श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भगता कै घरि कारजु साचा हरि गुण सदा वखाणे राम ॥ भगति खजाना आपे दीआ कालु कंटकु मारि समाणे राम ॥ कालु कंटकु मारि समाणे हरि मनि भाणे नामु निधानु सचु पाइआ ॥ सदा अखुटु कदे न निखुटै हरि दीआ सहजि सुभाइआ ॥ हरि जन ऊचे सद ही ऊचे गुर कै सबदि सुहाइआ ॥ नानक आपे बखसि मिलाए जुगि जुगि सोभा पाइआ ॥४॥१॥२॥

पद्अर्थ: कै घरि = के हृदय में। कारजु = कार्य, काम, आहर। साचा = सदा कायम रहने वाला। वखाणे = उचारे। आपे = आप ही। कंटकु = कांटा, काँटे की तरह चुभने वाला, दुखदाई। मारि = मार के। समाणे = लीन रहे। मनि = मन में। भाणे = अच्छे लगे। निधानु = खजाना। सचु = सदा कायम रहने वाला। अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइआ = सुभाया, प्रेम में। कै सबदि = के शब्द से। जुगि जुगि = हरेक युग में।4।

अर्थ: परमात्मा के गुण सदा गाते रहने के कारण भक्तों के हृदय में ये आहर सदा बना रहता है। भक्ति का खजाना परमात्मा ने खुद ही अपने भक्तों को दिया हुआ है, (इसकी इनायत से वे) दुखद मौत के डर को समाप्त करके (परमात्मा में) लीन रहते हैं। दुखदाई मौत के डर को खत्म करके भक्त परमात्मा में लीन रहते हैं, परमात्मा के मन को प्यारे लगते हैं, (परमात्मा के पास से भक्त) सदा कायम रहने वाला नाम-खजाना प्राप्त कर लेते हैं। ये खजाना ना खत्म होने वाला है, कभी खत्म नहीं होता। परमात्मा ने उनको आत्मिक अडोलता में प्रेम में टिके हुओं को ये खजाना दे दिया। (इस खजाने के सदका) भक्त सदा ही ऊँचे आत्मिक मण्डल में टिके रहते हैं, गुरु के शब्द की इनायत से उनका जीवन सोहाना बन जाता है।

हे नानक! परमात्मा खुद ही मेहर कर के उनको चरणों से जोड़े रखता है, हरेक युग में वे शोभा कमाते हैं।4।1।2।

सूही महला ३ ॥ सबदि सचै सचु सोहिला जिथै सचे का होइ वीचारो राम ॥ हउमै सभि किलविख काटे साचु रखिआ उरि धारे राम ॥ सचु रखिआ उर धारे दुतरु तारे फिरि भवजलु तरणु न होई ॥ सचा सतिगुरु सची बाणी जिनि सचु विखालिआ सोई ॥ साचे गुण गावै सचि समावै सचु वेखै सभु सोई ॥ नानक साचा साहिबु साची नाई सचु निसतारा होई ॥१॥

पद्अर्थ: सबदि सचै = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द के द्वारा। सोहिला = (सुख केल:) आत्मिक आनंद देने वाला गीत। जिथै = जिस हृदय घर में। सभि किलविख = सारे पाप। सचु = सदा स्थिर। उरि = हृदय में। दुतरु = जिसे तैरना बहुत मुश्किल है। भवजलु = संसार समुंदर। तरणु न होई = तैरने की जरूरत नहीं पड़ती। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा से भरपूर वाणी। जिनि = जिस (गुरु) ने। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में। नाई = महिमा, बड़ाई (स्ना, अरबी शब्द)। सचु निसतारा = सदा के लिए पार उतारा।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय-गृह में सच्चे शब्द के द्वारा सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का गीत होता रहता है, सदा स्थिर प्रभु के गुणों की विचार होती रहती है, उसके अंदर से अहंकार आदि जैसे सारे पाप कट जाते हैं, वह मनुष्य सदा-कायम रहने वाले परमात्मा को अपने दिल में बसाए रखता है। वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु को हृदय में बसाए रखता है, मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। संसार-समुंदर से पार लांघने की उसे बार-बार आवश्यक्ता नहीं रहती। हे भाई! जिस गुरु ने उसको सदा-स्थिर प्रभु के दर्शन करवा दिए हैं, वह खुद भी सदा-स्थिर प्रभु का रूप है, उसकी वाणी प्रभु की महिमा से भरपूर है। (गुरु की कृपा से) वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाता रहता है, उसमें ही लीन रहता है, और उसको हर जगह बसा हुआ देखता है। हे नानक! जो परमात्मा खुद सदा-स्थिर है, जिसकी महिमा सदा-स्थिर है वह उस मनुष्य का सदा के लिए पार-उतारा कर देता है।1।

साचै सतिगुरि साचु बुझाइआ पति राखै सचु सोई राम ॥ सचा भोजनु भाउ सचा है सचै नामि सुखु होई राम ॥ साचै नामि सुखु होई मरै न कोई गरभि न जूनी वासा ॥ जोती जोति मिलाई सचि समाई सचि नाइ परगासा ॥ जिनी सचु जाता से सचे होए अनदिनु सचु धिआइनि ॥ नानक सचु नामु जिन हिरदै वसिआ ना वीछुड़ि दुखु पाइनि ॥२॥

पद्अर्थ: सचै सतिगुरि = सदा-स्थिर प्रभु के रूप गुरु ने। साचु = सदा स्थिर प्रभु। पति = इज्जत। भाउ सचा = सदा कायम रहने वाला प्रेम। नामि = नाम में। मरै न = आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता। गरभि = माँ के पेट में। जोती = परमात्मा की ज्योति में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सचि नाइ = सदा स्थिर हरि नाम की इनायत से। जिनि = जिस मनुष्यों ने। जाता = गहरी सांझ डाली। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। धिआइनि = ध्याते हैं। हिरदै = हृदय घर में। वीछुड़ि = विछुड़ के। न पाइनि = नहीं पाते।2।

अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर प्रभु के रूप गुरु ने जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु का ज्ञान दिया उसकी इज्जत सदा-स्थिर प्रभु स्वयं रखता है। प्रभु-चरणों से अटल प्यार उस मनुष्य की आत्मिक खुराक बन जाता है, सदा-स्थिर हरि-नाम से उसको आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। जिस भी मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभु के नाम में आत्मिक आनंद मिलता है, वह कभी आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता, वह जनम-मरण के चक्करों जूनियों में नहीं पड़ता। (गुरु ने जिस मनुष्य की) तवज्जो परमात्मा की ज्योति में मिला दी, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में लीन हो जाता है, सदा-स्थिर हरि-नाम की इनायत से (उसके अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश पैदा हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्यों ने सदा-स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल ली वे उसी का रूप बन गए, वे हर वक्त उस सदा-स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करते रहते हैं। हे नानक! जिस मनुष्यों के हृदय में सदा-स्थिर प्रभु का नाम बस जाता है, वे फिर परमात्मा के चरणों से विछुड़ के दुख नहीं पाते।2।

सची बाणी सचे गुण गावहि तितु घरि सोहिला होई राम ॥ निरमल गुण साचे तनु मनु साचा विचि साचा पुरखु प्रभु सोई राम ॥ सभु सचु वरतै सचो बोलै जो सचु करै सु होई ॥ जह देखा तह सचु पसरिआ अवरु न दूजा कोई ॥ सचे उपजै सचि समावै मरि जनमै दूजा होई ॥ नानक सभु किछु आपे करता आपि करावै सोई ॥३॥

पद्अर्थ: सची बाणी = सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा। गावहि = गाते हैं। तितु घरि = (उनके) उस हृदय घर में। सोहिला = (सुख केल:) खुशी के गीत, आनंद की लहर। सचा = सदा स्थिर, अडोल। सभु = हर जगह। सचो = सच ही, सदा स्थिर प्रभु ही। जह देखा = जिधर भी उन्होंने देखा। तह = उधर (ही)। सचे उपजै = (जो मनुष्य) सदा स्थिर प्रभु से नया आत्मिक जीवन लेता है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।

अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य अपने हृदय में) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा सदा-स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं (उनकी) उस हृदय-गृह में आनंद मीठी सुरीली अवस्था बनी रहती है। सदा-स्थिर प्रभु के पवित्र गुणों की इनायत से उनका मन उनका तन (विकारों की ओर से) अडोल हो जाता है। उनके अंदर सदा-स्थिर प्रभु-पुरुख प्रत्यक्ष प्रकट हो जाता है। (उन्हें यकीन बन जाता है कि) हर जगह सदा-स्थिर प्रभु काम कर रहा है, वह ही बोल रहा है, जो कुछ वह करता है वही होता है। जिधर भी उन्होंने निगाह की, उधर ही उनको सदा-स्थिर प्रभु का पसारा दिखा। प्रभु के बिना उनको (कहीं भी) कोई और नहीं दिखता।

हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु से नया आत्मिक जीवन प्राप्त करता है, वह सदा-स्थिर प्रभु में ही लीन रहता है। पर माया के साथ प्यार करने वाला जनम-मरण में पड़ा रहता है। हे नानक! कर्तार खुद ही सब कुछ कर रहा है, खुद ही जीवों से करवा रहा है।3।

सचे भगत सोहहि दरवारे सचो सचु वखाणे राम ॥ घट अंतरे साची बाणी साचो आपि पछाणे राम ॥ आपु पछाणहि ता सचु जाणहि साचे सोझी होई ॥ सचा सबदु सची है सोभा साचे ही सुखु होई ॥ साचि रते भगत इक रंगी दूजा रंगु न कोई ॥ नानक जिस कउ मसतकि लिखिआ तिसु सचु परापति होई ॥४॥२॥३॥

पद्अर्थ: सचे भगत = सदा-स्थिर प्रभु के भक्त। दरवारे = दरबारि, (प्रभु की) हजूरी में। सचो सचु = सत्य ही सत्य, सदा स्थिर प्रभु का नाम ही नाम। अंतरे = अंदर। घट = हृदय। साची वाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। साचो = साचु ही, सदा स्थिर प्रभु को ही। आपि = अपने अंदर। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। जाणहि = गहरी सांझ डालते हैं। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में। इक रंगी = एक प्रभु के ही प्रेम रंग वाले। मसतकि = माथे पर।4।

नोट: ‘जिस कउ’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के भक्त उस सदा स्थिर प्रभु का नाम ही हर वक्त उचार के उसकी हजूरी में शोभा पाते हैं। उनके हृदय में सदा-स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी सदा बसती है। वे सदा-स्थिर प्रभु को अपने अंदर बसता देखते हैं। जब भक्तजन अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल (आत्मचिंतन) करते हैं, तब वे सदा-स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ डालते हैं, उन्हें उस सदा-स्थिर प्रभु की जान-पहचान हो जाती है। उनके अंदर प्रभु की महिमा वाला गुरु-शब्द बसता रहता है, (इस कारण लोक-परलोक में) उन्हें सदा के लिए शोभा मिल जाती है। प्रभु में जुड़े रहने के कारण उन्हें आत्मिक आनंद मिला रहता है। सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के प्रेम रंग) में रंगे हुए भक्तजन एक ही प्रभु-प्रेम के रंग में रंगे रहते हैं। कोई और (माया के मोह आदि का) रंग उन पर नहीं चढ़ता।

हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभु-मिलाप के लेख) लिखे होते हैं, उसको सदा कायम रहने वाले परमात्मा का मिलाप प्राप्त हो जाता है।4।2।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh