श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 770 सूही महला ३ ॥ जुग चारे धन जे भवै बिनु सतिगुर सोहागु न होई राम ॥ निहचलु राजु सदा हरि केरा तिसु बिनु अवरु न कोई राम ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई सदा सचु सोई गुरमुखि एको जाणिआ ॥ धन पिर मेलावा होआ गुरमती मनु मानिआ ॥ सतिगुरु मिलिआ ता हरि पाइआ बिनु हरि नावै मुकति न होई ॥ नानक कामणि कंतै रावे मनि मानिऐ सुखु होई ॥१॥ पद्अर्थ: जुग चारे = चारों ही युगों में। धन = जीव-स्त्री। सोहागु = प्रभु पति का मिलाप। निहचल = अटल, कभी ना हिलने वाला। केरा = का। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य। एको = एक परमात्मा ही। मेलावा = मिलाप। गुरमती = गुरु की मति पर चलने से। कामणि = जीव-स्त्री। कंतै रावै = पति प्रभु को हृदय में बसाती है। रावे = मिलाप भोगती है। मनि मानिऐ = अगर मन पतीज जाए।1। अर्थ: हे भाई! (युग चाहे कोई भी हो) गुरु (की शरण पड़े) बिना पति प्रभु का मिलाप नहीं होता, जीव-स्त्री चाहे चारों युगों में भटकती फिरे। उस प्रभु-पति का हुक्म अटल है (कि गुरु के द्वारा ही उसका मिलाप प्राप्त होता है)। उसके बिना कोई और उसकी बराबरी का नहीं (जो इस हुक्म को बदलवा सके)। हे भाई! जिस प्रभु के बिना उस जैसा और कोई नहीं। वह प्रभु स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है। गुरु के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री उस एक के साथ गहरी सांझ बनाती है। जब गुरु की मति पर चल के जीव-स्त्री का मन (परमात्म की याद में) रीझ जाता है, तब जीव-स्त्री का प्रभु-पति से मिलाप हो जाता है। हे भाई! जब गुरु मिलता है तब ही प्रभु की प्राप्ति होती है (गुरु ही) प्रभु का नाम जीव-स्त्री के हृदय में बसाता है, और परमात्मा के नाम के बिना (माया के बंधनो से) खलासी नहीं होती। हे नानक! अगर मन प्रभु की याद में रीझ जाए, तो जीव-स्त्री प्रभु के मिलाप का आनंद भोगती है, उसके हृदय में आनंद पैदा हुआ रहता है।1। सतिगुरु सेवि धन बालड़ीए हरि वरु पावहि सोई राम ॥ सदा होवहि सोहागणी फिरि मैला वेसु न होई राम ॥ फिरि मैला वेसु न होई गुरमुखि बूझै कोई हउमै मारि पछाणिआ ॥ करणी कार कमावै सबदि समावै अंतरि एको जाणिआ ॥ गुरमुखि प्रभु रावे दिनु राती आपणा साची सोभा होई ॥ नानक कामणि पिरु रावे आपणा रवि रहिआ प्रभु सोई ॥२॥ पद्अर्थ: सेवि = सेवा कर, शरण पड़। धन बालड़ीए = हे अंजान जिंदे! वरु = पति। पावहि = तू पा लेगी। होवहि = तू रहेगी। सोहागणी = पति वाली। मैला वेसु = रंडेपा, विधवा, प्रभु पति से विछोड़ा। (नोट: 'मैला वेसु' विधवा स्त्री को मैले कपड़े पहनने पड़ते हैं; रंडेपा, विधवा, प्रभु पति से विछोड़ा)। गुरमुखि = गुरु की शरण में रहने वाली जीव-स्त्री। रवि रहिआ = जो सब जगह मौजूद है।2। अर्थ: हे अंजान जीवात्मा! गुरु के बताए हुए काम किया कर, (इस तरह) तू प्रभु-पति को प्राप्त कर लेगी। तू सदा के लिए पति वाली (सोहागनि) हो जाएगी, फिर कभी प्रभु-पति से विछोड़ा नहीं होगा। कोई विरली जीव-स्त्री ही गुरु के बताए हुए मार्ग पर चल के इस बात को समझती है (कि गुरु के द्वारा प्रभु से मिलाप होने पर) फिर उससे कभी विछोड़ा नहीं होता। वह जीव-स्त्री (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके प्रभु से सांझ कायम रखती है। वह जीव-स्त्री (प्रभु स्मरण का) करने-योग्य कार्य करती रहती है, गुरु के शब्द में लीन रहती है, अपने हृदय में एक प्रभु के साथ जीव-स्त्री पहचान बनाए रखती है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री दिन-रात अपने प्रभु का नाम सिमरती रहती है, (लोक-परलोक में) उसको सदा कायम रहने वाली इज्जत मिलती है। वह जीव-स्त्री अपने उस प्रभु-पति को हर वक्त याद करती है जो हर जगह व्यापक है।2। गुर की कार करे धन बालड़ीए हरि वरु देइ मिलाए राम ॥ हरि कै रंगि रती है कामणि मिलि प्रीतम सुखु पाए राम ॥ मिलि प्रीतम सुखु पाए सचि समाए सचु वरतै सभ थाई ॥ सचा सीगारु करे दिनु राती कामणि सचि समाई ॥ हरि सुखदाता सबदि पछाता कामणि लइआ कंठि लाए ॥ नानक महली महलु पछाणै गुरमती हरि पाए ॥३॥ पद्अर्थ: करे = करि, कर। धन बालड़ीए = हे अंजान जिंदे! देइ मिलाए = देय मिलाय, मिला देता है। कै रंगि = के प्रेम रंग में। रती = रंगी हुई। कामणि = जीव-स्त्री। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। पछाता = पहचान लिया, सांझ डाल ली। कंठि = गले से। महली महलु = महल के मालिक प्रभु का महल।3। अर्थ: हे अंजान जिंदे! गुरु का बताया हुआ काम किया कर। गुरु प्रभु-पति के साथ मिला देता है। जो जीव-स्त्री प्रभु के प्रेम-रंग में रंगी जाती है, वह प्यारे प्रभु को मिल के आत्मिक आनंद पाती है। प्रभु प्रीतम को मिल के वह आत्मिक आनंद भोगती है, सदा स्थिर प्रभु में लीन रहती है, वह सदा स्थिर प्रभु उसे हर जगह बसता दिखाई देता है। वह जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभु की याद में मस्त रहती है, यही सदा कायम रहने वाला (आत्मिक) श्रंृगार दिन-रात वह किए रखती है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह जीव-स्त्री सारे सुख देने वाले प्रभु के साथ सांझ डालती है, उसको अपने गले से लगाए रखती है (गले में परोए रखती है, हर वक्त उसका जाप करती है)। हे नानक! वह जीव-स्त्री मालिक प्रभु का महल ढूँढ लेती है, गुरु की मति पर चल के वह प्रभु-पति का मिलाप प्राप्त कर लेती है।3। सा धन बाली धुरि मेली मेरै प्रभि आपि मिलाई राम ॥ गुरमती घटि चानणु होआ प्रभु रवि रहिआ सभ थाई राम ॥ प्रभु रवि रहिआ सभ थाई मंनि वसाई पूरबि लिखिआ पाइआ ॥ सेज सुखाली मेरे प्रभ भाणी सचु सीगारु बणाइआ ॥ कामणि निरमल हउमै मलु खोई गुरमति सचि समाई ॥ नानक आपि मिलाई करतै नामु नवै निधि पाई ॥४॥३॥४॥ पद्अर्थ: साधन बाली = अंजान जीव-स्त्री। धुरि = धुर दरगाह से। प्रभि = प्रभु ने। गुरमती = गुरु की मति पर चल के। घटि = हृदय में। मंनि = मन में। पूरबि = पूर्बले जन्म में। सेज = हृदय सेज। सुखाली = सुखी। प्रभ भाणी = प्रभु को अच्छी लगी। सचु सीगारु = सदा स्थिर हरि का नाम जपने का आत्मिक सुहज। कामणि = जीव-स्त्री। खोई = दूर कर ली। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। करतै = कर्तार ने। नवै निधि = नौ ही खजाने।4। अर्थ: हे भाई! जिस अंजान जीव-स्त्री को धुर दरगाह से मिलाप के लेख प्राप्त हुआ, उसको प्रभु ने स्वयं अपने चरणों से जोड़ लिया। उस जीव-स्त्री के हृदय में ये रौशनी हो गई कि परमात्मा हर जगह मौजूद है। सब जगह व्यापक प्रभु को उस जीव-स्त्री ने अपने मन में बसा लिया, पिछले जन्म के लिखे लेख (उसके माथे पर) उघड़ आए। वह जीव-स्त्री प्यारे प्रभु को अच्छी लगने लग पड़ी, उसकी हृदय-सेज आनंद-भरपूर हो गई, सदा-स्थिर प्रभु के नाम स्मरण को उसने (अपने जीवन का) श्रृंगार बना लिया। जो जीव-स्त्री गुरु की मति ले के सदा-स्थिर प्रभु के नाम में लीन हो जाती है, वह (अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर कर लेती है, वह पवित्र जीवन वाली बन जाती है। हे नानक! (कह:) कर्तार ने स्वयं उसे अपने साथ मिला लिया, उसने परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया, जो उसके लिए सृष्टि के नौ खजानों के तूल्य है।4।3।4। सूही महला ३ ॥ हरि हरे हरि गुण गावहु हरि गुरमुखे पाए राम ॥ अनदिनो सबदि रवहु अनहद सबद वजाए राम ॥ अनहद सबद वजाए हरि जीउ घरि आए हरि गुण गावहु नारी ॥ अनदिनु भगति करहि गुर आगै सा धन कंत पिआरी ॥ गुर का सबदु वसिआ घट अंतरि से जन सबदि सुहाए ॥ नानक तिन घरि सद ही सोहिला हरि करि किरपा घरि आए ॥१॥ पद्अर्थ: हरि हरे हरि गुण = सदा ही हरि के गुण। गुरमुखे = गुरु की शरण पड़ने से। अनदिनो = हर रोज। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। रवहु = स्मरण करो। वजाए = बजा के। अनहद = एक रस, लगातार। अनहद सबद वजाए = एक रस परमात्मा की महिमा की वाणी (के बाजे) बजा के। वजाए = बजाता है। घरि = हृदय घर में। नारी = हे नारियो! हे ज्ञानेन्द्रियो! गुर आगै = गुरु के सन्मुख हो के। साधन = वह जीव स्त्रीयां। सुहाए = सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं। सोहिला = खुशी के गीत। करि = कर के। आए = आता है।1। अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा के गुण गाया करो। (जो मनुष्य प्रभु के गुण गाता है वह) गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा को मिल जाता है। हे भाई! एक रस परमात्मा के महिमा की वाणी (के बाजे) बजा के गुरु के शब्द के द्वारा हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा की वाणी के बाजे एक-रस बजाता रहता है, परमात्मा उसके हृदय-गृह में प्रकट हो जाता है। हे (मेरी) ज्ञानेन्द्रियो! तुम भी परमात्मा की महिमा के गीत गाया करो। जो जीव-स्त्रीयां गुरु के सन्मुख हो के हर वक्त परमात्मा की भक्ति करती हैं, वे प्रभु-पति को प्यारी लगती हैं। हे नानक! जिस मनुष्यों के दिल में गुरु का शब्द बस पड़ता है, गुरु के शब्द की इनायत से उनका जीवन सुंदर बन जाता है, उनके हृदय-घर में सदा ही (मानो) खुशी के गीत चलते रहते हैं, प्रभु कृपा करके उनके हृदय-घर में आ बसता है।1। भगता मनि आनंदु भइआ हरि नामि रहे लिव लाए राम ॥ गुरमुखे मनु निरमलु होआ निरमल हरि गुण गाए राम ॥ निरमल गुण गाए नामु मंनि वसाए हरि की अम्रित बाणी ॥ जिन्ह मनि वसिआ सेई जन निसतरे घटि घटि सबदि समाणी ॥ तेरे गुण गावहि सहजि समावहि सबदे मेलि मिलाए ॥ नानक सफल जनमु तिन केरा जि सतिगुरि हरि मारगि पाए ॥२॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। नामि = नाम में। रहे लिव लाए = लगन लगा के रखते हैं। गुरमुखे = गुरु के सन्मुख रह के। गाए = गा के। मंनि = मन में। वसाए = बसा के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। सेई जन = वही मनुष्य। निसतरे = पार लांघ जाते हैं। घटि घटि = हरेक शरीर में। सबदि = शब्द के द्वारा। गावहि = गाते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समावहि = लीन रहते हैं। सबदि = शब्द की इनायत से। केरा = का। जि = जिस मनुष्यों को। सतिगुरि = गुरु ने। मारगि = रास्ते पर।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु के भक्तों के मन में आनंद बना रहता है, क्योकि वह परमात्मा के नाम में सदा तवज्जो जोड़े रखते हैं। गुरु के द्वारा परमात्मा के पवित्र गुण गा गा के उनका मन पवित्र हो जाता है। परमात्मा की आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी के द्वारा, प्रभु के पवित्र गुण गा गा के, प्रभु का नाम अपने मन में बसा के (उनका मन पवित्र हो जाता है)। हे भाई! जिस मनुष्यों के मन में परमात्मा का नाम बस जाता है, वे मनुष्य संसार सागर से पार लांघ जाते हैं। गुरु के शब्द की इनायत सेउनको परमात्मा हरेक शरीर में बसता दिखता है। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे गुण गाते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। गुरु अपने शब्द के द्वारा उनको (हे प्रभु!) तेरे चरणों में जोड़ देता है। हे नानक! उन मनुष्यों का जनम कामयाब हो जाता है, जिनको गुरु परमात्मा के रास्ते पर चला देता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |