श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 737 जिस नो लाइ लए सो लागै ॥ गिआन रतनु अंतरि तिसु जागै ॥ दुरमति जाइ परम पदु पाए ॥ गुर परसादी नामु धिआए ॥३॥ पद्अर्थ: गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। अंतरि = अंदर, हृदय में। दुरमति = खोटी मति। पदु = आत्मिक दर्जा।3। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! वही मनुष्य प्रभु (के चरणों) में लीन होता है, जिसको प्रभु स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ता है। उस मनुष्य के अंदर रत्न (जैसे कीमती) आत्मिक जीवन की सूझ उघड़ पड़ती है। (उस मनुष्य के अंदर से) खोटी मति दूर हो जाती है, वह उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है। गुरु की कृपा से वह परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है।3। दुइ कर जोड़ि करउ अरदासि ॥ तुधु भावै ता आणहि रासि ॥ करि किरपा अपनी भगती लाइ ॥ जन नानक प्रभु सदा धिआइ ॥४॥२॥ पद्अर्थ: कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। करउ = मैं करता हूँ। आणहि = तू लाता है। आणहि रासि = तू सफल करता है। करि = कर के।4। अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं (अपने) दोनों हाथ जोड़ के (तेरे दर पे) अरदास करता हूँ। जब तुझे ठीक लगे (तेरी रजा हो) तब ही तू उस अरदास को सफल करता है। हे भाई! कृपा करके परमात्मा (जिस मनुष्य को) अपनी भक्ति में जोड़ता है, वह उसको सदा स्मरण करता रहता है।4।2। सूही महला ५ ॥ धनु सोहागनि जो प्रभू पछानै ॥ मानै हुकमु तजै अभिमानै ॥ प्रिअ सिउ राती रलीआ मानै ॥१॥ पद्अर्थ: धनु = धन्य भाग्य वाली, सराहनीय। सोहागनि = सौभाग्यनी, सौहाग भाग वाली। पछानै = सांझ डालती है। मानै = मानती है। प्रिअ सिउ = प्यारे के साथ। राती = मगन, रंगी हुई। रलीआ = आत्मिक आनंद। मानै = माणती है।1। अर्थ: हे सखिए! वह जीव-स्त्री सराहनीय है, सोहाग भाग वाली है, जो प्रभु-पति के साथ सांझ बनाती है, जो अहंकार छोड़ के प्रभु-पति का हुक्म मानती रहती है। वह जीव-स्त्री प्रभु पति (के प्यार-रंग) में रंगी हुई उसके मिलाप का आत्मिक आनन्द लेती रहती है।1। सुनि सखीए प्रभ मिलण नीसानी ॥ मनु तनु अरपि तजि लाज लोकानी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सखीए = हे सहेली! अरपि = भेटा कर दे। तजि = त्याग दे। लाज लोकानी = लोक-सम्मान, लोगों की इज्जत के खातिर काम करने।1। रहाउ। अर्थ: हे सखिए! परमात्मा को मिलने की निशानी (मुझसे) सुन ले। (वह निशानी वह तरीका ये है कि) लोक-सम्मान की खातिर काम करने छोड़ के अपना मन अपना शरीर परमात्मा के हवाले कर दे।1। रहाउ। सखी सहेली कउ समझावै ॥ सोई कमावै जो प्रभ भावै ॥ सा सोहागणि अंकि समावै ॥२॥ पद्अर्थ: कउ = को। प्रभ भावै = प्रभु को अच्छा लगे। सा = वह (स्त्रीलिंग)। अंकि = गोद में।2। अर्थ: (एक सत्संगी) सहेली (दूसरी सत्संगी) सहेली को (प्रभु-पति के मिलाप के तरीके के बारे में) समझाती है (और कहती है कि) जो जीव-स्त्री वही कुछ करती है जो प्रभु-पति को पसंद आ जाता है, वह सोहाग-भाग वाली जीव-स्त्री उस प्रभु के चरणों में लीन रहती है।2। गरबि गहेली महलु न पावै ॥ फिरि पछुतावै जब रैणि बिहावै ॥ करमहीणि मनमुखि दुखु पावै ॥३॥ पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गहेली = फसी हुई। महलु = ठिकाना। रैणि = (जिंदगी की) रात। करम हीणि = दुर्भाग्यणी। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली।3। अर्थ: (पर) जो जीव-स्त्री अहंकार में फसी रहती है, वह प्रभु-पति के चरणों में जगह प्राप्त नहीं कर सकती। जब (जिंदगी की) रात बीत जाती है, तब वह पछताती है। अपने मन के पीछे चलने वाली वह दुर्भाग्यपूर्ण जीव-स्त्री सदा दुख पाती रहती है।3। बिनउ करी जे जाणा दूरि ॥ प्रभु अबिनासी रहिआ भरपूरि ॥ जनु नानकु गावै देखि हदूरि ॥४॥३॥ पद्अर्थ: बिनउ = विनय, विनती। करी = मैं करता हूँ। जाण = मैं जानूँ। रहिआ भरपूरि = हर जगह मौजूद। देखि = देख के। हजूरि = अंग संग, हाजर नाजर।4। अर्थ: हे भाई! (लोक-सम्मान की खातिर मैं तब ही परमात्मा के दर पर) अरदास करूँ, अगर मैं उसको कहीं दूर बसता समझूँ। वह नाश-रहित परमात्मा तो हर जगह व्यापक है। दास नानक (तो उसको अपने) अंग-संग (बसता) देख के उसकी महिमा करता है।4।3। सूही महला ५ ॥ ग्रिहु वसि गुरि कीना हउ घर की नारि ॥ दस दासी करि दीनी भतारि ॥ सगल समग्री मै घर की जोड़ी ॥ आस पिआसी पिर कउ लोड़ी ॥१॥ पद्अर्थ: ग्रिह = (शरीर) घर। वसि = बस में। गुरि = गुरु के द्वारा। हउ = मैं। नारि = स्त्री, मलिका। दस = दस इंद्रिय। दासी = नौकरानियां। भतारि = पति प्रभु ने। सगल = सारी। समग्री = राशि-पूंजी, उच्च आत्मिक गुण। कउ = को। लोड़ी = मैं ढूँढता हूँ।1। अर्थ: (हे सखी!) उस पति-प्रभु ने गुरु के द्वारा (मेरा) शरीर-घर (मेरे) बस में कर दिया है (अब) मैं (उसकी कृपा से इस) घर की मलिका बन गई हूँ। उस पति ने दसों ही इन्द्रियों को मेरी दासियां बना दिया है। (उच्च आत्मिक गुणों वाला) मैंने अपने शरीर-घर का सारा समान जोड़ के (सजा के) रख दिया है। अब मैं प्रभु-पति के दर्शनों की आस और तमन्ना में उसका इन्तजार कर रही हूँ।1। कवन कहा गुन कंत पिआरे ॥ सुघड़ सरूप दइआल मुरारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कहा = कहूँ। कंत = पति के। सुघड़ = सुचज्जा। सरूप = सोहणा। मुरारे = (मुर+अरि) परमात्मा (के)।1। रहाउ। अर्थ: (हे सखी!) सुघड़, दयावान, प्रभु-कंत के मैं कौन-कौन से गुण बताऊँ।1। रहाउ। सतु सीगारु भउ अंजनु पाइआ ॥ अम्रित नामु त्मबोलु मुखि खाइआ ॥ कंगन बसत्र गहने बने सुहावे ॥ धन सभ सुख पावै जां पिरु घरि आवै ॥२॥ पद्अर्थ: सतु = स्वच्छ आचरण। अंजनु = सुरमा। तंबोलु = पान। मुखि = मुँह से। सुहावे = सोहणे। धन = जीव-स्त्री। जा = जब। घरि = हृदय घर में।2। अर्थ: (हे सखी! पति-प्रभु की कृपा से ही) स्वच्छ आचरण को मैंने (अपने जीवन का) श्रृंगार बना लिया है, उसके डर-अदब (का) मैंने (आँखों में) सुरमा डाल लिया है। (उसकी मेहर से ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-धन मैंने मुँह से खाया है। हे सखी! जब प्रभु-पति हृदय-घर में आ बसता है, तब जीव-स्त्री सारे सुख हासिल कर लेती है, उसके कंगन, कपड़े, गहने, सुंदर लगने लग जाते हैं (सारे धार्मिक उद्यम सफल हो जाते हैं)।2। गुण कामण करि कंतु रीझाइआ ॥ वसि करि लीना गुरि भरमु चुकाइआ ॥ सभ ते ऊचा मंदरु मेरा ॥ सभ कामणि तिआगी प्रिउ प्रीतमु मेरा ॥३॥ पद्अर्थ: कामण = टूणे। करि = बना के। रीझाइआ = खुश किया। गुरि = गुरु ने। भरमु = भटकना। ते = से। मंदरु = हृदय घर। कामणि = स्त्री।3। अर्थ: हे सखी! गुरु ने (जिस जीव-स्त्री की) भटकना दूर कर दी, उसने प्रभु-पति को अपने वश में कर लिया, गुणों के टूणे बना के उसने प्रभु-पति को खुश कर लिया। (हे सखी! उस पति-प्रभु की कृपा से ही) मेरा हृदय-घर सब (वासनाओं) से ऊपर हो गया है। और सारी स्त्रीयों को छोड़ के वह प्रीतम मेरा प्यारा बन गया है।3। प्रगटिआ सूरु जोति उजीआरा ॥ सेज विछाई सरध अपारा ॥ नव रंग लालु सेज रावण आइआ ॥ जन नानक पिर धन मिलि सुखु पाइआ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: सूरु = सूरज। उजीआरा = प्रकाश। सरध = श्रद्धा। नव रंग लालु = नित्य नए प्यार वाला प्रीतम। सेज = हृदय सेज। पिर मिलि = पति को मिल के। धन = स्त्री (ने)।4। अर्थ: हे सखी! (उस संत की कृपा से मेरे अंदर आत्मिक जीवन का) सूर्य उदय हो गया है, (आत्मिक जीवन की) ज्योति जग पड़ी है। बेअंत प्रभु की श्रद्धा की सेज मैंने बिछा दी है (मेरे हृदय में प्रभु के लिए पूरी श्रद्धा बन गई है), (अब अपनी मेहर से ही) वह नित्य नए प्यार वाला प्रीतम मेरे हृदय की सेज पर आ बैठा है। हे दास नानक! (कह:) प्रभु-पति को मिल के जीव-स्त्री आत्मिक आनंद पाती है।4।4। सूही महला ५ ॥ उमकिओ हीउ मिलन प्रभ ताई ॥ खोजत चरिओ देखउ प्रिअ जाई ॥ सुनत सदेसरो प्रिअ ग्रिहि सेज विछाई ॥ भ्रमि भ्रमि आइओ तउ नदरि न पाई ॥१॥ पद्अर्थ: उमकिओ = खुशी से उछल पड़ा है। हीउ = हृदय। ताई = से, वास्ते। खोजत चरिओ = चोजने के लिए चढ़ गया है। देखउ = मैं देखूँ। प्रिअ जाई = प्यारे (के रहने की) जगह। सदेसरो प्रिअ = प्यारे का संदेश। ग्रिहि = हृदय गृह में। भ्रमि भ्रमि = भटक भटक के। तउ = तो भी। नदरि = मेहर की निगाह।1। अर्थ: हे सखी! प्यारे का सनेहा सुन के मैंने हृदय-गृह की सेज बिछा दी। मेरा हृदय प्रभु के मिलने के लिए खुशी से नाच उठा, (प्रभु को) तलाशने चढ़ पड़ा (कि) मैं प्यारे के रहने वाली जगह (कहीं) देख लूँ। (पर) भटक-भटक के वापस आ गया, तब (प्रभु की मेहर की) निगाह हासिल ना हुई।1। किन बिधि हीअरो धीरै निमानो ॥ मिलु साजन हउ तुझु कुरबानो ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किन बिधि = किन तरीकों से? हीअरो निमानो = ये बेचारा हृदय। साजन = हे साजन! हउ = मैं।1। रहाउ। अर्थ: हे सज्जन प्रभु! (मुझे) मिल, मैं तुझसे सदके जाती हूँ। (तेरे दर्शनों के बिना) मेरा ये निमाणा दिल कैसे धीरज धरे?।1। रहाउ। एका सेज विछी धन कंता ॥ धन सूती पिरु सद जागंता ॥ पीओ मदरो धन मतवंता ॥ धन जागै जे पिरु बोलंता ॥२॥ पद्अर्थ: धन = स्त्री। पिरु = पति। पीओ = पिया हुआ है। मदरो = मदिरा, शराब। मतवंता = मस्त। जागै = जाग पड़ता है। बोलंता = बुलाता है।2। अर्थ: हे सखी! जीव-स्त्री और प्रभु-पति की एक ही सेज (जीव-स्त्री के दिल में) बिछी हुई है; पर जीव-स्त्री (सदा माया के मोह की नींद में) सोई रहती है, प्रभु-पति सदा जागता रहता है (माया के प्रभाव से ऊपर रहता है) जीव-स्त्री यूँ मस्त रहती है जैसे इसने शराब पी हुई हो। (हाँ) जीव-स्त्री जाग भी सकती है, अगर प्रभु-पति खुद जगाए।2। भई निरासी बहुतु दिन लागे ॥ देस दिसंतर मै सगले झागे ॥ खिनु रहनु न पावउ बिनु पग पागे ॥ होइ क्रिपालु प्रभ मिलह सभागे ॥३॥ पद्अर्थ: निरासी = उदास। दिसंतर = देश अंतर। देस दिसंतर = देश देश के अंतर, और-और देश। झागे = फिरे हैं। न पावउ = मैं नहीं ढूँढ सकती। रहनु = टिकाव, धीरज। पग = पैर। बिनु पग पागे = चरणों पर पड़े बिना। प्रभ मिलह = हम प्रभु को मिल सकते हैं। सभागे = भाग्यों वाले।3। अर्थ: हे सखी! (उम्र के) बहुत सारे दिन बीत गए हैं, में (बाहर) और-और सारे देश तलाश के देख लिए हैं (पर बाहर प्रभु-पति कहीं नहीं मिला। अब) मैं (बाहर ढूँढ-ढूँढ के) निराश हो गई हूँ। उस प्रभु-पति के चरणों में पड़े बिना मुझे एक छिन के लिए भी शांति प्राप्त नहीं होती। (हाँ, हे सखी!) अगर वह खुद दयावान हो, तो ही जीव-स्त्रीयों के सौभाग्य जागने से उस प्रभु को मिल सकती हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |