श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 752

मनि तनि सचु सलाहि साचे मनि भाइआ ॥ लालि रता मनु मानिआ गुरु पूरा पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = शरीर से। सालाहि = स्तुति करके, महिमा करके। लालि = लाल (रंग) में। रता = रंगा गया।2।

अर्थ: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है वह अपने मन व शरीर के द्वारा सदा-स्थिर परमात्मा की महिमा करके सदा स्थिर प्रभु के मन में प्यारा लगने लग पड़ता है। प्रभु नाम की लाली में मस्त हुआ उसका मन उस लाली में भीग जाता है (उसके बिना रह नहीं सकता)।2।

हउ जीवा गुण सारि अंतरि तू वसै ॥ तूं वसहि मन माहि सहजे रसि रसै ॥३॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। सारि = संभाल के। तू वसै = ‘तू ही तू’ के बोल बस गए। सहजे = सहज में, अडोल आत्मिक अवस्था में। रसि = (नाम-) अमृत से। रसै = रसता है, भीगता है, रचता है।3।

अर्थ: हे प्रभु! यदि तू मेरे मन में बस जाए, तो मेरा मन अडोल अवस्था में टिक के तेरे नाम के स्वाद में भीग जाए, तेरे गुण याद कर कर के मेरे अंदर आत्मिक जीवन मौल पड़े, मेरे अंदर ‘तू ही तू’ की धुन लग जाए।3।

मूरख मन समझाइ आखउ केतड़ा ॥ गुरमुखि हरि गुण गाइ रंगि रंगेतड़ा ॥४॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! आखउ = मैं कहूँ। केतक = कितना? गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। गाइ = गा के। रंगि = रंग में। रंगेतड़ा = रंगा जा।4।

अर्थ: हे मेरे मूर्ख मन! मैं तुझे कितना समझा-समझा के बताऊँ कि गुरु की शरण पड़ के परमात्मा की महिमा कर, परमात्मा के नाम-रंग में रंगा जा (और इस तरह अपना जन्म-मरण सुंदर बना ले)।4।

नित नित रिदै समालि प्रीतमु आपणा ॥ जे चलहि गुण नालि नाही दुखु संतापणा ॥५॥

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। समालि = संभाल। संतापणा = कष्ट दे सकना।5।

अर्थ: हे भाई! अपने प्रीतम प्रभु को सदा अपने दिल में संभाल के रख। अगर तू (प्रभु की भक्ति वाले अच्छे) गुण ले के (जीवन-यात्रा में) चले तो कोई दुख-कष्ट तुझे नहीं छू सकेगा।5।

मनमुख भरमि भुलाणा ना तिसु रंगु है ॥ मरसी होइ विडाणा मनि तनि भंगु है ॥६॥

पद्अर्थ: रंगु = (नाम की) लाली। मरसी = आत्मिक जीवन गवा बैठेगा। विडाणा = बेगाना, ऊपरी, बिना पति के। भंगु = तोट, विछोड़ा।6।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का मन भटकन में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, उसको परमात्मा के नाम की लाली नहीं चढ़ती। वह बेगाना (बिना पति वाला निखसमा) हो के आत्मिक मौत सहेड़ता है, उसके मन में उसके शरीर में (परमात्मा से) विछोड़ा बना रहता है।6।

गुर की कार कमाइ लाहा घरि आणिआ ॥ गुरबाणी निरबाणु सबदि पछाणिआ ॥७॥

पद्अर्थ: लाहा = लाभ। आणिआ = लाया। निरबाणु = निर्वाण, वासना रहित प्रभु।7।

अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु द्वारा बताया हुआ काम (भक्ति) करके (भक्ति का) लाभ अपने हृदय-गृह में ले लिया उसने गुरु की वाणी की इनायत से गुरु के शब्द में जुड़ के वासना-रहित परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना ली।7।

इक नानक की अरदासि जे तुधु भावसी ॥ मै दीजै नाम निवासु हरि गुण गावसी ॥८॥१॥३॥

पद्अर्थ: भावसी = अच्छी लगे, पसंद आए। मै = मुझे, मेरे दिल में। गावसी = गाएगा।8।

अर्थ: हे प्रभु! मेरी नानक की अरदास भी यही है कि अगर तुझे ये बात पसंद आ जाए तो मेरे हृदय में भी अपने नाम का निवास कर दे ता कि मैं तेरे गुण गाता रहूँ।8।1।3।

नोट: ये अष्टपदी सूही और काफी दानों मिश्रित रागनियों में गाई जानी हैं। काफी एक रागिनी का नाम है।

नोट: ये अष्टपदी ‘घरु १०’ की है। कुल जोड़ 3 है।

सूही महला १ ॥ जिउ आरणि लोहा पाइ भंनि घड़ाईऐ ॥ तिउ साकतु जोनी पाइ भवै भवाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: आरणि = भट्ठी में। भंनि = गला के। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। भवै = भटकता है। भवाईऐ = (जूनियों में) डाला जाता है।1।

अर्थ: जैसे भट्ठी में लोहा डाल के (और) गला के (नए सिरे से) घड़ा जाता है (लोहे से काम आने वाली चीजें बनाई जाती हैं) वैसे ही माया-ग्रसित जीव को जूनियों में डाला जाता है, जनम-मरन के चक्करों में डाल के (उसे तपाया जाता है) (और आखिर गुरु की मेहर से इन दुखों में वह सुमति सीखता है)।1।

बिनु बूझे सभु दुखु दुखु कमावणा ॥ हउमै आवै जाइ भरमि भुलावणा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आवै जाइ = पैदा होता है मरता है।1। रहाउ।

अर्थ: (सही जीवन जुगति) समझे बिना मनुष्य (जो भी) कर्म करता है दुख (दुख पैदा करने वाले करता है) दुख ही दुख (सहेड़ता है)। अहंकार के कारण मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, भटकना में गलत राह पर पड़ा रहता है।1। रहाउ।

तूं गुरमुखि रखणहारु हरि नामु धिआईऐ ॥ मेलहि तुझहि रजाइ सबदु कमाईऐ ॥२॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ा मनुष्य। मेलहि = (हे प्रभु!) तू (गुरु) मिलाता है।2।

अर्थ: हे प्रभु! (भटक-भटक के आखिर) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तू उसको (चौरासी के चक्करों से) बचाता है; वह हे प्रभु! तेरा नाम स्मरण करता है। गुरु (भी) तू अपनी रजा अनुसार ही मिलाता है (जिसको मिलाता है) वही गुरु के शब्द को कमाता है (गुरु के शब्द के अनुसार आचरण बनाता है)।2।

तूं करि करि वेखहि आपि देहि सु पाईऐ ॥ तू देखहि थापि उथापि दरि बीनाईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: देहि = जो तू देता है। थापि = रच के। उथापि = नाश करके। दरि = अंदर, में। बीनाईऐ = बीनायी, निगाह, नज़र।3।

अर्थ: हे प्रभु! जीव पैदा करके इनकी संभाल भी तू स्वयं ही करता है। जो कुछ तू देता है वही जीवों को मिलता है तू स्वयं पैदा करता है तू स्वयं नाश करता है, सबकी तू अपनी ही निगरानी में संभाल (भी) करता है।3।

देही होवगि खाकु पवणु उडाईऐ ॥ इहु किथै घरु अउताकु महलु न पाईऐ ॥४॥

पद्अर्थ: होवहि = हो जाएगी। पवणु = स्वास। अउताकु = बैठक।4।

अर्थ: जब (शरीर में से) सांसें निकल जाती हैं तो शरीर मिट्टी हो जाता है (जिस महल-माढ़ियों का मनुष्य गुमान करता है) फिर ना ये घर इसको मिलता है ना बैठक मिलती है और ना ये महल मिलता है।4।

दिहु दीवी अंध घोरु घबु मुहाईऐ ॥ गरबि मुसै घरु चोरु किसु रूआईऐ ॥५॥

पद्अर्थ: इहु दीवी = दिन दिनों में भी, सफेद दिन होते हुए भी। अंध घोरु = घोर अंधेरा। घबु = घर का माल। मुहाईऐ = लुट जाता है। गरबि = अहंकार में। मुसै = चुराता है। रूआईऐ = शिकायत की जाए।5।

अर्थ: (सही जीवन-जुगति समझे बिना) जीव अपने घर का माल (आत्मिक राशि-पूंजी) लुटाए जाता है, सफेद दिन होते हुए भी (इसके लिए तो) घोर अंधकार बना रहता है। अहंकार में (गाफ़ल रहने के कारण मोह-रूप) चोर इसके घर (आत्मिक राशि-पूंजी) को लूटता जाता है। (समझ ही नहीं आता) किसके पास शिकायत करे?।5।

गुरमुखि चोरु न लागि हरि नामि जगाईऐ ॥ सबदि निवारी आगि जोति दीपाईऐ ॥६॥

पद्अर्थ: न लागि = नहीं लग सकता। नामि = नाम से। आगि = तृष्णा की आग। दीपाईऐ = जलती है, चमकती है।6।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उस (की राशि-पूंजी) को चोर नहीं पड़ते, गुरु उसको परमात्मा के नाम के द्वारा (आत्मिक सरमाए के चोर की तरफ से) सचेत रखता है। गुरु अपने शब्द से (उसके अंदर से तृष्णा) की आग बुझा देता है, और रूहानी ज्योति जगा देता है।6।

लालु रतनु हरि नामु गुरि सुरति बुझाईऐ ॥ सदा रहै निहकामु जे गुरमति पाईऐ ॥७॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। निहकामु = वासना रहित।7।

अर्थ: परमात्मा का नाम (ही) लाल है रत्न है (शरण पड़े सिख को) गुरु ने ये समझ दी हुई होती है (इस लिए उसे तृष्णा की आग नहीं सताती)। अगर मनुष्य गुरु की शिक्षा प्राप्त कर ले तो वह सदा (माया की) वासना से बचा रहता है।7।

राति दिहै हरि नाउ मंनि वसाईऐ ॥ नानक मेलि मिलाइ जे तुधु भाईऐ ॥८॥२॥४॥

पद्अर्थ: दिहै = दिन में ही। मंनि = मन में।8।

अर्थ: हे नानक! (प्रभु के दर पर अरदास कर- हे प्रभु!) यदि तुझे अच्छा लगे (तो, मेहर कर, और) अपनी संगति में मिला, ताकि रात-दिन (हर वक्त) हे हरि! तेरा नाम मन में बसाया जा सके।8।2।4।

नोट: ‘घरु १०’ की ये दूसरी अष्टपदी है।

सूही महला १ ॥ मनहु न नामु विसारि अहिनिसि धिआईऐ ॥ जिउ राखहि किरपा धारि तिवै सुखु पाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: मनहु = मन से। अहि = दिन। निसि = रात। राखहि = (हे प्रभु!) तू रखे। धारि = धार के, कर के।1।

अर्थ: (हे जिंदे!) परमात्मा के नाम को मन से ना भुला। दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। हे प्रभु! जैसे मेहर करके तूने मुझे (माया के मोह से) बचाया, वैसे मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।1।

मै अंधुले हरि नामु लकुटी टोहणी ॥ रहउ साहिब की टेक न मोहै मोहणी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लकुटी = छोटी लकड़ी, डंगोरी, डंडी। टोहणी = आसरा देने वाली डंडी (जिससे टोह टोह के रास्ता तलाश जा सके)। रहउ = मैं रहता हूं। टेक = आसरा। मोहणी = मोह लेने वाली।1। रहाउ।

अर्थ: मुझे (माया के मोह में) अंधे को परमात्मा का नाम छड़ी (का काम देता) है, (मेरे लिए ये नाम रूपी छड़ी) टोहनी है (जिससे मैं टोह-टोह के जीवन का सही रास्ता ढूँढता हूँ)। (जब) मैं मालिक प्रभु के आसरे रहता हूँ तो मन को मोहने वाली माया मोह नहीं सकती।1। रहाउ।

जह देखउ तह नालि गुरि देखालिआ ॥ अंतरि बाहरि भालि सबदि निहालिआ ॥२॥

पद्अर्थ: जह = जिधर, जहाँ। देखउ = देखूँ। गुरि = गुरु ने। भालि = ढूँढ के। सबदि = (गुरु के) शब्द से। निहालिआ = देख लिया है।2।

अर्थ: (हे प्रभु!) जिधर भी मैं देखता हूँ उधर ही गुरु ने मुझे दिखा दिया है कि तू मेरे साथ ही है। बाहर ढूँढ-ढूँढ के अब गुरु के शब्द के माध्यम से मैंने तुझे अपने अंदर देख लिया है।2।

सेवी सतिगुर भाइ नामु निरंजना ॥ तुधु भावै तिवै रजाइ भरमु भउ भंजना ॥३॥

पद्अर्थ: सेवी = मैं सेवा करूँ, मैं स्मरण करूँ। सतिगुर भाइ = गुरु के अनुसार रह के। भंजना = नाश करने वाला।3।

अर्थ: हे माया-रहित प्रभु! गुरु के अनुसार रह के मैं तेरा नाम स्मरण करता हूँ। हे भ्रम और भय नाश करने वाले प्रभु! जो तुझे अच्छा लगता है मैं उसी को तेरी रजा समझता हूँ।3।

जनमत ही दुखु लागै मरणा आइ कै ॥ जनमु मरणु परवाणु हरि गुण गाइ कै ॥४॥

पद्अर्थ: जनमत ही = पैदा होते ही। मरणा = आत्मिक मौत। आइ कै = (जगत में) आ के। जनमु मरणु = जनम से मरन तक (सारी उम्र)।4।

अर्थ: (अगर प्रभु का नाम बिसार दें तो) पैदा होते ही जगत में आते ही आत्मिक मौत का दुख आ घेरता है। परमात्मा के गुण गा के सारा ही जीवन सफल हो जाता है।4।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh