श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 764 बाबुलि दितड़ी दूरि ना आवै घरि पेईऐ बलि राम जीउ ॥ रहसी वेखि हदूरि पिरि रावी घरि सोहीऐ बलि राम जीउ ॥ साचे पिर लोड़ी प्रीतम जोड़ी मति पूरी परधाने ॥ संजोगी मेला थानि सुहेला गुणवंती गुर गिआने ॥ सतु संतोखु सदा सचु पलै सचु बोलै पिर भाए ॥ नानक विछुड़ि ना दुखु पाए गुरमति अंकि समाए ॥४॥१॥ पद्अर्थ: बाबूलि = पिता के, सतिगुरु ने। दितड़ी = भेज दी। दूरि = (माया के प्रभाव से) दूर परे। घरि = घर में। पेईऐ घरि = पेके घर में, जनम मरन में। रहसी = प्रसन्न होती है। वेखि = देख के। हदूरि = अपने सामने। पिरि = पिर ने, प्रभु पति ने। रावी = प्यार किया। घरि = घर में, प्रभु के चरणों में। सोहीऐ = शोभा देती है, आत्मिक जीवन सुंदर बना लेती है। परधाने = जानी मानी। संजोगी = अच्छे भाग्यों से। थानि = प्रभु चरणों में। सुहेला = आसान (जीवन)। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। पलै = पल्ले में, उसके पास। बोलै = सिमरती है। पिर भाए = पति को प्यारी लगती है। अंकि = अंक में, जप्फी में। समाए = लीन हो जाती है।4। अर्थ: सतिगुरु ने (मेहर करके जीव-स्त्री माया के प्रभाव से इतनी) दूर पहुँचा दी कि वह दोबारा जनम-मरण के चक्कर में नहीं आती। प्रभु-पति के प्रत्यक्ष दीदार करके वह प्रसन्न-चिक्त होती है। प्रभु-पति ने (जब) उससे प्यार किया, तो उसके चरणों में जुड़ के वह अपना आत्मिक जीवन सँवारती है। सदा-स्थिर प्रीतम प्रभु को उस जीव-स्त्री की जरूरत पड़ी (भाव, जीव-स्त्री उसके लेखे में आ गई) उसने उसको अपने साथ मिला लिया। (इस मिलाप की इनायत से) उसकी मति त्रुटि-हीन हो गई, वह जानी पहचानी हस्ती बन गई। सौभाग्य से उसका मिलाप हो गया, प्रभु-चरणों में उसका जीवन सुखी हो गया, वह गुणवती हो गई, गुरु के दिए ज्ञान वाली हो गई। सत्य-संतोष और सदा-स्थिर याद उसके हृदय में टिक जाती है, वह सदा-स्थिर प्रभु को सदा सिमरती है, वह प्रभु-पति को प्यारी लगने लग जाती है। हे नानक! जीव-स्त्री (प्रभु-चरणों से) विछुड़ के दुख नहीं पाती, गुरु की शिक्षा की इनायत से वह प्रभु की गोद में लीन हो जाती है।4।1। रागु सूही महला १ छंतु घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हम घरि साजन आए ॥ साचै मेलि मिलाए ॥ सहजि मिलाए हरि मनि भाए पंच मिले सुखु पाइआ ॥ साई वसतु परापति होई जिसु सेती मनु लाइआ ॥ अनदिनु मेलु भइआ मनु मानिआ घर मंदर सोहाए ॥ पंच सबद धुनि अनहद वाजे हम घरि साजन आए ॥१॥ पद्अर्थ: हम घर = मेरे हृदय घर में। साजन आए = प्रभु मित्र जी आ के प्रकट हुए हैं। (नोट: ये शब्द आदर के भाव में ‘बहुवचन’ में बरते गए हैं; जैसे ‘प्रभ जी बसहि साधु की रसना’)। साचै = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु ने। मेलि = अपने मेल में, अपने चरणों में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मनि = (मेरे) मन में। भाए = प्यारे लग रहे हैं। पंच = मेरे पाँचों ज्ञान-इंद्रिय (अपने-अपने विषय की और दौड़ने की जगह प्रभु-प्यार में मिल के बैठे हैं)। सुखु = आत्मिक आनंद। जिसु...लाइआ = जिससे मन जोड़ा था, जिसकी मेरे अंदर तमन्ना पैदा हो रही थी। अनदिनु = हर रोज। घर मंदर = मेरा हृदय आदि सारे अंग। पंच सबद धुनि = पाँच किस्मों के साजों के बजने का मिश्रित सुर। अनहद = एक रस। पंच सबद = (तार, चमड़ी, धातु, घड़ा, हवा मारने वाले)।1। अर्थ: मेरे हृदय-घर में मित्र प्रभु जी आ प्रकट हुए हैं। सदा-स्थिर प्रभु ने मुझे अपने चरणों में जोड़ लिया है। प्रभु जी ने मुझे आत्मिक अडोलता में टिका दिया है, अब प्रभु जी मेरे मन को प्यारे लग रहे हैं, मेरी पाँचों ज्ञान-इंद्रिय (अपने-अपने विषयों की ओर भागने की जगह प्रभु के प्रेम में) इकट्ठी हो के बैठ गई हैं, मैंने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है। जिस नाम-वस्तु की मेरे अंदर चाहत पैदा हो रही थी, वह अब मुझे मिल गई है। अब हर वक्त प्रभु के नाम से मेरा मिलाप बना रहता है, मेरा मन (उसके नाम से) पतीज गया है, मेरा हृदय और ज्ञान-इंद्रिय सोहावने हो गए हैं। मेरे हृदय-घर में सज्जन प्रभु जी आ प्रकट हुए हैं (अब मेरे अंदर ऐसा आनंद आ बना है, जैसे) पाँच किस्मों के साज लगातार मिश्रित सुर में (मेरे) अंदर बज रहे हैं।1। आवहु मीत पिआरे ॥ मंगल गावहु नारे ॥ सचु मंगलु गावहु ता प्रभ भावहु सोहिलड़ा जुग चारे ॥ अपनै घरि आइआ थानि सुहाइआ कारज सबदि सवारे ॥ गिआन महा रसु नेत्री अंजनु त्रिभवण रूपु दिखाइआ ॥ सखी मिलहु रसि मंगलु गावहु हम घरि साजनु आइआ ॥२॥ पद्अर्थ: मीत पिआरे = हे मेरे प्यारे मित्रो! हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! नारे = हे नारियो! हे मेरी सहेलियो! हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! मंगल = खुशी के गीत, वे गीत जो मन में खुशी पैदा करें, परमात्मा के महिमा के गीतजो मन में हिलौरे पैदा करते हैं। सचु = सदा कायम रहने वाला। सचु मंगलु = अटल आत्मिक आनंद देने वाला महिमा का गीत। जुग चारे = सदा के लिए अटल। अपनै घरि = अपने हृदय घर में। थानि = हृदय स्थल में। सुहाइआ = शोभा दे रहा है। कारज = मेरे जीवन उद्देश्य। सबदि = गुरु के शब्द ने। नेत्री = मेरी आँखों में। अंजनु = सुरमा। त्रिभवण रूपु = तीन भवनों में व्यापक प्रभु का दीदार। सखी = हे मेरी सहेलियो! हे मेरी ज्ञान-इंद्रिय! मिलहु = अपने-अपने विषयों से हट के प्रभु प्यार में आ मिलो। रसि = आनंद से। साजनु = मित्र प्रभु।2। अर्थ: हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! हे मेरी सहेलियो! आओ, परमात्मा की महिमा के गीत गाओ जो मन में हिलोरे पैदा करते हैं। वह गीत गाओ जो अटल आत्मिक आनंद पैदा करते हैं, महिमा के वह गीत गाओ जो चारों युगों में आत्मिक हुलारे दिए रखता है, तब ही तुम प्रभु को अच्छी लगोगी। (हे सहेलियो! मेरे हृदय को अपना घर बना के सज्जन प्रभु) अपने घर में आया है, मेरे हृदय-घर में बैठा शोभायमान है, गुरु के शब्द ने मेरे जीवन का लक्ष्य सवार दिए हैं। ऊँचे से ऊँचा आत्मिक आनंद देने वाले सतिगुरु के बख्शे ज्ञान का अंजन मुझे आँखों में डालने के लिए मिला है (उसकी इनायत से गुरु ने) मुझे तीन भवनों में व्यापक प्रभु के दर्शन करा दिए हैं। हे सहेलियो! प्रभु के चरणों में जुड़ो और आनंद से महिमा के वह गीत गाओ जो आत्मिक हिल्लौरे पैदा करते हैं, मेरे हृदय-घर में सज्जन-प्रभु आ प्रकट हुए हैं।2। मनु तनु अम्रिति भिंना ॥ अंतरि प्रेमु रतंना ॥ अंतरि रतनु पदारथु मेरै परम ततु वीचारो ॥ जंत भेख तू सफलिओ दाता सिरि सिरि देवणहारो ॥ तू जानु गिआनी अंतरजामी आपे कारणु कीना ॥ सुनहु सखी मनु मोहनि मोहिआ तनु मनु अम्रिति भीना ॥३॥ पद्अर्थ: अंम्रिति = अमृत से, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। भिंना = भीगा हुआ। अंतरि = (मेरे) अंदर, मेरे हृदय में। रतंना = रतन। ततु = तत्व, the supreme being, परमात्मा। परम ततु = परमात्मा। वीचारो = विचार। जंत भेख दाता = भेखारी जीवों का दाता। सफलिओ = कामयाब। सिरि सिरि = हरेक सिर पर। जानु = सुजान समझदार। आपे = आप ही। कारणु = जगत। मोहनि = मोहन ने, प्रभु ने (देखें: ‘मोहन तेरे ऊचे मंदर’, गउड़ी महला ५)।3। अर्थ: हे सहेलियो! मेरा मन और शरीर आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से भीग गया है, मेरे हृदय में प्रेम-रत्न पैदा हो गया है। मेरे हृदय में परमात्मा के गुणो की विचार (का एक ऐसा) सुंदर रत्न पैदा हो गया है (जिसकी इनायत से मैं उसके दर पर यूं अरदास करती हूँ - हे प्रभु! सारे जीव तेरे दर के भिखारी हैं) तू भिखारी जीवों का कामयाब दाता है, तू हरेक जीव के सिर पर (रखवाला और) दातार है। तू समझदार है, ज्ञानवान है, हरेक के दिल की जानने वाला है, तूने खुद ही ये (सारा) जगत रचा है (और खुद ही हरेक की जरूरतें पूरी करनी जानता ह। और पूरी करता है)। हे सहेलियो! (मेरा हाल सुनो) मोहन-प्रभु ने मेरा मन अपने प्रेम के वश में कर लिया है, मेरा मन मेरा तन उसके नाम-अमृत जल से भीग गया है।3। आतम रामु संसारा ॥ साचा खेलु तुम्हारा ॥ सचु खेलु तुम्हारा अगम अपारा तुधु बिनु कउणु बुझाए ॥ सिध साधिक सिआणे केते तुझ बिनु कवणु कहाए ॥ कालु बिकालु भए देवाने मनु राखिआ गुरि ठाए ॥ नानक अवगण सबदि जलाए गुण संगमि प्रभु पाए ॥४॥१॥२॥ पद्अर्थ: आतम रामु = जिंद जान। रामु = (रमते इति राम:) सर्व व्यापक। साचा = सच मुच के अस्तित्व वाला। अगम = (अगम्य) अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। सिध = जोग साधना में पुगे हुए जोगी। साधिक = साधना करने वाले। केते = अनेक। कालु = मौत। बिकालु = (‘काल’ के विपरीत) जनम। देवाले भए = पागल हो गए, भाग गए। गुरि = गुरु ने। ठाए = ठाय, जगह पर, प्रभु के चरणों में। सबदि = शब्द द्वारा। संगमि = संगम में।4। अर्थ: हे प्रभु! तू संसार की जिंद-जान है, ये संसार तेरी सचमुच की रची हुई खेल है (भाव, है तो ये संसार एक खेल ही, है तो नाशवान, पर मन का भ्रम नहीं, सच-मुच मौजूद है)। हे अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु! ये संसार तेरी सचमुच की रची हुई एक खेल है (लीला है) (ये अस्लियत) तेरे बिना और कोई नहीं समझ सकता। (इस संसार में) अनेक ही पहुँचे हुए जोगी अनेक ही साधना करने वाले और अनेक ही समझदार होते आए हैं (तेरी ही मेहर से इस मंजिल मंजिल तक पहुँचते हैं) तेरे बिना और कोई तेरा स्मरण करा ही नहीं सकता। (तेरी ही मेहर से) गुरु ने जिसका मन तेरे चरणों में जोड़ा, उसके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो गए। हे नानक! (प्रभु की मेहर के सदका) जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से) औगुण जला लिए, उसने गुणों के मिलाप से प्रभु को पा लिया।4।1।2। नोट: छंद के बंद 4 हैं। ‘घरु २8 का ये पहला छंद है। कुल जोड़ है 2। रागु सूही महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आवहु सजणा हउ देखा दरसनु तेरा राम ॥ घरि आपनड़ै खड़ी तका मै मनि चाउ घनेरा राम ॥ मनि चाउ घनेरा सुणि प्रभ मेरा मै तेरा भरवासा ॥ दरसनु देखि भई निहकेवल जनम मरण दुखु नासा ॥ सगली जोति जाता तू सोई मिलिआ भाइ सुभाए ॥ नानक साजन कउ बलि जाईऐ साचि मिले घरि आए ॥१॥ पद्अर्थ: आवहु = आओ। सजणा = हे सज्जन प्रभु! हउ = मैं। देखा = देखूँ। घरि = हृदय घर में, अंतरात्मे। खड़ी तका = खड़ी हो के इन्तजार कर रही हूँ। मै मनि = मेरे मन में। घनेरा = बहुत। प्रभ मेरा = हे मेरे प्रभु! मै = मुझे। निहकेवल = पवित्र, निर्लिप। जाता = पहचाना। तू सोई = तुझे ही। भाइ = प्रेम से। भाउ = प्रेम। भाउ = प्रेम। साचि = सदा स्थिर नाम में जुड़ने से। घरि = हृदय घर में। आए = आय, आ के।1। अर्थ: हे सज्जन प्रभु! आ, मैं तेरे दर्शन कर सकूँ। (हे सज्जन!) मैं अपने हृदय में पूरी सावधानी से तेरा इन्तजार कर रही हूँ, मेरे मन में बड़ा चाव है (कि मुझे तेरे दर्शन हों)। हे मेरे प्रभु! (मेरी विनती) सुन, मेरे मन में (तेरे दर्शनों के लिए) बड़ा ही उत्साह है, मुझे आसरा भी तेरा ही है। (हे प्रभु!) जिस जीव-स्त्री ने तेरे दर्शन कर लिए, वह पवित्र आत्मा हो गई, उसके जनम-मरण के दुख दूर हो गए। उसने सारे जीवों में तुझे ही बसता पहचान लिया, उसके प्रेम (के आर्कषण) के द्वारा तू उसे मिल गया। हे नानक! सज्जन प्रभु से सदके होना चाहिए। जो जीव-स्त्री उसके सदा-स्थिर नाम में जुड़ती है, उसके हृदय में वह आ प्रगट होता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |