श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 743 द्रिसटि धारि लीनो लड़ि लाइ ॥ हरि चरण गहे नानक सरणाइ ॥४॥२२॥२८॥ पद्अर्थ: द्रिसटि = (कृपा की) नजर। धारि = कर के। लड़ि = लड़ से। गहे = पकड़े।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा के चरण पकड़ लिए, जो मनुष्य प्रभु की शरण आ पड़ा, परमात्मा ने मेहर की निगाह करके उसको अपने साथ लगा लिया।4।22।28। नोट: सारा शब्द ‘भूत काल’ में है, इस का भाव ‘सदा वास्ते’ समझना है। अर्थ ‘वर्तमान काल’ में कर लेना है। सूही महला ५ ॥ दीनु छडाइ दुनी जो लाए ॥ दुही सराई खुनामी कहाए ॥१॥ पद्अर्थ: दीनु = धर्म, नाम धन। दुनी = दुनियावी। जो = जिस मनुष्य को। लाए = (परमात्मा) लगाता है। दुही सराई = दोनों लोकों में। खुनामी = गुनाहगार, अपराधी। कहाए = कहलवाता है।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम-धन कमाने से हटा के दुनियावी धन की ओर लगा देता है, वह मनुष्य दोनों जहानों में (इस लोक में और परलोक में) गुनहगार कहलवाता है।1। जो तिसु भावै सो परवाणु ॥ आपणी कुदरति आपे जाणु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है। जाणु = जानने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपनी रची सृष्टि के बारे में स्वयं ही सब कुछ जानने वाला है। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है, जीवों को वही कुछ सिर माथे मानना पड़ता है (वही कुछ जीव करते हैं)।1। रहाउ। सचा धरमु पुंनु भला कराए ॥ दीन कै तोसै दुनी न जाए ॥२॥ पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। भला = भला काम। दीन कै तोसै = नाम धन इकट्ठे करने से। न जाए = नहीं बिगड़ता।2। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य से परमात्मा) सदा-स्थिर रहने वाला (नाम-स्मरण) धर्म करवाता है, (नाम-स्मरण का) नेक भला काम करवाता है, नाम-धन इकट्ठा करते हुए उसकी ये दुनिया भी नहीं बिगड़ती।2। सरब निरंतरि एको जागै ॥ जितु जितु लाइआ तितु तितु को लागै ॥३॥ पद्अर्थ: सरब निरंतरि = सबके अंदर एक रस (अंतरि = दूरी)। एको = एक परमात्मा ही। जितु = जिस तरफ। को = कोई।3। अर्थ: हे भाई! (जीवों के भी क्या वश?) हरेक जीव उसी उसी काम में लगता है जिस जिस काम में परमात्मा लगाता है।3। अगम अगोचरु सचु साहिबु मेरा ॥ नानकु बोलै बोलाइआ तेरा ॥४॥२३॥२९॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।4। अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला मेरा मालिक है, तू अगम्य (पहुँच से परे) है, ज्ञान-इंद्रिय के माध्यम से तेरे तक पहुँचा नहीं जा सकता। (तेरा दास) नानक तेरे से प्रेरित हो के ही तेरा नाम उचार सकता है।4।23।29। सूही महला ५ ॥ प्रातहकालि हरि नामु उचारी ॥ ईत ऊत की ओट सवारी ॥१॥ पद्अर्थ: कालि = समय में। प्रातह = प्रभात, सवेर। प्रातह काल = अमृत बेला। उचारी = उचारा कर। ईत ऊत की = इस लोक की परलोक की। ओट = आसरा। सवारी = सुंदर बना लेना।1। अर्थ: हे भाई! अमृत बेला में (उठ के) परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, (इस तरह) इस लोक और परलोक के लिए सुंदर आसरा बनाते रहा कर।1। सदा सदा जपीऐ हरि नाम ॥ पूरन होवहि मन के काम ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपीऐ = जपना चाहिए। होवहि = हो जाते हैं। मन के काम = मन के कल्पित काम।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण करते रहना चाहिए। (नाम-जपने की इनायत से) मन के चितवे हुए सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ। प्रभु अबिनासी रैणि दिनु गाउ ॥ जीवत मरत निहचलु पावहि थाउ ॥२॥ पद्अर्थ: अबिनासी = नाश रहित। रैणि = रात। गाउ = गाया कर। जीवत मरत = दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए, निर्मोह रहने से। पावहि = तू प्राप्त कर लेगा।2। अर्थ: हे भाई! रात-दिन अविनाशी प्रभु (की महिमा के गीत) गाया कर। (इस तरह) दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए निर्मोह रह के तू (प्रभु-चरणों में) सदा कायम रहने वाली जगह प्राप्त कर लेगा।2। सो साहु सेवि जितु तोटि न आवै ॥ खात खरचत सुखि अनदि विहावै ॥३॥ पद्अर्थ: साहु = शाह, नाम धन का मालिक। सेवि = शरण पड़ा रह। जितु = जिस (धन) में। तोटि = कमी। खात खरचत = बर्तते और बाँटते हुए। सुखि = सुख में। विहावै = उम्र बीतती है।3। अर्थ: हे भाई! नाम-धन के मालिक उस प्रभु की सेवा-भक्ति किया कर, (उससे ऐसा धन मिलता है) जिस धन में कभी घाटा नहीं पड़ता। उस धन को खुद इस्तेमाल करते हुए औरों में बाँटते हुए जिंदगी सुख-आनंद से बीतती है।3। जगजीवन पुरखु साधसंगि पाइआ ॥ गुर प्रसादि नानक नामु धिआइआ ॥४॥२४॥३०॥ पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु। संगि = संगति में। प्रसादि = कृपा से।4। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने साधु-संगत में गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम स्मरणा शुरू कर दिया, उसने जगत के जीवन सर्व-व्यापक प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया।4।24।30। सूही महला ५ ॥ गुर पूरे जब भए दइआल ॥ दुख बिनसे पूरन भई घाल ॥१॥ पद्अर्थ: दइआल = दयावान। बिनसे = नाश हो जाते हैं। पूरन = सफल। घाल = (सेवा भक्ति की) मेहनत।1। अर्थ: हे भाई! जब (किसी मनुष्य पर) पूरे सतिगुरु जी दयावान होते हैं (वह मनुष्य हरि-नाम स्मरण करता है, उसकी ये) मेहनत सफल हो जाती है, और उसके सारे दुख नाश हो जाते हैं।1। पेखि पेखि जीवा दरसु तुम्हारा ॥ चरण कमल जाई बलिहारा ॥ तुझ बिनु ठाकुर कवनु हमारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पेखि = देख के। जीवा = मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहूँ। जाई = मैं जाऊँ। बलिहारा = सदके। ठाकुर = हे मालिक!।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! (मेहर कर) तेरे दर्शन सदा कर कर के मुझे आत्मिक जीवन मिलता रहे, मैं तेरे सुंदर चरणों से सदके होता रहूँ।1। रहाउ। साधसंगति सिउ प्रीति बणि आई ॥ पूरब करमि लिखत धुरि पाई ॥२॥ पद्अर्थ: सिउ = साथ। पूरबि करमि = पूबर्लि जन्मों के किए कर्मों के अनुसार। धुरि = धुर दरगाह से।2। अर्थ: हे भाई! पूर्बले जन्मों के किए कर्मों के अनुसार धुर दरगाह से जिस मनुष्य के लिखे लेख उघड़ते हैं, उस मनुष्य का प्यार गुरु की संगति से बन जाता है।2। जपि हरि हरि नामु अचरजु परताप ॥ जालि न साकहि तीने ताप ॥३॥ पद्अर्थ: अचरजु = हैरान करने वाला। परताप = तेज। जालि न साकहि = जला नहीं सकेंगे। तीने ताप = आधि, ब्याधि, उपाधि ये तीन ताप।3। अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा कर, ऐसा हैरान करने वाला आत्मिक तेज प्राप्त होता है कि (आधि-व्याधि-उपाधि, ये) तीनों ही ताप (आत्मिक जीवन को) जला नहीं सकेंगे।3। निमख न बिसरहि हरि चरण तुम्हारे ॥ नानकु मागै दानु पिआरे ॥४॥२५॥३१॥ पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितना समय। हरि = हे हरि! नानकु मागै = नानक माँगता है।4। अर्थ: हे हरि! हे प्यारे! (तेरे दर से तेरा दास) नानक (ये) दान माँगता है कि तेरे चरण (नानक को) आँख झपकने जितने समय के लिए भी ना भूलें।4।25।31। सूही महला ५ ॥ से संजोग करहु मेरे पिआरे ॥ जितु रसना हरि नामु उचारे ॥१॥ पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। संजोग = शुभ लगन। जितु = जिस (अच्छे वक्त) के कारण। रसना = जीभ।1। अर्थ: हे मेरे प्यारे! (मेरे लिए) वह संयोग बना, जिससे (मेरी) जीभ तेरा नाम उचारती रहे।1। सुणि बेनती प्रभ दीन दइआला ॥ साध गावहि गुण सदा रसाला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! गावहि = गाते हैं। रसाला = रस भरे।1। रहाउ। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरी) विनती सुन, (जैसे) संत जन सदा तेरे रस भरे गुण गाते रहते हैुं (वैसे ही मैं भी गाता रहूँ)।1। रहाउ। जीवन रूपु सिमरणु प्रभ तेरा ॥ जिसु क्रिपा करहि बसहि तिसु नेरा ॥२॥ पद्अर्थ: बसहि = तू बसता है। नेरा = नजदीक, हृदय में।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम स्मरणा (हम जीवों के लिए) आत्मिक जीवन के बराबर है। जिस मनुष्य पर तू कृपा करता है, उसके दिल में आ बसता है।2। जन की भूख तेरा नामु अहारु ॥ तूं दाता प्रभ देवणहारु ॥३॥ पद्अर्थ: आहारु = खुराक।3। अर्थ: हे प्रभु! तेरे संत-जनों की (आत्मिक) भूख (दूर करने के लिए) तेरा नाम खुराक है। ये खुराक तू ही देता है, तू ही दे सकता है।3। राम रमत संतन सुखु माना ॥ नानक देवनहार सुजाना ॥४॥२६॥३२॥ पद्अर्थ: रमत = स्मरण करते हुए। सुजाना = समझदार।4। अर्थ: हे नानक! संत-जन उस परमात्मा का नाम स्मरण करके आत्मिक आनंद लेते रहते हैं, जो सब कुछ देने के समर्थ है और जो (हर पहलू से) समझदार है।4।26।32। सूही महला ५ ॥ बहती जात कदे द्रिसटि न धारत ॥ मिथिआ मोह बंधहि नित पारच ॥१॥ पद्अर्थ: बहती जात = (उम्र की नदी) बहती जा रही है। द्रिसटि = निगाह, ध्यान। मिथिआ = नाशवान। पारच = कपड़े, बंधन। मिथिआ मोह पारच = नाशवान पदार्थों के मोह के बंधन। बंधहि = तू बाँधता है।1। अर्थ: हे भाई! (तेरी उम्र की नदी) बहती जा रही है, पर तू इधर ध्यान नहीं करता। तू नाशवान पदार्थों के मोह के बंधन ही सदा बाँधता रहता है।1। माधवे भजु दिन नित रैणी ॥ जनमु पदारथु जीति हरि सरणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: माधवे = (मा+धव = माया का पति) परमात्मा को। भजु = स्मरण करता रह। रैणी = रात। जीति = जीत ले।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! दिन-रात सदा माया के पति प्रभु का नाम जपा कर। प्रभु की शरण पड़ कर कीमती मानव जन्म का फायदा उठा ले।1। रहाउ। करत बिकार दोऊ कर झारत ॥ राम रतनु रिद तिलु नही धारत ॥२॥ पद्अर्थ: दोऊ कर = दोनों हाथ। दोऊ कर झारत = दोनों हाथ झाड़ के, दोनों हाथ धो के, अगला पिछला सोचे बिना। रिद = हृदय में। तिलु = रक्ती भर समय के लिए भी।2। अर्थ: हे भाई! तू हानि-लाभ विचारे बिना ही विकार किए जा रहा है परमात्मा का रत्न (जैसा कीमती) नाम अपने दिल में तू एक पल के लिए भी नहीं टिकाता।2। भरण पोखण संगि अउध बिहाणी ॥ जै जगदीस की गति नही जाणी ॥३॥ पद्अर्थ: भरण पोखण = पालन पोषण। संगि = साथ। अउध = उम्र। जै जगदीस = जगत के ईश (मालिक) की जै हो, परमात्मा की महिमा। गति = आत्मिक अवस्था, आत्मिक आनंद की अवस्था।3। अर्थ: हे भाई! (अपना शरीर) पालने-पोसने में ही तेरी उम्र बीतती जा रही है। परमात्मा की महिमा के आनंद की अवस्था तू (अब तक) समझी ही नहीं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |