श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला १ घरु ९    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

कचा रंगु कसु्मभ का थोड़ड़िआ दिन चारि जीउ ॥ विणु नावै भ्रमि भुलीआ ठगि मुठी कूड़िआरि जीउ ॥ सचे सेती रतिआ जनमु न दूजी वार जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: भ्रमि = भटकना में (पड़ कर)। ठगि = ठगी (जाती है। मुठी = लूटी (जाती है।) कूड़िआरि = झूठ की व्यापरिन (जीव-स्त्री)। सेती = साथ।1।

अर्थ: (जीव माया की खूबसूरती को देख के फूलता है, पर इस माया का साथ कुसंभ के रंग जैसा ही है) कुसंभ के फूल का रंग कच्चा होता है, थोड़े समय ही रहता है, चार दिन ही टिकता है। माया की व्यापारिन जीव-स्त्री प्रभु-नाम से टूट के (माया-कुसंभ के) भुलेखे में गलत राह पर पड़ जाती है, ठगी जाती है, और इसके आत्मिक जीवन (की पूंजी) लुट जाती है। हे भाई! अगर सदा-स्थिर प्रभु के प्यार-रंग में रंगे जाएं, तो दोबारा बार-बार जन्म (के चक्कर) समाप्त हो जाते हैं।1।

रंगे का किआ रंगीऐ जो रते रंगु लाइ जीउ ॥ रंगण वाला सेवीऐ सचे सिउ चितु लाइ जीउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किआ रंगीऐ = किसी और रंग की आवश्यक्ता नहीं रहती। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभु से।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो लोग परमात्मा का प्रेम रंग लगा के रंगे जाते हैं उनके रंगे हुए मन को किसी और रंग की आवश्यक्ता नहीं रह जाती (नाम के रंगे हुए को) किसी और कर्म-सुहज की अधीनता नहीं रहती। (पर ये नाम-रंग परमात्मा खुद ही देता है, सो) उस सदा-स्थिर रहने वाले को और (जीवों के मन को अपने प्रेम-रंग से) रंगने वाले प्रभु को चिक्त लगा के स्मरणा चाहिए।1। रहाउ।

चारे कुंडा जे भवहि बिनु भागा धनु नाहि जीउ ॥ अवगणि मुठी जे फिरहि बधिक थाइ न पाहि जीउ ॥ गुरि राखे से उबरे सबदि रते मन माहि जीउ ॥२॥

पद्अर्थ: कुंडा = तरफ, कूंटों में। भवहि = तू भटकता है। धनु = नाम धन। बधिक = शिकारी। थाइ न पाहि = तू जगह नहीं पाएगी, तू स्वीकार नहीं होगी। गुरि = गुरु ने। उबरे = बचे गए।2।

अर्थ: हे जीवात्मा! अगर तू चारों कुंटों में तलाशती फिरे तो भी सौभाग्य के बिना नाम-धन नहीं मिलता। अगर अवगुणों ने तेरे मन को ठग लिया है, और यदि इस आत्मिक अवस्था में तू (तीर्थ आदि पर भी) फिरती रहे, तो भी शिकारी की तरह बाहर झुकने की तरह तू (अपने इन उद्यमों से) स्वीकार नहीं होगी। जिनकी गुरु ने रक्षा की, जो गुरु के शब्द की इनायत से मन में प्रभु-नाम से रंगे गए हैं, वही (माया के मोह व विकारों से) बचते हैं।2।

चिटे जिन के कपड़े मैले चित कठोर जीउ ॥ तिन मुखि नामु न ऊपजै दूजै विआपे चोर जीउ ॥ मूलु न बूझहि आपणा से पसूआ से ढोर जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: कठोर = सख्त, निर्दयी। दूजै विआपै = माया के मोह में दबे हुए, प्रभु के बिना किसी और में फंसे हुए। ढोर = पशु, महामूर्ख।3।

अर्थ: (बगुले देखने में तो सफेद हैं, तीर्थों पर निवास भी करते हैं, पर समाधि लगा के पकड़ते मछलियाँ ही हैं, वैसे ही) जिनके कपड़े तो सफेद हैं पर मन मैले हैं और निर्दयी हैं उनके मुँह से (कहने पर मन में) प्रभु का नाम प्रकट नहीं होता वे (बाहर से साधु दिखते हैं पर असल में वे) चोर हैं, वे माया के मोह में फंसे हुए हैं।3।

नित नित खुसीआ मनु करे नित नित मंगै सुख जीउ ॥ करता चिति न आवई फिरि फिरि लगहि दुख जीउ ॥ सुख दुख दाता मनि वसै तितु तनि कैसी भुख जीउ ॥४॥

पद्अर्थ: चिति = चित में। आवई = आए, आता है। तितु तनि = उस शरीर में।4।

अर्थ: (माया-ग्रसित मनुष्य का) मन सदा दुनिया वाले चाव-मलार ही करता है और सदा सुख ही माँगता है, पर (जब तक) कर्तार उसके चिक्त में नहीं बसता, उसे बारंबार दुख व्यापते रहते हैं।

(हाँ) जिस मन में सुख-दुख देने वाला परमात्मा बस जाता है, उसे कोई तृष्णा नहीं रह जाती (और वह सुखों की लालसा नहीं करता)।4।

बाकी वाला तलबीऐ सिरि मारे जंदारु जीउ ॥ लेखा मंगै देवणा पुछै करि बीचारु जीउ ॥ सचे की लिव उबरै बखसे बखसणहारु जीउ ॥५॥

पद्अर्थ: बाकी वाला = करजाई, जिसने विकारों रूपी कर्जे की गठड़ी उठाई हुई है। तलबीऐ = तलब किया जाता है, बुलाया जाता है (लेखा देने के लिए)। सिरि = (उसके) सिर पर। जंदारु = जंदाल, अवैड़ा, जम। लिव = लगन।5।

अर्थ: (जीव बंजारा यहाँ नाम का व्यापार करने आया है, पर जो जीव ये व्यापार बिसार के विकारों का कर्जा अपने सिर पर चढ़ाने लग जाता है, उस) कर्जाई को बुलावा आता है; जमराज उसके सर पर चोट मारता है, उसके सारे किए कर्मों का विचार करके उससे पूछता है और उससे वह लेखा माँगता है जो (उसके जिंम्मे) देना बनता है। जिस जीव बन्जारे के अंदर सदा-स्थिर प्रभु की लगन हो, वह जमराज की मार से बच जाता है, बख्शनेवाला प्रभु उस पर मेहर करता है।5।

अन को कीजै मितड़ा खाकु रलै मरि जाइ जीउ ॥ बहु रंग देखि भुलाइआ भुलि भुलि आवै जाइ जीउ ॥ नदरि प्रभू ते छुटीऐ नदरी मेलि मिलाइ जीउ ॥६॥

पद्अर्थ: को = कोई। अन = अन्य। कीजै = बनाया जाए। मरि जाइ = (आत्मिक मौत) मर जाता है। देखि = देख के। ते = से, के द्वारा। नदरी = मेहर की निगाह से।6।

अर्थ: अगर परमात्मा के बिना किसी और को मित्र बनाया जाए, तो (ऐसे मित्र बनाने वाला) मिट्टी में मिल जाता है आत्मिक मौत मर जाता है। माया के बहुत सारे रंग-तमाशे देख के वह गलत राह पड़ जाता है, सही जीवन-राह से टूट के वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। (इस चक्कर में से) परमात्मा की मेहर से निजात पाई जा सकती है, वह प्रभु मेहर की निगाह से (गुरु-चरणों में) मिला के अपने साथ मिला लेता है।6।

गाफल गिआन विहूणिआ गुर बिनु गिआनु न भालि जीउ ॥ खिंचोताणि विगुचीऐ बुरा भला दुइ नालि जीउ ॥ बिनु सबदै भै रतिआ सभ जोही जमकालि जीउ ॥७॥

पद्अर्थ: गाफल = हे गाफ़ल! , हे बेसमझ! हे लापरवाह बंदे! विहूणा = वंचित। खिंचोताणि = खींचातानी में। विगुचीऐ = ख्वार होते हैं। बुरा भला दुइ = नेकी और बदी दोनों। भै = सहम में। जोही = देखी, नजर के नीचे रखी। कालि = काल ने।7।

अर्थ: हे गाफिल हुए ज्ञानहीन जीव! गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा के साथ गहरी सांझ की आस करनी व्यर्थ है। किए हुए अच्छे और बुरे संस्कार तो हर वक्त अंदर मौजूद ही हैं, (अगर गुरु की शरण ना पड़ें, तो वह अंदरूनी अच्छे-बुरे संस्कार अच्छी-बुरी तरफ ही खींचते हैं) और इस खींचातानी में (जीव) दुखी ही होता है। गुरु-शब्द का आसरा लिए बिना दुनिया (दुनियावी) सहम में ग्रसित रहती है, ऐसी दुनिया को आत्मिक मौत ने (हर वक्त) अपनी ताक में रखा हुआ होता है।7।

जिनि करि कारणु धारिआ सभसै देइ आधारु जीउ ॥ सो किउ मनहु विसारीऐ सदा सदा दातारु जीउ ॥ नानक नामु न वीसरै निधारा आधारु जीउ ॥८॥१॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (कर्तार) ने। कारणु = जगत। सभसै = हरेक जीव को। आधारु = आसरा। मनहु = मन से। निधारा = निआसरों का।8।

अर्थ: जिस कर्तार ने ये सृष्टि रची है, और रच के इसे टिकाया हुआ है, वह हरेक जीव को आसरा दे रहा है। उस को कभी भी मन से भुलाना नहीं,वह सदा ही सबको दातें देने वाला है।

हे नानक! (अरदास कर कि) परमात्मा का नाम कभी ना भूले। परमात्मा निआसरों का आसरा है।8।1।2।

नोट: पहली अष्टपदी ‘घरु १’ की है। दूसरी अष्टपदी ‘घरु ९’ की है। अंक 1 यही प्रकट करता है। कुल जोड़ हुआ 2।

सूही महला १ काफी घरु १०    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

माणस जनमु दुल्मभु गुरमुखि पाइआ ॥ मनु तनु होइ चुल्मभु जे सतिगुर भाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: माणस जनमु = मनुष्य जन्म। दुलंभु = दर्लभ, बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। पाइआ = कद्र पाई। चुलंभु = गाढ़ा लाल।1।

अर्थ: (चौरासी लाख जूनियों में से) मानव जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, पर इसकी कद्र वही मनुष्य जानता है जो गुरु की शरण पड़े। यदि सतिगुरु को ठीक लगे (अर्थात अगर सतिगुरु की कृपा हो जाए) तो (शरण आए उस मनुष्य का) मन और शरीर (प्रभु के प्रेम-रंग से) गाढ़ा लाल हो जाता है (नाम की इनायत से उसको लाली चढ़ी रहती है)।1।

चलै जनमु सवारि वखरु सचु लै ॥ पति पाए दरबारि सतिगुर सबदि भै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सवारि = सवार के। वखरु = व्यापार का सौदा। सचु = सदा स्थिर नाम। लै = ले के। पति = इज्जत। दरबारि = प्रभु की हजूरी में। भै = भय, डर अदब में (रह के)।1। रहाउ।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के) डर-अदब में (रह के) सदा-स्थिर प्रभु के नाम के सौदे का व्यापार करता है और अपना जीवन सोहाना बना के (यहाँ से) जाता है वह (परमात्मा की) दरगाह में इज्जत हासिल करता है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh