श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 750 जो तेरै रंगि राते सुआमी तिन्ह का जनम मरण दुखु नासा ॥ तेरी बखस न मेटै कोई सतिगुर का दिलासा ॥२॥ पद्अर्थ: तेरै रंगि = तेरे प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। नासा = दूर हो जाता है। बखस = बख्शिश, कृपा। दिलासा = तसल्ली, भरोसा।2। अर्थ: हे मेरे मालिक! जो मनुष्य तेरे प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, उनके पैदा होने-मरने (के चक्रों) के दुख दूर हो जाते हैं, उन्हें गुरु द्वारा (दिया हुआ ये) भरोसा (हमेशा याद रहता है कि उनके ऊपर हुई) तेरी कृपा को कोई मिटा नहीं सकता।2। नामु धिआइनि सुख फल पाइनि आठ पहर आराधहि ॥ तेरी सरणि तेरै भरवासै पंच दुसट लै साधहि ॥३॥ पद्अर्थ: धिआइनि = ध्याते हैं। पाइनि = पाते हैं। आराधहि = आराधना करते हैं। भरवासे = आसरे से। पंच दुसट = कामादिक पाँच वैरी। लै = पकड़ के। साधहि = बस में कर लेते हैं।3। अर्थ: हे प्रभु! (तेरे संत तेरा) नाम स्मरण करते रहते हैं, आत्मिक आनंद भोगते रहते हैं, आठों पहर तेरी आराधना करते हैं। तेरी शरण में आ के, तेरे आसरे रह के वह (कामादिक) पाँचों वैरियों को पकड़ कर बस में कर लेते हैं।3। गिआनु धिआनु किछु करमु न जाणा सार न जाणा तेरी ॥ सभ ते वडा सतिगुरु नानकु जिनि कल राखी मेरी ॥४॥१०॥५७॥ पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = तवज्जो जोड़ने की विधि। न जाणा = नहीं था जानता। सार = कद्र। जिनि = जिस (गुरु) ने। कल = इज्जत, सत्कार।4। अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! मैं (भी) तेरी (कृपा की) कद्र नहीं था जानता, मुझे आत्मिक जीवन की समझ नहीं थी, तेरे चरणों में तवज्जो टिकानी भी नहीं जानता था, किसी अन्य धार्मिक कर्म की भी मुझे सूझ नहीं थी। पर (तेरी मेहर से) मुझे सबसे बड़ा गुरु नानक मिल गया, जिसने मेरी इज्जत रख ली (और मुझे तेरे चरणों में जोड़ दिया)।4।10।57। सूही महला ५ ॥ सगल तिआगि गुर सरणी आइआ राखहु राखनहारे ॥ जितु तू लावहि तितु हम लागह किआ एहि जंत विचारे ॥१॥ पद्अर्थ: सगल = सारे (आसरे)। तिआगि = छोड़ के। राखणहारे = हे रक्षा की सामर्थ्य वाले! जितु = जिस (काम) में। तिसु = उस (काम) में। हम लागह = हम (जीव) लग पड़ते हैं। एहि = यह, वे।1। नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन। अर्थ: हे रक्षा करने के समर्थ प्रभु! मेरी रखा कर। मैं सारे (आसरे) छोड़ के गुरु की शरण आ पड़ा हूँ। हे प्रभु! इन जीव विचारों की क्या बिसात है? तू जिस काम में हम जीवों को लगा लेता है, हम उस काम में लग पड़ते हैं।1। मेरे राम जी तूं प्रभ अंतरजामी ॥ करि किरपा गुरदेव दइआला गुण गावा नित सुआमी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हे दिल की जानने वाला! गुरदेव = हे गुरदेव! गावा = गाऊँ।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम जी! हे मेरे प्रभु! तू (मेरे) दिल की जानने वाला है। हे दया के घर गुरदेव! ळे स्वामी! मेहर कर, मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ।1। रहाउ। आठ पहर प्रभु अपना धिआईऐ गुर प्रसादि भउ तरीऐ ॥ आपु तिआगि होईऐ सभ रेणा जीवतिआ इउ मरीऐ ॥२॥ पद्अर्थ: धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। प्रसादि = कृपा से। भउ = भव सागर, संसार समुंदर। तरीऐ = पार लांघ सकते हैं। आपु = स्वै भाव। रेणा = चरणधूल। इउ = इस तरह। जीवतिआ मरीऐ = दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए निर्मोह रहा जाता है।2। अर्थ: हे भाई! आठों पहर अपने मालिक प्रभु का ध्यान धरना चाहिए, (इस तरह) गुरु की कृपा से संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है। हे भाई! स्वै भाव छोड़ के गुरु के चरणों की धूल बन जाना चाहिए, इस तरह दुनिया कें कार्य-व्यवहार करते हुए ही निर्मोही हो जाना चाहिए।2। सफल जनमु तिस का जग भीतरि साधसंगि नाउ जापे ॥ सगल मनोरथ तिस के पूरन जिसु दइआ करे प्रभु आपे ॥३॥ पद्अर्थ: सफल = कामयाब। भीतरि = में। संगि = संगति में। जापु = जपता है। मनोरथ = मुरादें। आपे = खुद ही।3। नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में रह के परमात्मा का नाम जपता है, जगत में उसका जीवन कामयाब हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा आप ही कृपा करता है, उसकी सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं।3। दीन दइआल क्रिपाल प्रभ सुआमी तेरी सरणि दइआला ॥ करि किरपा अपना नामु दीजै नानक साध रवाला ॥४॥११॥५८॥ पद्अर्थ: प्रभ = प्रभु! करि = करके। दीजै = दे। साध रवाला = गुरु के चरणों की धूल।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे दीनों पर दया करने वाले! हे कृपालू! हे मालिक प्रभु! हे दया के श्रोत! मैं तेरी शरण आया हूँ! मेहर कर, मुझे अपना नाम बख्श, गुरु के चरणों की धूल दे।4।11।58। रागु सूही असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभि अवगण मै गुणु नही कोई ॥ किउ करि कंत मिलावा होई ॥१॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। मै = मेरे अंदर। कंत मिलावा = कंत का मिलाप।1। अर्थ: मेरे अंदर सारे अवगुण ही हैं, एक भी गुण नहीं, (इस हालत में) मुझे पति-प्रभु का मिलाप कैसे हो सकता है?।1। ना मै रूपु न बंके नैणा ॥ ना कुल ढंगु न मीठे बैणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मै = मेरा। बंके = बाँके, सुंदर। नैणा = आँखें, नेत्र। कुल ढंगु = उच्च कुल वाला तौर तरीका। बैणा = बोल।1। रहाउ। अर्थ: ना मेरी (सुंदर) सूरति है, ना मेरी आँखें सुंदर हैं, ना ही उच्च कुल वालों की तरह मेरे तौर-तरीके (रहन-सहन) है, ना ही मेरी बोली मीठी है (फिर मैं कैसे पति-प्रभु को खुश कर सकूँगी?)।1। रहाउ। सहजि सीगार कामणि करि आवै ॥ ता सोहागणि जा कंतै भावै ॥२॥ पद्अर्थ: सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। कामणि = स्त्री, जीव-स्त्री। करि = कर के। सोहागणि = सौभाग्यवती। जा = जब।2। अर्थ: जो जीव-स्त्री अडोल आत्मिक अवस्था में (टिकती है, और ये) हार-श्रृंगार करके (प्रभु-पति के दर पर) आती है (वह पति-प्रभु को अच्छी लगती है, और) तब ही जीव-स्त्री सौभाग्यवती है जब वह कंत-प्रभु को पसंद आती है।2। ना तिसु रूपु न रेखिआ काई ॥ अंति न साहिबु सिमरिआ जाई ॥३॥ पद्अर्थ: तिसु = उस (प्रभु कंत) का। रेखिआ = चिन्ह। काई = कोई। अंति = अंत के समय, दुनिया छोड़ने के वक्त।3। अर्थ: उस पति-प्रभु की (इन आँखों से दिखाई देने वाली कोई) सूरति नहीं है उसका कोई चिन्ह भी नहीं है (जिसको देख सकें, और उसका स्मरण कर सकें। पर अगर सारी उम्र उसे बिसारे ही रखा, तो) अंत के समय वह मालिक स्मरण किया नहीं जा सकता।3। सुरति मति नाही चतुराई ॥ करि किरपा प्रभ लावहु पाई ॥४॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पाई = चरणों में।4। अर्थ: हे प्रभु! (मेरी ऊँची) सूझ नहीं, (मेरे में कोई) अक्ल नहीं (कोई) समझदारी नहीं। (तू स्वयं ही) मेहर कर के मुझे अपने चरणों से लगा ले।4। खरी सिआणी कंत न भाणी ॥ माइआ लागी भरमि भुलाणी ॥५॥ पद्अर्थ: खरी = बहुत। कंत न भाणी = कंत को पसंद ना आई।5। अर्थ: जो जीव-स्त्री माया (के मोह) में फसी रहे, भटकना में पड़ कर जीवन-राह से भटकी रहे, वह (दुनिया के कार्य-व्यवहार में भले ही) बहुत समझदार (भी हो, पर) वह कंत-प्रभु को अच्छी नहीं लगती।5। हउमै जाई ता कंत समाई ॥ तउ कामणि पिआरे नव निधि पाई ॥६॥ पद्अर्थ: जाई = जाए, दूर हो। कंत = हे कंत! तउ = तब। पिआरे = हे प्यारे! नउनिधि = नौ खजाने।6। अर्थ: हे कंत प्रभु! जब अहंकार दूर हो तब ही (तेरे चरणों में) लीन हुआ जा सकता है, तब ही, हे प्यारी! जीव-स्त्री तू, नौ-खजाने के श्रोत को मिल सकती है।6। अनिक जनम बिछुरत दुखु पाइआ ॥ करु गहि लेहु प्रीतम प्रभ राइआ ॥७॥ पद्अर्थ: करु = हाथ। गहि लेहु = पकड़ लो।7। अर्थ: हे प्रभु राय! हे प्रीतम! तुझसे विछुड़ के अनेक जूनियों में भटक-भटक के मैंने दुख सहा है, अब तू मेरा हाथ पकड़ ले।7। भणति नानकु सहु है भी होसी ॥ जै भावै पिआरा तै रावेसी ॥८॥१॥ पद्अर्थ: भणति = विनती करता है। होसी = (सदा) रहेगा। जै भावै = जो उसे अच्छा लगे, जो जीव-स्त्री उसे अच्छी लगती है। ते = उस को।8। अर्थ: नानक विनती करता है: पति-प्रभु (सचमुच मौजूद) है, सदा ही रहेगा। जो जीव-स्त्री उसको भाती है (प्रभु) उसे अपने साथ मिला लेता है।8।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |