श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 765 घरि आइअड़े साजना ता धन खरी सरसी राम ॥ हरि मोहिअड़ी साच सबदि ठाकुर देखि रहंसी राम ॥ गुण संगि रहंसी खरी सरसी जा रावी रंगि रातै ॥ अवगण मारि गुणी घरु छाइआ पूरै पुरखि बिधातै ॥ तसकर मारि वसी पंचाइणि अदलु करे वीचारे ॥ नानक राम नामि निसतारा गुरमति मिलहि पिआरे ॥२॥ पद्अर्थ: घरि = घर में, हृदय में। आइअड़े साजना = प्यारे सज्जन जी आए, प्यारे सज्जन प्रभु जी प्रकट हुए। ता = तब। धन = जीव-स्त्री। खरी = बहुत। सरसी = स+रसी, खुश, प्रसन्न। हरि मोहिअड़ी साच सबदि = साच हरि सबदि मोहिअड़ी, सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में आकर्षित किया। रहंसी = एकाग्र चिक्त, अडोल चिक्त। संगि = साथ। जा = जब। रावी = अपने साथ जोड़ लिया, (उसे) पाया। रंगि रातै = प्रेम में रंगे हुए प्रभु ने। मारि = मार के। गुणी = गुणों से। घरु = हृदय। छाइआ = ढक दिया, भरपूर कर दिया। पुरखि = पुरख ने। बिधातै = विधाते ने, निर्माता ने। तसकर = कामादिक चोर। पंचाइणि = पंचायण में। पंचाइणु = (पंच+अयन। पंच = साधु-संगत। अयन = घर) साधु-संगत जिसका घर है, जो साधु-संगत में बसता है, परमात्मा। वीचारो = विचार, पूरी विचार से। अदलु = न्याय। निसतारा = पार उतारा। मिलहि पिआरे = प्यारे प्रभु जी मिल पड़ते हैं।2। अर्थ: जब सज्जन प्रभु जी जीव-स्त्री के हृदय-गृह में प्रकट होते हैं, तो जीव-स्त्री बहुत प्रसन्न-चिक्त हो जाती है। जब सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द ने उसको आकर्षित किया, तब ठाकुर जी के दर्शन करके वह अडोल-चिक्त हो गई। जब प्रेम-रंग में रंगे हुए परमात्मा ने जीव-स्त्री को अपने चरणों में जोड़ा तो वह प्रभु के गुणों (की याद) में अडोल-आत्मा हो गई और बहुत प्रसन्न-चिक्त हो गई। पूरन-पुरख ने, विधाता ने (उसके अंदर से) अवगुण दूर करके उसके हृदय को गुणों से भरपूर कर दिया कामादिक चोरों को मार के वह जीव-स्त्री उस परमात्मा (के चरणों) में टिक गई जो सदा पूरी विचार से न्याय करता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में जुड़ने से संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है, गुरु की शिक्षा पर चलने से प्यारे प्रभु जी मिल पड़ते हैं।2। वरु पाइअड़ा बालड़ीए आसा मनसा पूरी राम ॥ पिरि राविअड़ी सबदि रली रवि रहिआ नह दूरी राम ॥ प्रभु दूरि न होई घटि घटि सोई तिस की नारि सबाई ॥ आपे रसीआ आपे रावे जिउ तिस दी वडिआई ॥ अमर अडोलु अमोलु अपारा गुरि पूरै सचु पाईऐ ॥ नानक आपे जोग सजोगी नदरि करे लिव लाईऐ ॥३॥ पद्अर्थ: वरु = पति प्रभु। पाइअड़ा = मिल गया। बालड़ीए = जिस जीव-स्त्री ने। मनसा = इच्छा (मनीषा)। पिरि = पिर ने, पति ने। राविअड़ी = अपने चरणों में जोड़ ली। सबदि = गुरु के शब्द से। रवि रहिआ = सब जगह व्यापक (दिखता है)। घटि घटि = हरेक घट में। सबाई नारि = सारी जीव स्त्रीयां। रसीआ = आनंद का मालिक, आनंद का श्रोत। वडिआई = रज़ा। गुरि = गुरु के द्वारा। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। जोग सजोगी = मिलाप के संजो बनाने वाला, योग के संयोग बनाने वाला।3। अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने पति-प्रभु को पा लिया, उसकी हरेक आस उसकी हरेक इच्छा पूरी हो जाती है (भाव, उसका मन दुनिया की आशाओं आदि की ओर नहीं दौड़ता भागता)। जिस जीव-स्त्री को प्रभु-पति ने अपने चरणों में जोड़ लिया, जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द की इनायत से प्रभु में लीन हो गई, उसे प्रभु हर जगह व्यापक दिखाई देता है, उसको अपने से दूर नहीं प्रतीत होता। उसे ये निश्चय हो जाता है कि प्रभु कहीं दूर नहीं हरेक शरीर में वही मौजूद है, सारी जीव-स्त्रीयां उसी की ही हैं। वह स्वयं ही आनंद का श्रोत है, जैसे उसकी रजा होती है वह स्वयं ही अपने मिलाप का आनंद देता है। वह परमात्मा मौत-रहित है, माया में डोलता नहीं उसका मूल्य नहीं पड़ सकता (भाव, कोई पदार्थ भी उसके बराबर का नहीं) वह सदा-स्थिर रहने वाला है, वह बेअंत है, पूरे गुरु के द्वारा ही उसकी प्राप्ति होती है। हे नानक! प्रभु खुद ही जीवों के अपने साथ मेल के संयोग बनाता है, जब वह मेहर की नजर करता है, तब जीव उसमें तवज्जो जोड़ता है।3। पिरु उचड़ीऐ माड़ड़ीऐ तिहु लोआ सिरताजा राम ॥ हउ बिसम भई देखि गुणा अनहद सबद अगाजा राम ॥ सबदु वीचारी करणी सारी राम नामु नीसाणो ॥ नाम बिना खोटे नही ठाहर नामु रतनु परवाणो ॥ पति मति पूरी पूरा परवाना ना आवै ना जासी ॥ नानक गुरमुखि आपु पछाणै प्रभ जैसे अविनासी ॥४॥१॥३॥ पद्अर्थ: पिरु = पति प्रभु। उचड़ी = सुंदर ऊँची। उचड़ीऐ = सुंदर ऊँची में। माड़ी = महल। माड़ड़ी = सुंदर महल। माड़ड़ीऐ = सुंदर महल में। तिहु लोआ = तीनों लोकों का। सिरताजा = सिर का ताज, पति। हउ = मैं। बिखम = हैरान। अनहद = एक रस, बिना बजाए बजने वाला। सबद = नाद, जीवन लहर। अगाजा = चारों तरफ गर्जता है। वीचारी = विचारने वाला। करणी = आचरण। सारी = श्रेष्ठ। नीसाणो = नासाणु, परवाना, राहदारी। ठाहर = जगह, ठिकाना। परवाणो = मंजूर, स्वीकार। पति = इज्जत। पूरी = जिसमें कोई कमी ना हो। परवाना = हुक्म। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को।4। अर्थ: प्रभु-पति एक सोहाने-ऊँचे महल में बसता है (जहाँ माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता) वह तीनों लोकों का नाथ है। उसके गुण देख के मैं हैरान हो रही हूँ। चारों तरफ (सारे संसार में) उसकी जीवन-लहर एक-रस रुमक रही है। जो मनुष्य प्रभु के महिमा के शब्द को विचारता है (भाव, अपने मन में बसाता है) जिसने ये श्रेष्ठ कर्तव्य बना लिया है, जिसके पास परमात्मा के नाम (रूपी) राहदारी है (उसको प्रभु की हजूरी में जगह मिल जाती है, पर) नाम-हीन खोटे मनुष्य को (उसकी दरगाह में) जगह नहीं मिलती। (प्रभु के दर पर) प्रभु का नाम-रत्न ही स्वीकार होता है। जिस मनुष्य के पास (प्रभु-नाम का) अ-रुक परवाना है, उसको (प्रभु-दर पर) पूरी इज्जत मिलती है उसकी अक्ल त्रुटि-हीन हो जाती है।, वह जनम-मरन के चक्कर से बच जाता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य अपने जीवन को पड़तालता है, वह अविनाशी प्रभु का रूप हो जाता है।4।1।3। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु सूही छंत महला १ घरु ४ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ जगु धंधड़ै लाइआ ॥ दानि तेरै घटि चानणा तनि चंदु दीपाइआ ॥ चंदो दीपाइआ दानि हरि कै दुखु अंधेरा उठि गइआ ॥ गुण जंञ लाड़े नालि सोहै परखि मोहणीऐ लइआ ॥ वीवाहु होआ सोभ सेती पंच सबदी आइआ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ जगु धंधड़ै लाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस ने, (हे प्रभु!) जिस तू ने। कीआ = पैदा किया है। तिनि = उसने (हे प्रभु!) उस तू ने ही। देखिआ = संभाल की हुई है। धंधड़ै = माया की दौड़ भाग में। दानि तेरै = तेरी बख्शिश से। घटि = जीव के हृदय में। तनि = शरीर में। चंदु दीपाइआ = चाँद चमक रहा है, शीतलता हुलारे दे रही है। दानि हरि कै = परमात्मा की बख्शिश से। सोहै = शोभा देती है। परखि = परख के। मोहणी = मन को मोह लेने वाली, सुंदर स्त्री, वह जीव-स्त्री जिसने अपना जीवन सुंदर बना लिया है। मोहणीऐ = सुंदर जीव-स्त्री ने। सेती = साथ। सोभ = शोभा। वीवाहु = जीव-स्त्री का प्रभु से मिलाप। पंच सबद = पाँच किस्मों के साजों के बजने की आवाजें। पंच सबद धुनि = पाँच किस्मों के साजों के बजन से पैदा हुई मिले-जुले सुर, एक रस आनंद। पंच सबदी = एक रस आनंद देने वाला प्रभु। आइआ = हृदय में प्रकट हुआ।1। अर्थ: जिस प्रभु ने ये जगत पैदा किया है उसी ने ही इसकी संभाल की हुई है, उसी ने ही इसको माया की दौड़-भाग में लगाया हुआ है। (पर, हे प्रभु!) तेरी बख्शिश से (किसी सौभाग्य भरे) हृदय में तेरी ज्योति का प्रकाश होता है, (किसी सौभाग्यशाली) शरीर में चाँद चमकता है (तेरे नाम की शीतलता हिल्लौरे देती है)। प्रभु की बख्शिश से जिस हृदय में (प्रभु नाम की) शीतलता चमक मारती है उस हृदय में से (अज्ञानता का) अंधकार और दुख-कष्ट दूर हो जाता है। जैसे बारात दूल्हे के साथ ही फबती है, वैसे ही जीव-स्त्री के गुण (भी) तभी अच्छे लगते हैं जब प्रभु-पति हृदय में बसता हो। जिस जीव-स्त्री ने अपने जीवन को प्रभु की महिमा से सुंदर बना लिया है, उस ने इसकी कद्र समझ के प्रभु को अपने हृदय में बसा लिया है। उसका प्रभु-पति से मिलाप हो जाता है, (लोक-परलोक में) उसे शोभा भी मिलती है, एक-रस आत्मिक आनंद का दाता प्रभु उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। जिस प्रभु ने ये जगत पैदा किया है वही इसकी संभाल करता है, उसने इसको माया की दौड़-भाग में लगाया हुआ है।1। हउ बलिहारी साजना मीता अवरीता ॥ इहु तनु जिन सिउ गाडिआ मनु लीअड़ा दीता ॥ लीआ त दीआ मानु जिन्ह सिउ से सजन किउ वीसरहि ॥ जिन्ह दिसि आइआ होहि रलीआ जीअ सेती गहि रहहि ॥ सगल गुण अवगणु न कोई होहि नीता नीता ॥ हउ बलिहारी साजना मीता अवरीता ॥२॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। अवरीता = (अवृत) जिस पर माया का पर्दा नहीं पड़ा। जिन सिउ गाडिआ = जिस से मिलाया है। तनु = शरीर। मनु लीअड़ा दीता = जिस का मन लिया है और जिस को अपना मन दिया है, जिनसे दिल की सांझ डाली है। मानु = मन। वीसरहि = भूल जाएं। दिसि आइआ = दिस आया, दीदार करने से। होहि रलीआ = आत्मिक खुशियां पैदा होती हैं। जीअ सेती = जिंद से। गहि रहहि = पकड़ के रखते हैं, लगाए रखते हैं। सबल = सारे। नीता नीता = नित्य, सदा ही।2। अर्थ: मैं उन सज्जनों-मित्रों से सदके जाता हूँ जिस पर माया का पर्दा नहीं पड़ा जिनकी संगति करके मैंने उनके साथ दिली सांझ डाली है। जिस गुरमुखों के साथ दिली सांझ पड़ सके वे सज्जन कभी भी भूलने नहीं चाहिए। उनका दर्शन करने से आत्मिक खुशियाँ पैदा होती हैं, वह सज्जन (अपने सत्संगियों को अपनी) जान की तरह रखते हैं (जिंद से भी ज्यादा प्यारा समझते हैं)। उनमें सारे ही गुण होते हें, अवगुण उनके नजदीक नहीं फटकते। मैं सदके हूँ उन सज्जन-मित्रों के जिस पर माया अपना असर ना कर सकी।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |