श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 761 आवणु जाणा रहि गए मनि वुठा निरंकारु जीउ ॥ ता का अंतु न पाईऐ ऊचा अगम अपारु जीउ ॥ जिसु प्रभु अपणा विसरै सो मरि जमै लख वार जीउ ॥६॥ पद्अर्थ: आवणु = पैदा होना। जाणा = मरना। रहि गए = खत्म हो गए। मनि = मन में। वुठा = आ बसा। ता का = उस (प्रभु) का। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारु = जिसके अस्तित्व का परला छोर ना मिल सके। मरि = मर के।6। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा आ बसता है, उसके जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। हे भाई! उस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह सबसे ऊँची हस्ती वाला है, अगम्य (पहुँच से परे) है, वह बेअंत है। जिस मनुष्य को परमात्मा भूल जाता है, वह लाखों बार पैदा होता मरता रहता है।6। साचु नेहु तिन प्रीतमा जिन मनि वुठा आपि जीउ ॥ गुण साझी तिन संगि बसे आठ पहर प्रभ जापि जीउ ॥ रंगि रते परमेसरै बिनसे सगल संताप जीउ ॥७॥ पद्अर्थ: साचु नेहु = सदा कायम रहने वाला प्यार। तिन संगि = उनके साथ। जापि = जप के। रंगि = प्रेम में। रते = रंगे जाते हैं। सगल = सारे। संताप = दुख-कष्ट।7। अर्थ: हे भाई! जिस गुरमुख सज्जनों के मन में परमात्मा आ बसता है, उनके हृदय में प्रभु का सदा कायम रहने वाला प्यार बन जाता है। जो मनुष्य उनकी संगति में बसते हैं, वे भी आठों पहर प्रभु का नाम जप के उनके साथ गुणों की सांझ बना लेते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं, उनके अंदर से सारे दुख-कष्ट दूर हो जाते हैं।7। तूं करता तूं करणहारु तूहै एकु अनेक जीउ ॥ तू समरथु तू सरब मै तूहै बुधि बिबेक जीउ ॥ नानक नामु सदा जपी भगत जना की टेक जीउ ॥८॥१॥३॥ पद्अर्थ: करणहारु = कर सकने वाला। तूहै = तू ही। समरथु = सब ताकतों का मालिक। सरब मै = सबमें व्यापक। बिबेक = (अच्छे बुरे की) परख। जपी = जपीं, मैं जपता रहूँ। टेक = आसरा।8। अर्थ: हे प्रभु! तू सबको पैदा करने वाला है, तू सब कुछ करने के समर्थ है, तू आप ही आप एक है, (जगत-रचना करके) अनेक रूप भी तू स्वयं ही है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू सबमें व्यापक है, (जीवों, को अच्छे-बुरे की) परख की बुद्धि (देने वाला भी) तू स्वयं ही है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! अगर तू मेहर करे, तो) तेरे भक्तजनों का आसरा ले के मैं सदा तेरा नाम जपता रहूँ।8।1।3। रागु सूही महला ५ असटपदीआ घरु १० काफी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जे भुली जे चुकी साईं भी तहिंजी काढीआ ॥ जिन्हा नेहु दूजाणे लगा झूरि मरहु से वाढीआ ॥१॥ पद्अर्थ: भुली = (मैं) भूली, मैं भूलें करती रही हूँ। चुकी = मैं गलतियां करती रही हूँ। साईं = साई, हे पति प्रभु! भी = तो भी। तहिंजी = तेरी। काढीआ = कहलवाती हूँ। नेहु = प्यार। दूजाणे = किसी और से। मरहु = मर जाएं। झूरि मरहु = वह बेशक चिन्ता कर कर के मर जाएं। से = वे (बहुवचन)। वाढीआ = परदेसनें, जिनके पति परदेस में हैं, पति से विछुड़ी हुई, छुटड़ें।1। नोट: ‘मरहु’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, बहुवचन। अर्थ: हे मेरे पति-प्रभु! अगर मैं भूलें करती हूँ, अगर मैं गलतियां करती हूँ, तो भी मैं तेरी ही कहलवाती हूँ (मैं तेरा दर छोड़ के कहीं और जाने को तैयार नहीं हूँ)। जिनका प्यार (तेरे बग़ैर) किसी और से बना हुआ है, वे त्यागी हुई स्त्री जरूर झुर-झुर के मर रही हैं (वे पति से विछफड़ी हुई अवश्य चिन्ता में झुर रही हैं)।1। हउ ना छोडउ कंत पासरा ॥ सदा रंगीला लालु पिआरा एहु महिंजा आसरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। ना छोडउ = मैं नहीं छोड़ती। पासरा = सोहाना पासा, बढ़िया वाली साईड। रंगीला = आनंद स्वरूप। महिंजा = मेरा।1। रहाउ। अर्थ: मैं पति-प्रभु का सोहाना पासा (का उत्तम पक्ष) (कभी भी) नहीं छोड़ूँगी। मेरा वह प्यारा लाल सदा आनंद-स्वरूप है, मेरा यही आसरा है।1। रहाउ। सजणु तूहै सैणु तू मै तुझ उपरि बहु माणीआ ॥ जा तू अंदरि ता सुखे तूं निमाणी माणीआ ॥२॥ पद्अर्थ: सजणु = मित्र। सैणु = संबंधी। माणीआ = माण। सुखे = सुख में।2। अर्थ: हे पति-प्रभु! मेरा तो तू ही सज्जन है, तू ही संबंधी है। मुझे तो तेरे पर ही गर्व है। जब तू मेरे हृदय-घर में बसता है, तब ही मैं सुखी होती हूँ। मुझ निमाणी का तू ही माण है।2। जे तू तुठा क्रिपा निधान ना दूजा वेखालि ॥ एहा पाई मू दातड़ी नित हिरदै रखा समालि ॥३॥ पद्अर्थ: तुठा = प्रसन्न हुआ। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! मू = मैं। दातड़ी = सोहानी दाति। रखा = मैं रखती हूँ। समालि = संभाल के।3। अर्थ: हे कृपा के खजाने पति-प्रभु! अगर तू मेरे पर दयावान हुआ है, तो (अपने चरणों के बिना) कोई और (आसरा) ना दिखलाना। मैंने तो यही सुंदर दाति पाई हुई है, इसी को मैं सदा अपने हृदय में संभाल-संभाल के रखती हूँ।3। पाव जुलाई पंध तउ नैणी दरसु दिखालि ॥ स्रवणी सुणी कहाणीआ जे गुरु थीवै किरपालि ॥४॥ पद्अर्थ: पाव = पैर। जुलाई = मैं चलाऊँ। पंध तउ = तेरे रास्ते पर। नैणी = (मेरी इन) आखों को। स्रवणी = कानों से। सुणी = मैं सुनूँ। थीवै = हो जाए। किरपालि = कृपालु, दयावान।4। नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे पति-प्रभु! अगर गुरु (मेरे पर) दयावान हो, तो मैं (उससे) अपने कानों से तेरी महिमा की बातें सुनती रहूँ, मैं अपने पैरों को तेरे (देश ले जाने वाले) रास्ते पर चलाऊँ। हे प्यारे! (मेरी इन) आँखों को अपने दर्शन दे।4। किती लख करोड़ि पिरीए रोम न पुजनि तेरिआ ॥ तू साही हू साहु हउ कहि न सका गुण तेरिआ ॥५॥ पद्अर्थ: किती = कितने ही, अनगिनत। पिरीए = हे प्यारे! न पुजनि = नहीं पहुँच सकते। साही हू साहु = शाहों का पातशाह। हउ = मैं। सका = सकूँ।5। अर्थ: हे प्यारे! तू शाहों का पातशाह है। मैं तेरे सारे गुण बयान नहीं कर सकती। अगर में कितने ही लाखों-करोड़ों गुण तेरे बताऊँ, तो भी वह सारे तेरे एक रोम (जितनी महिमा) तक नहीं पहुँच सकते।5। सहीआ तऊ असंख मंञहु हभि वधाणीआ ॥ हिक भोरी नदरि निहालि देहि दरसु रंगु माणीआ ॥६॥ पद्अर्थ: सहीआ = सहेलियां। तऊ = तेरी (दासियां)। असंख = अनगिनत। मंझहु = मेरे से। सभि = सारी। वधाणीआं = बढ़िया, अच्छी। हिक भोरी = एक पल भर ही। नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = देख। माणीआ = मैं माणू, मैं उपभोग करूँ।6। अर्थ: हे प्यारे! अनगिनत ही सहेलियां तेरे (दर की दासियां) हैं। मुझसे तो वह सारी ही अति उत्तम हैं। एक रक्ती भर समय के लिए ही सही मेरी तरफ भी मेहर भरी निगाह से देख। मुझे भी दर्शन दे ता कि मैं आत्मिक आनंद ले सकूँ।6। जै डिठे मनु धीरीऐ किलविख वंञन्हि दूरे ॥ सो किउ विसरै माउ मै जो रहिआ भरपूरे ॥७॥ पद्अर्थ: जै डिठे = जिसे देखने से। धीरीऐ = धैर्य पकड़ता है। किलविख = पाप। वंञन्हि = वंजनि, चले जाते हैं। माऊ = हे माँ! मै = मुझे।7। अर्थ: हे माँ! मुझे (भला) वह (प्यारा) कैसे बिसर सकता है, जो सारे जगत में व्यापक है, जिसके दर्शन करने से मन धैर्य धरता है और सारे पाप दुख दूर हो जाते हैं?।7। होइ निमाणी ढहि पई मिलिआ सहजि सुभाइ ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ नानक संत सहाइ ॥८॥१॥४॥ पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। पूरबि = पहले जन्म में। संत सहाइ = गुरु की सहायता से।8। अर्थ: हे नानक! (कह:) जब मैं आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिक के, आज़िज़ हो के (गुमान त्याग के उसके दर पर) गिर पड़ी, तो वह प्यारा मुझे मिल गया। किसी पूर्बले जन्म में अच्छी किस्मत के लिखे लेखों (के संयोग) मुझे गुरु की सहायता से मिल गए।8।1।4। सूही महला ५ ॥ सिम्रिति बेद पुराण पुकारनि पोथीआ ॥ नाम बिना सभि कूड़ु गाल्ही होछीआ ॥१॥ पद्अर्थ: पुकारनि = (जो मनुष्य कर्मकांड आदि का राह) ऊँचा ऊँचा पुकारते बतलाते फिरते हैं। सभि = सारे। गाली = बातें। होछीआं = थोथी बातें।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि पुस्तकें पढ़ कर (नाम को किनारे छोड़ के कर्मकांड आदि के उपदेश) ऊँचे स्वरों में सुनाते फिरते हैं, वे लोग थोथी बातें करते हैं। परमात्मा के नाम के बिना झूठा प्रचार ही ये सारे लोग करते हैं।1। नामु निधानु अपारु भगता मनि वसै ॥ जनम मरण मोहु दुखु साधू संगि नसै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। अपारु = बेअंत। मनि = मन में। साधू संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का बेअंत खजाना (परमात्मा के) भक्तों के हृदय में बसता है। गुरु की संगति में (नाम जपने से) जनम-मरण के दुख और मोह आदि हरेक कष्ट दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। मोहि बादि अहंकारि सरपर रुंनिआ ॥ सुखु न पाइन्हि मूलि नाम विछुंनिआ ॥२॥ पद्अर्थ: मोहि = मोह में। बादि = झगड़े में। अहंकारि = अहंकार में। सरपर = जरूर। रुंनिआ = रोते हुए। न पाइन्हि = नहीं पाते। मूलि = बिल्कुल। विछुंनिआ = विछुड़े हुए।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु के नाम से विछुड़े हुए मनुष्य कभी भी आत्मिक आनंद नहीं पाते। वह मनुष्य माया के मोह में, शास्त्रार्थ में, अहंकार में फंस के अवश्य दुखी होते हैं।2। मेरी मेरी धारि बंधनि बंधिआ ॥ नरकि सुरगि अवतार माइआ धंधिआ ॥३॥ पद्अर्थ: मेरी मेरी धारि = माया की ममता ख्याल मन में टिका के। बंधनि = (मोह के) बंधनों में। नरकि = नर्क में, दुख में। सुरगि = स्वर्ग में, सुख में। अवतार = जनम।3। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम से टूट के) माया की ममता का विचार मन में टिका के मोह के बंधन में बँधे रहते हैं। निरी माया के झमेलों के कारण वे लोग दुख-सुख भोगते रहते हैं।3। सोधत सोधत सोधि ततु बीचारिआ ॥ नाम बिना सुखु नाहि सरपर हारिआ ॥४॥ पद्अर्थ: सोधत = विचार करते हुए। सोधि = विचार करके। ततु = अस्लियत। हारिआ = (जीवन की बाजी) हारते हैं।4। अर्थ: हे भाई! अच्छी तरह पड़ताल करके निर्णय करके हम इस सच्चाई पर पहुँचे हैं कि परमात्मा के नाम के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। नाम से टूटे रहने वाले अवश्य ही (मनुष्य जन्म की बाजी) हार के जाते हैं।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |