श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सभे इछा पूरीआ जा पाइआ अगम अपारा ॥ गुरु नानकु मिलिआ पारब्रहमु तेरिआ चरणा कउ बलिहारा ॥४॥१॥४७॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। कउ = को, से।4।

अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे बेअंत प्रभु! जब (किसी अति भाग्यशाली को) तू मिल जाता है, उसकी सारी ही मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं (उसे कोई कमी नहीं रह जाती, उसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है)। हे प्रभु! मैं तेरे चरणों से सदके जाता हूँ। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु मिल गया, उसको परमात्मा मिल गया।4।1।47।

रागु सूही महला ५ घरु ७    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तेरा भाणा तूहै मनाइहि जिस नो होहि दइआला ॥ साई भगति जो तुधु भावै तूं सरब जीआ प्रतिपाला ॥१॥

पद्अर्थ: तूं है = तू स्वयं ही है। भाणा...मनाइहि = तू रजा में चलाता है। होहि = तू होता है। दइआला = दयावान। साई = वही। तुधु भावै = तुझे पसंद आती है।1।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य पर तू दयावान होता है तू स्वयं ही उसको अपनी रजा में चलाता है। असल भक्ति वही है जो तुझे पसंद आ जाती है। हे प्रभु! तू सारे जीवों की पालना करने वाला है।1।

मेरे राम राइ संता टेक तुम्हारी ॥ जो तुधु भावै सो परवाणु मनि तनि तूहै अधारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रामराइ = रामराय, हे प्रभु पातशाह! टेक = आसरा। परवाणु = स्वीकार। मनि = मन में। अधारी = आसरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! तेरे संतों को (सदा) तेरा ही आसरा रहता है। जो कुछ तुझे अच्छा लगता है वही (तेरे संतों को) स्वीकार होता है। उनके मन में, उनके तन में, तू ही आसरा है।1। रहाउ।

तूं दइआलु क्रिपालु क्रिपा निधि मनसा पूरणहारा ॥ भगत तेरे सभि प्राणपति प्रीतम तूं भगतन का पिआरा ॥२॥

पद्अर्थ: क्रिपानिधि = कृपा का खजाना। मनसा = मनीषा, मन की कामना। भगत = (‘भगति’ और ‘भगत’ में फर्क याद रखें)। सभि = सारे। प्राणपति = हे जिंद के मालिक! 2।

अर्थ: हे प्रभु! तू दया का घर है, तू कृपा का खजाना है, तू (अपने भक्तों की) मनोकामनाएं पूरी करने वाला है। हे जिंद के मालिक! हे प्रीतम प्रभु! तेरे सारे भक्त (तुझे प्यारे लगते हैं), तू भक्तों को प्यारा लगता है।2।

तू अथाहु अपारु अति ऊचा कोई अवरु न तेरी भाते ॥ इह अरदासि हमारी सुआमी विसरु नाही सुखदाते ॥३॥

पद्अर्थ: अथाहु = जिसका थाह ना पड़ सके। अपारु = जिसका परला छोर ना मिल सके। तेरी भाते = तेरी भांति का, तेरे जैसे। सुआमी = हे स्वामी! सुख दाते = हे सुख देने वाले!।3।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दिल की) गहराई नहीं पाई जा सकती, तेरी हस्ती का परला छोर नहीं पाया जा सकता, तू बहुत ही ऊँचा है, कोई और तेरे जैसा नहीं है। हे मालिक! हे सुखों के देने वाले! हम जीवों की (तेरे आगे) यही आरजू है, कि हमें तू कभी भी ना भूल।3।

दिनु रैणि सासि सासि गुण गावा जे सुआमी तुधु भावा ॥ नामु तेरा सुखु नानकु मागै साहिब तुठै पावा ॥४॥१॥४८॥

पद्अर्थ: रैणि = रात। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। गावा = गाऊँ। तुठै = अगर प्रसन्न हो जाए। पावा = मैं हासिल करूँ।4।

अर्थ: हे स्वामी! अगर मैं तुझे अच्छा लगूँ (यदि तेरी मेरे पर मेहर हो) मैं दिन-रात हरेक सांस के साथ तेरे गुण गाता रहूँ। (तेरा दास) नानक (तुझसे) तेरा नाम माँगता है (यही नानक के लिए) सुख (है)। हे मेरे साहिब! यदि तू दयावान हो, तो मुझे ये दाति मिल जाए।4।1।48।

सूही महला ५ ॥ विसरहि नाही जितु तू कबहू सो थानु तेरा केहा ॥ आठ पहर जितु तुधु धिआई निरमल होवै देहा ॥१॥

पद्अर्थ: जितु = जहाँ, जिस जगह पर। कबहू = कभी भी। केहा = बड़ा आश्चर्यजनक। तुधु = तुझे। धिआई = ध्यान धरूँ। देहा = शरीर।1।

अर्थ: हे मेरे राम! तेरा वह (साधु-संगत) स्थान बड़ा ही आश्चर्यजनक है, जिसमें बैठ के तू कभी भी ना भूले, जिसमें बैठ के मैं तुझे आठों पहर याद कर सकूँ, और, मेरा शरीर पवित्र हो जाए।1।

मेरे राम हउ सो थानु भालण आइआ ॥ खोजत खोजत भइआ साधसंगु तिन्ह सरणाई पाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। खोजत = तलाशते हुए। साध संगु = गुरमुखों का मेल। तिन्ह सरणाई = उनकी शरण में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे राम! मैं वह जगह तलाशने चल पड़ा (जहाँ मैं तेरे दर्शन कर सकूँ)। ढूँढते ढूँढते मुझे गुरमुखों का साथ मिल गया, उन (गुरमुखों) की शरण पड़ कर तुझे मैंने (तुझे भी) पा लिया।1। रहाउ।

बेद पड़े पड़ि ब्रहमे हारे इकु तिलु नही कीमति पाई ॥ साधिक सिध फिरहि बिललाते ते भी मोहे माई ॥२॥

पद्अर्थ: पढ़े पढ़ि = पढ़ पढ़ के। ब्रहमे = ब्रहमा जैसे अनेक। तिलु = रक्ती भर। साधिक = साधना करने वाले। सिध = साधना में सिद्ध योगी, करामाती योगी। ते भी = वो भी (बहुवचन)। माई = माया।2।

अर्थ: हे मेरे राम! ब्रहमा जैसे अनेक वेद (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के थक गए, पर वे तेरी रक्ती भर भी कद्र ना समझ सके। साधना करने वाले जोगी, करामाती जोगी (तेरे दर्शनों को) बिलकते फिरते हैं, पर वे भी माया के मोह में फंसे रहे।2।

दस अउतार राजे होइ वरते महादेव अउधूता ॥ तिन्ह भी अंतु न पाइओ तेरा लाइ थके बिभूता ॥३॥

पद्अर्थ: दस अउतार = (सतियुग के अवतार: मच्छ, कच्छ, वराह, नरसिंह, वामन। त्रेते के अवतार: परुषराम, रामचंद्र। द्वापर का अवतार: कृष्ण। कलियुग के अवतार: बुद्ध, कलकी)। राजे = पूजनीय। महादेव = शिव। अवधूता = त्यागी। बिभूता = राख।3।

अर्थ: हे मेरे राम! (विष्णु के) दस अवतार (अपने-अपने युग में) आदर प्राप्त करते रहे। शिव जी बड़ा त्यागी प्रसिद्ध हुआ। पर वे भी तेरे गुणों का अंत ना पा सके। (शिव आदि अनेक अपने शरीर पर) राख मल-मल के थक गए।3।

सहज सूख आनंद नाम रस हरि संती मंगलु गाइआ ॥ सफल दरसनु भेटिओ गुर नानक ता मनि तनि हरि हरि धिआइआ ॥४॥२॥४९॥

पद्अर्थ: सहज = अडोल अवस्था। संती = संतों ने। मंगलु = महिमा के गीत। सफल दरसनु = जिसके दर्शन फलदायक हों। भेटिआ = मिला। मनि = मन में। तनि = हृदय में।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) जिस संत-जनों ने परमात्मा की महिमा के गीत सदा गाए, उन्होंने ही आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद हासिल किए, उन्होंने नाम का रस चखा। जब उन्हें वह गुरु मिल गया, जिसका दर्शन जीवन का उद्देश्य पूरा कर देता है, तब उन्होंने अपने मन में अपने दिल में परमात्मा का ध्यान आरम्भ कर दिया।4।2।49।

सूही महला ५ ॥ करम धरम पाखंड जो दीसहि तिन जमु जागाती लूटै ॥ निरबाण कीरतनु गावहु करते का निमख सिमरत जितु छूटै ॥१॥

पद्अर्थ: करम धरम = (तीर्थ स्नान आदि निहित) धार्मिक कर्म। पाखंड = दिखावे के काम। तिन = उनको। जागाती = मसूलिया। निरबाण = निर्वाण, वासना रहित हो के। करते का = कर्तार का। निमख = आँख झपकने जितना समय। जितु = जिससे, जिस (कीर्तन) से। छूटै = (मनुष्य विकारों से) बच जाता है।1।

अर्थ: हे भाई! (तीर्थ-स्नान आदि निहित) धार्मिक काम दिखावे के काम हैं, ये काम जितने भी लोग करते हुए दिखाई देते हैं, उन्हें मसूलिया जम लूट लेता है। (इस वास्ते) वासना-रहित हो के कर्तार की महिमा किया करो, क्योंकि इसकी इनायत से छिन भर भी नाम स्मरण करने मात्र से मनुष्य विकारों से खलासी पा लेता है।1।

संतहु सागरु पारि उतरीऐ ॥ जे को बचनु कमावै संतन का सो गुर परसादी तरीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सागरु = (संसार) समुंदर। उतरीऐ = लांघा जाता है। को = कोई मनुष्य। परसादी = कृपा से।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनों! (महिमा की इनायत से) संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है। अगर कोई मनुष्य संत जनों के उपदेश को (जीवन में) कमा ले, वह मनुष्य गुरु की कृपा से पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

कोटि तीरथ मजन इसनाना इसु कलि महि मैलु भरीजै ॥ साधसंगि जो हरि गुण गावै सो निरमलु करि लीजै ॥२॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मजन = स्नान। कलि महि = जगत में।

(नोट: यहां किसी खास युग का वर्णन नहीं किया जा रहा)।

संगि = संगति में। करि लीजै = कर लिया जाता है।2।

अर्थ: हे भाई! करोड़ों तीर्थ-स्नान (करते हुए भी) जगत में (विकारों की) मैल लिबड़ जाती है। पर जो मनुष्य गुरु की संगति में (टिक के) परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है, वह पवित्र जीवन वाला बन जाता है।2।

बेद कतेब सिम्रिति सभि सासत इन्ह पड़िआ मुकति न होई ॥ एकु अखरु जो गुरमुखि जापै तिस की निरमल सोई ॥३॥

पद्अर्थ: कतेब = पश्चिमी मतों की धर्म पुस्तकें (कुरान, अंजील, जंबूर, तौरेत)। सभि = सारे। पढ़िआ = सिर्फ पढ़ने से। मुकति = विकारों से खलासी। अखरु = अक्षर, ना रहित, अबिनाशी प्रभु। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सोई = शोभा।3।

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि ये सारे (हिन्दू धर्म पुस्तकें) (कुरान-अंजील आदि) ये सारे (पश्चिमी धर्म की पुस्तकें) आदि को सिर्फ पढ़ने मात्र से विकारों से निजात नहीं मिलती। पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर अबिनाशी प्रभु का नाम जपता है, उसकी (लोक-परलोक में) पवित्र शोभा बन जाती है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh