेक के) अंदर की हालत। तुधु भावै = जैसे तुझे ठीक लगता है। बुलावहि = तू बुलाता है।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मालिक! तू (हरेक जीव के) अंदर की हालत जानता है। किसी के अंदर बुराई है, किसी के अंदर भलाई, तुझे हरेक बात का पता चल जाता है। जैसे तुझे अच्छा लगता है, वैसे ही तू (हरेक जीव को अच्छे या बुरे नाम से) बुलाता है।1। रहाउ। सभु मोहु माइआ सरीरु हरि कीआ विचि देही मानुख भगति कराई ॥ इकना सतिगुरु मेलि सुखु देवहि इकि मनमुखि धंधु पिटाई ॥२॥ पद्अर्थ: सभु = सारा। कीआ = बनाया हुआ। देही = शरीर। कराई = कराता है। मेलि = मिला के। देवहि = तू देता है (हे प्रभु!)। इकि = कई, बहुत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। धंधु पिटाई = धंधा रुलवाता है, माया के मोह में फसाए रखता है।2। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! माया का सारा मोह परमात्मा ने बनाया है, हरेक शरीर भी प्रभु ने ही बनाया है। मनुष्य शरीर में भक्ति भी प्रभु खुद ही करवाता है। हे प्रभु! कई जीवों को तू गुरु मिलवा के आनंद बख्शता है। हे भाई! अनेक जीव ऐसे हैं जो अपने मन के पीछे चलते हैं, उनको वह खुद ही माया में फसाए रखता है।2। सभु को तेरा तूं सभना का मेरे करते तुधु सभना सिरि लिखिआ लेखु ॥ जेही तूं नदरि करहि तेहा को होवै बिनु नदरी नाही को भेखु ॥३॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। करते = हे कर्तार! तुधु = तू। सिरि = सिर पर। नदरि = निगाह, दृष्टि। को भेखु = कोई भी भेख, कोई भी स्वरूप, कोई भी जीव।3। अर्थ: हे मेरे कर्तार! हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है, तू सभ जीवों का (पति) है। सब जीवों के सिर पर तूने ही (मेहनत-कमाई का) लेख लिखा हुआ है। उस लेख (के अनुसार) जैसी निगाह तू किसी जीव पर करता है वैसा ही वह बन जाता है। (चाहे कोई अच्छा है, चाहे कोई बुरा है) तेरी निगाह के बिना कोई भी जीव (अच्छा या बुरा) नहीं (बना)।3। तेरी वडिआई तूंहै जाणहि सभ तुधनो नित धिआए ॥ जिस नो तुधु भावै तिस नो तूं मेलहि जन नानक सो थाइ पाए ॥४॥२॥१३॥ पद्अर्थ: सभ = सारी दुनिया। तुधु भावै = तेरी रजा हो। थाइ पाए = स्वीकार होता है।4। अर्थ: हे दास नानक (कह:) हे मेरे कर्तार! तू कितना बड़ा है; इस बात को तू खुद ही जानता है। सारी दुनिया सदा तेरा ध्यान धरती है। जिसे तू चाहता है उसको (अपने चरणों में) तू जोड़ लेता है। वह मनुष्य (तेरी दरगाह में) स्वीकार हो जाता है।4।2।13। सूही महला ४ ॥ जिन कै अंतरि वसिआ मेरा हरि हरि तिन के सभि रोग गवाए ॥ ते मुकत भए जिन हरि नामु धिआइआ तिन पवितु परम पदु पाए ॥१॥ पद्अर्थ: कै अंतरि = के अंदर, के हृदय में। सभि = सारे। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। मुकत = रोगों से स्वतंत्र। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाए = पाया, पा लिया।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में मेरा हरि-प्रभु आ बसता है, उनके वह हरि सारे रोग दूर कर देता है। हे भाई! जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम स्मरण किया, वह (अहंकार आदि जैसे रोगों से) स्वतंत्र हो गए, उन्होंने सबसे ऊँचा आत्मिक पवित्र दर्जा हासिल कर लिया।1। मेरे राम हरि जन आरोग भए ॥ गुर बचनी जिना जपिआ मेरा हरि हरि तिन के हउमै रोग गए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरे राम हरि जन = मेरे राम के हरि जन। आरोग = रोग रहित।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरे राम के, मेरे हरि के, दास (अहंकार आदि से) नरोए हो गए हैं। जिस मनुष्यों ने गुरु के वचनों पर चल के मेरे हरि प्रभु का नाम जपा उनके अहंकार (आदि) रोग दूर हो गए।1। रहाउ। ब्रहमा बिसनु महादेउ त्रै गुण रोगी विचि हउमै कार कमाई ॥ जिनि कीए तिसहि न चेतहि बपुड़े हरि गुरमुखि सोझी पाई ॥२॥ पद्अर्थ: महा देउ = शिव। त्रै गुण = माया के तीन गुणों के प्रभाव के कारण। कमाई = कीती। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तिसहि = उसको ही। न चेतहि = नहीं चेतते। बपुड़े = विचारे। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से।2। नोट: ‘तिसहि’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ही’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: (हे भाई! पुराणों की बताई साखियों के अनुसार) माया के तीन गुणों के प्रभाव के कारण (बड़े देवते) ब्रहमा, विष्णु, शिव (भी) रोगी ही रहे, (क्योंकि उन्होंने भी) अहंकार में ही कर्म किए। जिस परमात्मा ने उनको पैदा किया था, उसे उन बेचारों ने याद नहीं किया। हे भाई! परमात्मा की सूझ (तो) गुरु की शरण पड़ने से ही मिल सकती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |