श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला ५ गुणवंती ॥ जो दीसै गुरसिखड़ा तिसु निवि निवि लागउ पाइ जीउ ॥ आखा बिरथा जीअ की गुरु सजणु देहि मिलाइ जीउ ॥ सोई दसि उपदेसड़ा मेरा मनु अनत न काहू जाइ जीउ ॥ इहु मनु तै कूं डेवसा मै मारगु देहु बताइ जीउ ॥ हउ आइआ दूरहु चलि कै मै तकी तउ सरणाइ जीउ ॥ मै आसा रखी चिति महि मेरा सभो दुखु गवाइ जीउ ॥ इतु मारगि चले भाईअड़े गुरु कहै सु कार कमाइ जीउ ॥ तिआगें मन की मतड़ी विसारें दूजा भाउ जीउ ॥ इउ पावहि हरि दरसावड़ा नह लगै तती वाउ जीउ ॥ हउ आपहु बोलि न जाणदा मै कहिआ सभु हुकमाउ जीउ ॥ हरि भगति खजाना बखसिआ गुरि नानकि कीआ पसाउ जीउ ॥ मै बहुड़ि न त्रिसना भुखड़ी हउ रजा त्रिपति अघाइ जीउ ॥ जो गुर दीसै सिखड़ा तिसु निवि निवि लागउ पाइ जीउ ॥३॥

पद्अर्थ: गुणवंती = गुणों वाली। सिखड़ा = प्यारा सिख। लागउ = मैं लगूँ। पाइ = पाय, पैरों पर। बिरथा = पीड़ा, दुख। जीअ की = जिंद की। उपदेसड़ा = सुंदर उपदेश। अनत = अन्यत्र, किसी और तरफ। तै कू = तुझे। डेवसा = मैं दे दूँगा। मारगु = रास्ता।

हउ = मैं। सरणाइ = आसरा। महि = में। सभो = सारा, सभ।

इतु मारगि = इस रास्ते पर। भाईअड़े = प्यारे भाई। तिआगें = यदि तू त्याग दे। मतड़ी = अनुचित मति। विसारें = यदि तू विसार दे। भाउ = भाव, प्यार। इउ = इस तरह। दरसावड़ा = सुंदर दीदार। वाउ = हवा। तती वाउ = दुख-कष्ट, शोक।

आपहु = अपने आप से, अपनी अक्ल से। हुकमाउ = प्रभु का हुक्म ही। गुरि = गुरु ने। नानकि = नानक ने। पसाउ = प्रसादि, कृपा। बहुड़ि = दोबारा। मैं = मुझे। भुखड़ी = बुरी भूख। हउ = मैं। अघाइ = अघा के, तृप्त हो के। रजा त्रिपति अघाइ = खा पी के अच्छी तरह से तृप्त हो गया हूँ। गुर सिखड़ा = गुरु का प्यारा सिख।3।

अर्थ: मुझे जो भी कोई गुरु का प्यारा सिख मिल जाता है, मैं झुक-झुक के (भाव, विनम्रता-अधीनगी से) उसके पैरों पे लगता हूँ, और उसे अपने दिल की पीड़ा (तमन्ना) बताता हूँ (और विनती करता हूँ- हे गुरसिख!) मुझे सज्जन गुरु मिला दे। मुझे कोई ऐसा सुंदर उपदेश दे (जिसकी इनायत से) मेरा मन किसी और की तरफ ना जाए। मैं अपना ये मन तेरे हवाले कर दूँगा, मुझे रास्ता बता (जिस रास्ते पर चल के प्रभु के दर्शन कर सकूँ)। मैं (चौरासी लाख के) दूर की राहों से चल के आया हूँ, अब मैंने तेरा ही सहारा देखा है। मैंने अपने चिक्त में यही आस रखी हुई है कि तू मेरा सारा दुख दूर कर देगा।

(आगे से उक्तर मिलता है:) इस रास्ते पर जो गुर-भाई चलते हैं (वे गुरु के बताए हुए कर्म करते हैं) तू भी वही काम कर जो गुरु बताता है। अगर तू अपने मन की अनुचित मति छोड़ दे, अगर तू प्रभु के बिना अन्य (माया आदि) का प्यार भुला दे, तो इस तरह तू प्रभु के सुंदर दर्शन कर लेगा, तुझे कोई दुख-कष्ट नहीं व्यापेगा। मैंने जो कुछ तुझे बताया है गुरु का हुक्म ही बताया है, मैं अपनी अक्ल का आसरा ले के ये रास्ता नहीं बता रहा। जिस (सौभाग्यशाली व्यक्ति) पर नानक ने कृपा की है, परमात्मा ने उसको अपनी भक्ति का खजाना बख्श दिया है। (गुरु नानक की मेहर के सदके मैं पूरी तरह से तृप्त हो गया हूँ, मुझे अब माया की कोई भूख नहीं सताती।)

मुझे जो भी कोई गुरु का प्यारा सिख मिल जाता है, मैं विनम्रता-अधीनगी सहित उसके पैर लगता हूँ।3।

रागु सूही छंत महला १ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

भरि जोबनि मै मत पेईअड़ै घरि पाहुणी बलि राम जीउ ॥ मैली अवगणि चिति बिनु गुर गुण न समावनी बलि राम जीउ ॥ गुण सार न जाणी भरमि भुलाणी जोबनु बादि गवाइआ ॥ वरु घरु दरु दरसनु नही जाता पिर का सहजु न भाइआ ॥ सतिगुर पूछि न मारगि चाली सूती रैणि विहाणी ॥ नानक बालतणि राडेपा बिनु पिर धन कुमलाणी ॥१॥

पद्अर्थ: भरि जोबनि = भरी जवानी में। मै = मय, शराब। मत = मस्त। पेईअड़ै घरि = पिता के घर, पेके घर में। पाहुणी = प्राहुणी। बलि = सदके। राम = हे राम! अवगणि = अवगुण के कारण। चिति = चिक्त में। न समावनी = नहीं समाते। सार = कद्र। भरमि = भटकना में। बादि = व्यर्थ। वरु = पति प्रभु। सहजु = सुभाउ। भाइआ = अच्छा लगा। पूछि = पूछ के। मारगि = (सही) रास्ते पर। रैणि = (जिंदगी की) रात। बालतण = बाल उम्र में (ही)। धन = जीव-स्त्री।1।

अर्थ: हे प्रभु जी! मैं तुझसे सदके हूँ (तूने कैसी आश्चर्यजनक लीला रचाई है!) जीव-स्त्री (तेरी रची माया के प्रभाव तहत) जवानी के वक्त वह ऐसे मस्त है जैसे शराब पी के मदहोश है, (ये भी नहीं समझती कि) इस पेके घर में (इस जगत में) वह एक मेहमान ही है। विकारों की कमाई के कारण चिक्त से वह मैली रहती है (गुरु की शरण नहीं आती, और) गुरु (की शरण पड़े) बिना (हृदय में) गुण टिक नहीं सकते।

(माया की) भटकना में पड़ कर जीव-स्त्री ने (प्रभु के) गुणों की कीमत ना समझी, गलत रास्ते पर पड़ी रही, और जवानी का समय व्यर्थ गवा लिया। ना उसने पति-प्रभु के साथ सांझ डाली, ना उसके दर ना उसके घर और ना ही उसके दर्शनों की कद्र पहचानी। (भटकना में ही रह कर) जीव-स्त्री को प्रभु-पति का सुभाव भी पसंद नहीं आया।

माया के मोह में सोई हुई जीव-स्त्री की जिंदगी की सारी रात बीत गई, सतिगुरु की शिक्षा ले के ठीक रास्ते पर कभी ना चली। हे नानक! ऐसी जीव-स्त्री तो बाली उम्र में ही विधवा हो गई, और प्रभु-पति के मिलाप के बिना उसका हृदय-कमल कुम्हलाया ही रहा।1।

बाबा मै वरु देहि मै हरि वरु भावै तिस की बलि राम जीउ ॥ रवि रहिआ जुग चारि त्रिभवण बाणी जिस की बलि राम जीउ ॥ त्रिभवण कंतु रवै सोहागणि अवगणवंती दूरे ॥ जैसी आसा तैसी मनसा पूरि रहिआ भरपूरे ॥ हरि की नारि सु सरब सुहागणि रांड न मैलै वेसे ॥ नानक मै वरु साचा भावै जुगि जुगि प्रीतम तैसे ॥२॥

पद्अर्थ: बाबा = हे गुरु! मै = मुझे। वरु = प्रभु पति। देहि = मिला, दे। भावै = प्यारा लगता है। मै तिस की बलि राम = मैं उस राम से सदके हूँ। रवि रहिआ = मौजूद है, हर जगह व्यापक है। जुग चारि = सदा ही। त्रिभवण = तीनों भवनों में, सारे जगत में। बाणी = हुक्म। रवै = प्यार करता है। मनसा = (मनीषा) इच्छा। सरब = सदा ही। रांड = रंडी। तैसे = एक समान।2।

अर्थ: हे प्यारे सतिगुरु! मुझे पति-प्रभु मिला। (मेहर कर) मुझे वह पति-प्रभु प्यारा लगे, मैं उससे सदके जाऊँ, जो सदा ही हर जगह व्यापक है, तीनों ही भवनों में जिसका हुक्म चल रहा है।

तीनों भवनों का मालिक प्रभु भाग्यशाली जीव-स्त्री से प्यार करता है, पर जिसने अवगुण ही अवगुण सहेड़ लिए वह उसके चरणों से विछुड़ी रहती है। वह मालिक हरेक के हृदय में व्यापक है (वह हरेक के दिल की जानता है) जैसी आस ले के कोई उसके दर पर आती है वैसी ही इच्छा वह पूरी कर देता है।

जो जीव-स्त्री प्रभु-पति की बनी रहती है वह सदा सोहाग-भाग वाली है, वह कभी विधवा नहीं होती, उसका वेश कभी मैला नहीं होता (उसका हृदय कभी विकारों से मैला नहीं होता)।

हे नानक! (अरदास कर और कह: हे सतिगुरु! तेरी मेहर हो तो) वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु-पति मुझे (हमेशा) प्यारा लगता रहे जो प्रीतम हरेक युग में एक समान रहने वाला है।2।

बाबा लगनु गणाइ हं भी वंञा साहुरै बलि राम जीउ ॥ साहा हुकमु रजाइ सो न टलै जो प्रभु करै बलि राम जीउ ॥ किरतु पइआ करतै करि पाइआ मेटि न सकै कोई ॥ जाञी नाउ नरह निहकेवलु रवि रहिआ तिहु लोई ॥ माइ निरासी रोइ विछुंनी बाली बालै हेते ॥ नानक साच सबदि सुख महली गुर चरणी प्रभु चेते ॥३॥

पद्अर्थ: लगनु = महूरत। लगनु गणाइ = महूरत निकलवा के। हंभी = मैं भी। वंञा = वंजां, पहुँच सकूँ। साहुरै = पति के घर में, प्रभु चरणों में। साहा = लगन, महूरत। रजाइ = रजाय, परमात्मा की मर्जी के अनुसार। न टलै = आगे-पीछे नहीं हो सकता, नहीं टल सकता। किरतु पइआ = किए हुए कर्मों के संस्कारों के अनुसार मिला हुआ। किरत = मेहनत-कमाई, किए हुए कर्मों का समूह। करतै = कर्तार ने। जाञी = जांजी, बारात का मालिक, दूल्हा। निहकेवल = निष्कैवल्य, पवित्र, स्वतंत्र। नरह निहकेवलु = मनुष्यों से स्वतंत्र। तिहु लोई = तीन लोकों में। माइ = माइआ। निरासी = आस हीनी। रोइ = रोय, रो के। विछुंनी = विछुड़ जाती है। बाली = बालिका, लड़की। बालै = लड़के का। हेते = प्यार के कारण। बाली बालै हेते = लड़की लड़के के प्यार के कारण। सबदि = शब्द की इनायत से। सुख = आनंद। महली = प्रभु के घर में।3।

अर्थ: हे सतिगुरु! (वह) महूरत निकलवा (वह अवसर पैदा कर, जिसकी इनायत से) मैं भी पति-प्रभु के चरणों में जुड़ सकूँ। (हे गुरु! तेरी कृपा से) रजा का मालिक जो हुक्म करता है वह मेल का अवसर बन जाता है, उसको कोई टाल नहीं सकता (उसमें कोई विघ्न नहीं डाल सकता)।

जीवों के किए कर्मों के अनुसार कर्तार ने (उनके मिलन व विछोड़े का) जो भी हुक्म दिया है उसकी कोई उलंघ्ना नहीं कर सकता।

(गुरु विचोले की कृपा से) वह परमात्मा जो तीनों लोकों में व्यापक है और (फिर भी अपने पैदा किए) बंदों से स्वतंत्र है (जीव-स्त्री को अपने चरणों में जोड़ने के लिए) दूल्हा बन के आता है। (जैसे बेटी को विदा करती माँ दोबारा मिलने की उम्मीदें त्याग के रो के विछुड़ती है, वैसे ही) माया जीव-स्त्री के प्रभु-पति के साथ प्रेम के कारण जीव-स्त्री को अपने काबू में रख सकने की उम्मीदें छोड़ के (मानो) रो के विछुड़ती है।

हे नानक! जीव-स्त्री गुरु के चरणों की इनायत से प्रभु-पति को हृदय में बसाती है, और सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाले शब्द के द्वारा प्रभु की हजूरी में आनंद पाती है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh