श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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खत्री ब्राहमण सूद वैस उपदेसु चहु वरना कउ साझा ॥ गुरमुखि नामु जपै उधरै सो कलि महि घटि घटि नानक माझा ॥४॥३॥५०॥

पद्अर्थ: उधरै = (विकारों से) बच जाता है। कलि महि = जगत में। घटि घटि = हरेक शरीर में। माझा = में।4।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम स्मरण करने का) उपदेश खत्री-ब्राहमण-वैश-शूद्र चारों वर्णों के लोगों के वास्ते एक जैसा ही है। (किसी भी वर्ण का हो) जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के प्रभु का नाम जपता है वह जगत में विकारों से बच निकलता है। हे नानक! उस मनुष्य को परमात्मा हरेक शरीर में बसा हुआ दिखाई देता है।4।3।50।

सूही महला ५ ॥ जो किछु करै सोई प्रभ मानहि ओइ राम नाम रंगि राते ॥ तिन्ह की सोभा सभनी थाई जिन्ह प्रभ के चरण पराते ॥१॥

पद्अर्थ: करै = (परमात्मा) करता है। प्रभ मानहि = प्रभु का किया मानते हैं। ओइ = वे (संत जन)। रंगि = रंग में। राते = रंगे हुए। थाई = जगहों में। पराते = पहचाने, सांझ डाल ली।1।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! वे संत जन परमात्मा के नाम-रंग में रंगे रहते हैं। जो कुछ परमात्मा करता है, उसको वे परमात्मा का किया हुआ ही मानते हैं। हे भाई! जिन्होंने परमात्मा के चरणों के साथ सांझ डाल ली, उनकी महिमा सब जगहों में (फैल जाती है)।1।

मेरे राम हरि संता जेवडु न कोई ॥ भगता बणि आई प्रभ अपने सिउ जलि थलि महीअलि सोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जेवडु = जितना, बराबर का। सिउ = साथ। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! तेरे संतों के बराबर का और कोई नहीं है। हे भाई! संत जनों की परमात्मा के साथ गहरी प्रीति बनी रहती है, उन्हें परमात्मा पानी में, धरती में, आकाश में हर जगह बसता दिखाई देता है।1। रहाउ।

कोटि अप्राधी संतसंगि उधरै जमु ता कै नेड़ि न आवै ॥ जनम जनम का बिछुड़िआ होवै तिन्ह हरि सिउ आणि मिलावै ॥२॥

पद्अर्थ: कोटि अप्राधी = करोड़ों पाप करने वाला। संगि = संगति में। उभरै = विकारों से बचा जाता है। कै नेड़ि = के नजदीक। सिउ = साथ। आणि = ला के।2।

अर्थ: हे भाई! करोड़ों अपराध करने वाले मनुष्य भी संतों की संगति में (टिक के) विकारों से बच जाते हैं, (फिर) जम उसके नजदीक नहीं आता। अगर कोई मनुष्य अनेक जन्मों से परमात्मा से विछुड़ा रहे - संत ऐसे अनेक मनुष्यों को ला के परमात्मा से मिला देता है।2।

माइआ मोह भरमु भउ काटै संत सरणि जो आवै ॥ जेहा मनोरथु करि आराधे सो संतन ते पावै ॥३॥

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। करि = कर के, धार के। ते = से।3।

अर्थ: हे भाई! जो भी मनुष्य संत की शरण आ पड़ता है, संत उसके अंदर से माया का मोह, भटकना, डर दूर कर देता है। मनुष्य जिस तरह की वासना धार के प्रभु का स्मरण करता है वह वही फल संत जनों से प्राप्त कर लेता है।3।

जन की महिमा केतक बरनउ जो प्रभ अपने भाणे ॥ कहु नानक जिन सतिगुरु भेटिआ से सभ ते भए निकाणे ॥४॥४॥५१॥

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। केतक = कितनी। बरनउ = मैं बयान करूँ। भाणे = अच्छे लगे। सभ ते = सारी दुनिया से। निकाणे = बेमुहताज।4।

अर्थ: हे भाई! जो सेवक अपने प्रभु को प्यारे लग चुके हैं, मैं उनकी कितनी महिमा बयान करूँ? हे नानक! कह: जिस मनुष्यों को गुरु मिल गया, वे सारी दुनिया से बे-मुहताज हो गए।4।4।51।

सूही महला ५ ॥ महा अगनि ते तुधु हाथ दे राखे पए तेरी सरणाई ॥ तेरा माणु ताणु रिद अंतरि होर दूजी आस चुकाई ॥१॥

पद्अर्थ: महा अगनि ते = (तृष्णा की) बड़ी आग से। तुधु = तू। दे = दे कर। ताणु = बल, ताकत। रिद = हृदय। चुकाई = दूर कर दी।1।

अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़े, तूने उन्हें अपना हाथ दे के (तृष्णा की) बड़ी आग में से बचा लिया। उन्होंने किसी और से मदद की आस अपने दिल से खत्म कर दी, उनके हृदय में तेरा ही माण तेरा ही आसरा बना रहता है।1।

मेरे राम राइ तुधु चिति आइऐ उबरे ॥ तेरी टेक भरवासा तुम्हरा जपि नामु तुम्हारा उधरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम राइ = हे प्रभु पातशाह! तुधु चिति आईऐ = यदि तू चिक्त में आ बसे। उबरे = डूबने से बच गए। टेक = आसरा। उधरे = विकारों से बच गए।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! अगर तू (जीवों के) चिक्त में आ बसे, तो वह (संसार-समुंदर में) डूबने से बच जाते हैं। वह मनुष्य तेरा नाम जप के विकारों से खलासी पा लेते हैं, उनको (हर बात के लिए) तेरा ही आसरा तेरी सहायता का भरोसा बना रहता है।1। रहाउ।

अंध कूप ते काढि लीए तुम्ह आपि भए किरपाला ॥ सारि सम्हालि सरब सुख दीए आपि करे प्रतिपाला ॥२॥

पद्अर्थ: अंध कूप ते = अंधेरे कूएँ में से। ते = से। सारि = सार ले के। समालि = संभाल कर के।2।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों पर तू खुद दयावान हो गया, तूने उनको (माया के मोह के) अंधेरे कूएँ में से निकाल लिया, तूने उनकी सार ले के, उनकी संभाल करके उन्हें सारे सुख बख्शे। हे भाई! प्रभु खुद ही उनकी पालना करता है।2।

आपणी नदरि करे परमेसरु बंधन काटि छडाए ॥ आपणी भगति प्रभि आपि कराई आपे सेवा लाए ॥३॥

पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह। काटि = काट के। प्रभि = प्रभु ने।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है, उनके (मोह के) बंधन काट के उनकों विकारों से छुड़वा लेता है। उनको खुद ही अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ लेता है। हे भाई! प्रभु ने उनसे अपनी भक्ति खुद ही करवा ली।3।

भरमु गइआ भै मोह बिनासे मिटिआ सगल विसूरा ॥ नानक दइआ करी सुखदातै भेटिआ सतिगुरु पूरा ॥४॥५॥५२॥

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। भै = डर। विसूरा = झोरा, चिन्ता। सुखदाते = सुखों के दाते ने। भेटिआ = मिल गया।4।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे नानक! सुख देने वाले प्रभु ने जिस पर दया की उन्हें पूरा गुरु मिल गया, (उनके अंदर से) भटकना दूर हो गई, उनके अंदर से मोह और अन्य सारे डर नाश हो गए, उनकी सारी चिन्ता-फिक्र समाप्त हो गई।4।5।52।

सूही महला ५ ॥ जब कछु न सीओ तब किआ करता कवन करम करि आइआ ॥ अपना खेलु आपि करि देखै ठाकुरि रचनु रचाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: कछु = (जगत का) कुछ भी। सीओ = था। करि = कर के। आइआ = (अब) जन्मा है। खेलु = तमाशा। ठाकुरि = ठाकुर ने।1।

अर्थ: हे भाई! जब अभी संसार ही नहीं था (ये जीव भी नहीं थे, तब) ये जीव क्या करता था? और, कौन-कौन से कर्म करके ये अस्तित्व में आया है (दरअसल बात ये है कि) परमात्मा ने खुद ही जगत-रचना रची है, वह खुद ही अपना ये जगत-तमाशा रच के खुद ही इस जगत-तमाशे को देख रहा है।1।

मेरे राम राइ मुझ ते कछू न होई ॥ आपे करता आपि कराए सरब निरंतरि सोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम राइ = हे प्रभु पातशाह! मुझ ते = मुझसे। आपो = आप ही। सरब निरंतरि = सबके अंदर एक रस। सोई = वह परमात्मा ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रभु-पातशाह! (तेरी प्रेरणा सहायता के बिना) मुझसे कोई काम नहीं हो सकता। हे भाई! वह परमात्मा ही सारे जीवों में एक-रस व्यापक है, वह खुद ही (जीवों में बैठ के) सब कुछ करता है, वह खुद ही (जीवों से सब कुछ) करवाता है।1। रहाउ।

गणती गणी न छूटै कतहू काची देह इआणी ॥ क्रिपा करहु प्रभ करणैहारे तेरी बखस निराली ॥२॥

पद्अर्थ: गणती गणी = लेखा गिना। कत हू = किसी भी तरह। काची = नाशवान। प्रभ = हे प्रभु! करणैहारै = हे सब कुछ करने में समर्थ! निराली = अनोखी, अलग किस्म की।2।

अर्थ: हे प्रभु! ये जीव अंजान अक्ल वाला और नाशवान शरीर वाला है। अगर इसके किए कर्मों का लेखा गिना गया, तो ये किसी भी तरह आजाद नहीं हो सकता। हे सब कुछ कर सकने के समर्थ प्रभु! तू खुद ही मेहर कर (और बख्श ले)। तेरी कृपा अलग ही किस्म की है।2।

जीअ जंत सभ तेरे कीते घटि घटि तुही धिआईऐ ॥ तेरी गति मिति तूहै जाणहि कुदरति कीम न पाईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: कीते = पैदा किए हुए। घटि घटि = हरेक शरीर में। गति = आत्मिक अवस्था। मिति = माप, मर्यादा। तेरी गति मिति = तेरी आत्मिक अवस्था और तेरी हस्ती की सीमा। कीम = कीमत।3।

अर्थ: हे प्रभु! (जगत के) सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, हरेक शरीर में तेरा ही ध्यान धरा जा रहा है। तू कैसा है, तू कितना बड़ा है; ये भेद तू खुद ही जानता है। तेरी कुदरति का मूल्य नहीं डाला जा सकता।3।

निरगुणु मुगधु अजाणु अगिआनी करम धरम नही जाणा ॥ दइआ करहु नानकु गुण गावै मिठा लगै तेरा भाणा ॥४॥६॥५३॥

पद्अर्थ: निरगुणु = गुण हीन। मुगधु = मूर्ख। अजाणु = बेसमझ। अगिआनी = आत्मिक जीवन से बेसमझ। भाणा = रजा।4।

अर्थ: हे प्रभु! मैं गुणहीन हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं बेसमझ हूँ, मुझे आत्मिक जीवन की सूझ नहीं, मैं कोई किए जाने वाले धार्मिक कर्म भी नहीं जानता (जिनसे मैं तुझे खुश कर सकूँ)। हे प्रभु! मेहर कर, (तेरा दास) नानक तेरे गुण गाता रहे, और (नानक को) तेरी रजा मिठी लगती रहे।4।6।53।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh