श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 760 रागु सूही महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मिथन मोह अगनि सोक सागर ॥ करि किरपा उधरु हरि नागर ॥१॥ पद्अर्थ: मिथन = नाशवान। अगनि = (तृष्णा की) आग। सोक = शोक, चिन्ता। सागर = समुंदर। करि = कर के। उधरु = बचा ले। हरि नागर = हे सुंदर हरि!।1। अर्थ: हे सुंदर हरि! नाशवान पदार्थों का मोह, तृष्णा की आग, चिन्ता के समुंदर में से कृपा करके (हमें) बचा ले।1। चरण कमल सरणाइ नराइण ॥ दीना नाथ भगत पराइण ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नराइण = हे नारायण! पराइण = आसरा।1। रहाउ। अर्थ: हे गरीबों के पति! हे भक्तों के आसरे! हे नारायण! (हम जीव) तेरे सुंदर चरणों की शरण में आए हैं (हमें विकारों से बचाए रख)।1। रहाउ। अनाथा नाथ भगत भै मेटन ॥ साधसंगि जमदूत न भेटन ॥२॥ पद्अर्थ: भै = सारे डर। साधसंगि = संगति में। भेटन = नजदीक छूता।2। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे निआसरों के आसरे! हे भक्तों के सारे डर दूर करने वाले! (मुझे गुरु की संगति बख्श), गुरु की संगति में रहने से जमदूत (भी) नजदीक नहीं फटकते (मौत का डर नहीं व्यापता)।2। जीवन रूप अनूप दइआला ॥ रवण गुणा कटीऐ जम जाला ॥३॥ पद्अर्थ: अनूप = अद्वितीय। रवण = स्मरण।3। अर्थ: हे जिंदगी के श्रोत! हे अद्वितीय प्रभु! हे दया के घर! (अपनी महिमा बख्श), तेरे गुणों को याद करने से मौत के जंजाल कट जाते हैं।3। अम्रित नामु रसन नित जापै ॥ रोग रूप माइआ न बिआपै ॥४॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रसन = जीभ (से)। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपनी जीभ से सदा आत्मि्क जीवन देने वाला हरि-नाम जपता है, उस पर ये माया जोर नहीं डाल सकती, जो सारे रोगों का मूल है।4। जपि गोबिंद संगी सभि तारे ॥ पोहत नाही पंच बटवारे ॥५॥ पद्अर्थ: संगी = साथी। सभि = सारे। पंच = पाँच। बटवारे = लुटेरे, डाकू।5। अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा कर (जो जपता है) वह (अपने) सारे साथियों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है पाँचों लुटेरे उस पर दबाव नहीं डाल सकते।5। मन बच क्रम प्रभु एकु धिआए ॥ सरब फला सोई जनु पाए ॥६॥ पद्अर्थ: बच = वचन। क्रम = कर्म। धिआए = ध्याता है।6। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने मन से, कर्मों से एक परमात्मा का ध्यान धरे रखता है, वह मनुष्य (मानव जन्म के) सारे फल हासिल कर लेता है।6। धारि अनुग्रहु अपना प्रभि कीना ॥ केवल नामु भगति रसु दीना ॥७॥ पद्अर्थ: धारि = धारण करके। अनुग्रहु = कृपा। प्रभि = प्रभु ने। रसु = स्वाद।7। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने कृपा करके जिस मनुष्य को अपना बना लिया, उसको उसने अपना नाम बख्शा, उसको अपनी भक्ति का स्वाद दिया।7। आदि मधि अंति प्रभु सोई ॥ नानक तिसु बिनु अवरु न कोई ॥८॥१॥२॥ पद्अर्थ: आदि मधि अंति = सदा ही। आदि = जगत के आरम्भ में। मधि = बीच के समय। अंति = आखिर में।8। अर्थ: हे नानक! वह परमात्मा ही जगत के आरम्भ से है, अब भी है, जगत के आखिर में भी रहेगा। उसके बिना (उसके जैसा) और कोई नहीं है।8।1।2। रागु सूही महला ५ असटपदीआ घरु ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिन डिठिआ मनु रहसीऐ किउ पाईऐ तिन्ह संगु जीउ ॥ संत सजन मन मित्र से लाइनि प्रभ सिउ रंगु जीउ ॥ तिन्ह सिउ प्रीति न तुटई कबहु न होवै भंगु जीउ ॥१॥ पद्अर्थ: रहसीऐ = खिल उठता है। किउ = कैसे? किस प्रकार? संगु = साथ। सजन = गुरमुख। मन मित्र = मन के मेली, असली मित्र। से = वह (बहुवचन)। लाइनि = लगाते हैं। रंगु = प्यार। सिउ = साथ। तुटई = टूटता है। भंगु = टूटना।1। अर्थ: हे प्रभु! उन गुरमुखों का साथ कैसे प्राप्त हो, जिनके दर्शन करने से मन खिल उठता है? हे भाई! वही मनुष्य (मेरे वास्ते) सज्जन हैं, संत हैं, मेरे असली मेली हैं, जो परमात्मा के सथ मेरा प्यार जोड़ दें। हे प्रभु! (मेहर कर) उनके साथ मेरा प्यार ना टूटे, उनसे मेरे संबंध कभी खत्म ना हों।1। पारब्रहम प्रभ करि दइआ गुण गावा तेरे नित जीउ ॥ आइ मिलहु संत सजणा नामु जपह मन मित जीउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पारब्रहम प्रभ = हे पारब्रहम! हे प्रभु! गावा = मैं गाऊँ। जपह = हम जपें।1। रहाउ। अर्थ: हे पारब्रहम! हे प्रभु! (मेरे मित्र) मेहर कर, मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ। हे संत जनो! हे सज्जनो! हे मेरे मन के मेलियो! आ के मिलो (इकट्ठे बैठें, और) परमात्मा का नाम जपें।1। रहाउ। देखै सुणे न जाणई माइआ मोहिआ अंधु जीउ ॥ काची देहा विणसणी कूड़ु कमावै धंधु जीउ ॥ नामु धिआवहि से जिणि चले गुर पूरे सनबंधु जीउ ॥२॥ पद्अर्थ: देखै सुणे न जाणई = ना देखे, ना सुने, ना जाने। मोहिआ = मोह में फसा हुआ। अंधु = अंधा। काची = कच्चे घड़े जैसी। विणसणी = नाशवान। कूड़ धंधु = झूठा धंधा। धिआवहि = ध्याते हैं। जिणि = जीत के (शब्द ‘जिनि’ और ‘जिणि’ में फर्क याद रखें)। सनबंधु = मिलाप।2। अर्थ: हे भाई! माया के मोह में फसा हुआ मनुष्य (आत्मिक जीवन की ओर से) अंधा हो जाता है, वह (अस्लियत को) ना देख सकता है, ना सुन सकता है, ना ही समझ सकता है। (उसे ये नहीं सूझता कि) कच्चे घड़े जैसा ये शरीर नाश होने वाला है, वह हर वक्त नाशवान पदार्थों की खातिर ही दौड़-भाग करता रहता है। हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु का मिलाप (हासिल करके) परमात्मा का नाम जपते हैं, वह (मानव जनम की बाजी) जीत के यहाँ से जाते हैं।2। हुकमे जुग महि आइआ चलणु हुकमि संजोगि जीउ ॥ हुकमे परपंचु पसरिआ हुकमि करे रस भोग जीउ ॥ जिस नो करता विसरै तिसहि विछोड़ा सोगु जीउ ॥३॥ पद्अर्थ: हुकमे = हुकमि ही, प्रभु के हुक्म अनुसार ही। जुग = जगत। चलणु = कूच। संजोगि = कारणों के संजोग से। परपंचु = जगत रचना। रस भोग = रसों के भोग। सोगु = चिन्ता।3। नोट: ‘तिसहि’ में से ‘तिसु’ की ‘सु’ की ‘ु’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के हुक्म अनुसार ही (जीव) जगत में आता है, हुक्म के अनुसार ही संयोग बनने पर (जीव यहाँ से) कूच कर जाता है। प्रभु की रजा में जगत-पसारा पसरा है, रजा में ही जीव यहाँ रसों के भोग भोगता है। (इन रसों में फंस के) जिस मनुष्य को कर्तार भूल जाता है, ये विछोड़ा उसके अंदर चिन्ता-फिक्र डाले रखता है।3। आपनड़े प्रभ भाणिआ दरगह पैधा जाइ जीउ ॥ ऐथै सुखु मुखु उजला इको नामु धिआइ जीउ ॥ आदरु दिता पारब्रहमि गुरु सेविआ सत भाइ जीउ ॥४॥ पद्अर्थ: प्रभ भाणिआ = जो प्रभु को अच्छा लगा। पैधा = इज्जत से, सिरोपा ले के। जाइ = जाता है। ऐथै = इस लोक में। उजला = रौशन। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सत भाइ = सच्ची भावना से।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने प्रभु को अच्छा लगने लग जाता है, वह प्रभु की दरगाह में इज्जत के साथ जाता है। उसे इस लोक में सुख मिला रहता है, परलोक में भी वह सुर्ख-रू होत है (क्योंकि वह) परमात्मा का ही नाम स्मरण करता रहता है। उसने (यहाँ) अच्छी भावना से गुरु का आसरा लिए रखा, (इस वास्ते) परमात्मा ने उसे आदर बख्शा।4। थान थनंतरि रवि रहिआ सरब जीआ प्रतिपाल जीउ ॥ सचु खजाना संचिआ एकु नामु धनु माल जीउ ॥ मन ते कबहु न वीसरै जा आपे होइ दइआल जीउ ॥५॥ पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। प्रतिपाल = पालने वाला। सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम। संचिआ = इकट्ठा किया। ते = से। कबहू = कभी भी। आपे = आप ही।5। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा हरेक जगह में व्यापक है, जो सारे जीवों की पालना करने वाला है जब वह स्वयं ही जिस जीव पर दयावान होता है उसके मन से वह कभी नहीं भूलता। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाला हरि-नाम-खजाना इकट्ठा करता है, परमात्मा के नाम को ही वह अपना धन-पदार्थ बनाता है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |