श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सा धन आसा चिति करे राम राजिआ हरि प्रभ सेजड़ीऐ आई ॥ मेरा ठाकुरु अगम दइआलु है राम राजिआ करि किरपा लेहु मिलाई ॥ मेरै मनि तनि लोचा गुरमुखे राम राजिआ हरि सरधा सेज विछाई ॥ जन नानक हरि प्रभ भाणीआ राम राजिआ मिलिआ सहजि सुभाई ॥३॥

पद्अर्थ: साधन = जीव-स्त्री। चिति = चिक्त में। राम राजिआ = हे प्रभु पातशाह! हरि = हे हरि! प्रभ = हे प्रभु! सेजड़ीऐ = सुंदर सेज पर, (मेरे हृदय की) सोहणी सेज पे। ठाकुर = मालिक। प्रभ = हे प्रभु! अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। दइआलु = दया का घर। करि = कर के। मेरै मनि = मेरे मन में। मेरै तनि = मेरे तन में। लोचा = तमन्ना। गुरमुखे = गुरु की शरण पड़ कर। सरधा सेज = श्रद्धा की सेज। प्रभ भाणीआ = प्रभु को अच्छी लगती है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाई = प्रेम में (टिकी को)।3।

अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ी रहने वाली) जीव-स्त्री (अपने) चिक्त में (नित्य प्रभु-पति के मिलाप की) आस करती रहती है (और कहती है:) हे प्रभु पातशाह! हे हरि! हे प्रभु! (मेरे हृदय की) सुदर सेज पर आ (के बस)। हे प्रभु पातशाह! तू मेरा मालिक है, तू दया का श्रोत है, (पर तू मेरे लिए) अगम्य (पहुँच से परे) है (तू स्वयं ही) मेहर कर के (मुझे अपने चरणों में) मिला ले। हे प्रभु पातशाह! गुरु की शरण पड़ कर मेरे मन में, मेरे तन में (तेरे मिलाप की) तमन्ना पैदा हो चुकी है। हे हरि! मैंने श्रद्धा की सेज बिछा रखी है।

हे दास नानक! (कह:) हे प्रभु पातशाह! हे हरि! जो जीव-स्त्री तुझे प्यारी लग जाती है, तू उस आत्मिक अडोलता में टिकी को प्रेम में ठहरी हुई को मिल जाता है।3।

इकतु सेजै हरि प्रभो राम राजिआ गुरु दसे हरि मेलेई ॥ मै मनि तनि प्रेम बैरागु है राम राजिआ गुरु मेले किरपा करेई ॥ हउ गुर विटहु घोलि घुमाइआ राम राजिआ जीउ सतिगुर आगै देई ॥ गुरु तुठा जीउ राम राजिआ जन नानक हरि मेलेई ॥४॥२॥६॥५॥७॥६॥१८॥

पद्अर्थ: इकतु = एक पर ही। इकतु सेजै = एक ही हृदय सेज पर। हरि प्रभो = हरि प्रभु (बसता है)। दसे = बताता है। मेलेई = मिला देता है। मै मनि = मेरे मन में। मै तनि = मेरे तन में। बैरागु = तीव्र तमन्ना। करेई = करता है। हउ = मैं। विटहु = से। घोलि घुमाइआ = सदके कुर्बान जाता हूँ। जीउ = जिंद। देई = मैं देता हूं। तुठा = प्रसन्न होया हुआ। जीउ राम राजिआ = हे प्रभु पातशाह जी!।4।

नोट: ‘इकतु’ शब्द है ‘इकसु’ से बना अधिकरण कारक एकवचन।

नोट: शब्द ‘राम राजिआ’ छंत की टेक के लिए ही है।

अर्थ: हे भाई! (जीव-स्त्री की) एक ही (हृदय-) सेज पर हरि प्रभु (बसता है), (जिस जीव-स्त्री को) गुरु बताता है, उसको हरि से मिलवा देता है। मेरे मन में मेरे हृदय में (प्रभु के मिलाप के लिए) आकर्षण है तमन्ना है (पर जिस जीव-स्त्री पर) गुरु मेहर करता है, उसको (प्रभु से) मिलाता है।

हे भाई! मैं गुरु से सदके कुर्बान जाता हूँ, मैं (अपनी) जिंद को गुरु के आगे अर्पित करता हूँ। हे दास नानक! (कह:) जिस पर गुरु दयालु होता है, उसको हरि-प्रभु से मिला देता है।4।2।6।18।

अंकों का वेरवा:
महला १---------------- 5
महला ३---------------- 7
महला ४---------------- 6
कुल जोड़----------------18

रागु सूही छंत महला ५ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सुणि बावरे तू काए देखि भुलाना ॥ सुणि बावरे नेहु कूड़ा लाइओ कुस्मभ रंगाना ॥ कूड़ी डेखि भुलो अढु लहै न मुलो गोविद नामु मजीठा ॥ थीवहि लाला अति गुलाला सबदु चीनि गुर मीठा ॥ मिथिआ मोहि मगनु थी रहिआ झूठ संगि लपटाना ॥ नानक दीन सरणि किरपा निधि राखु लाज भगताना ॥१॥

पद्अर्थ: बावरे = (माया के मोह में) पागल हुए हे मनुष्य! काए = क्यों? देखि = (इस माया को) देख के। भुलाना = (जीवन-राह से) भटक गया है। कूड़ा = झूठा, ना निभ सकने वाला। कुसंभ रंगाना = कुसंभ के फूल के रंग। कूड़ी = नाशवान। डेखि = देख के। अढु = आधी कौड़ी। थीवहि = तू हो जाएगा। लाला = एक फूल का नाम। चीन्हि = पहचान के। मिथिआ = नाशवान पदार्थ। मोहि = मोह में। मगनु = मस्त। संगि = साथ। दीन = गरीबी। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! लाज = इज्जत।1।

अर्थ: (माया के मोह में) पागल हो रहे हे मनुष्य! (जो कुछ मैं कह रहा हूँ, इसको ध्यान से) सुन। तू (माया को) देख के क्यों (जीवन-राह से) भटक रहा है। हे बावरे! सुन, (ये माया) कुसंभ के रंग (जैसी है, तूने इससे) प्यार डाला हुआ है जो सदा निभने वाला नहीं। तू (उस) नाशवान (माया) को देख के जीवन-राह से भटक रहा है, (जो आखिर) आधी कौड़ी के बदले में भी नहीं खरीदी जा सकती। हे भाई! परमात्मा का नाम ही मजीठ के पक्के रंग की तरह सदा साथ (निभाने वाला) है। अगर तू गुरु के मीठे शब्द से गहरी सांझ डाल के (परमात्मा का नाम जपता रहे, तो) तू सुंदर गहरे रंग वाले लाल फूल बन जाएगा। पर तू तो नाशवान (माया) के मोह में मस्त हो रहा है, तू उन पदार्थों के साथ चिपक रहा है जिनसे तेरा साथ नहीं निभना।

हे नानक! (कह:) हे दया के खजाने प्रभु! (मैं) गरीब (तेरी) शरण (आया हूँ मेरी) इज्जत रख, (जैसे) तू अपने भक्तों की (इज्जत रखता आया है)।1।

सुणि बावरे सेवि ठाकुरु नाथु पराणा ॥ सुणि बावरे जो आइआ तिसु जाणा ॥ निहचलु हभ वैसी सुणि परदेसी संतसंगि मिलि रहीऐ ॥ हरि पाईऐ भागी सुणि बैरागी चरण प्रभू गहि रहीऐ ॥ एहु मनु दीजै संक न कीजै गुरमुखि तजि बहु माणा ॥ नानक दीन भगत भव तारण तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥२॥

पद्अर्थ: सेवि = सेवा भक्ति कर। नाथु पराणा = प्राणों के नाथ, जिंद के मालिक। तिसु जाणा = उसको (यहाँ से) जाना (भी पड़ेगा)। हभ = सारी सृष्टि। निहचलु = अटल। रहीऐ = मिल के रहना चाहिए, (प्रभु की याद में) मिले रहना चाहिए। पाईऐ = मिलता है। बैरागी = (माया के मोह की ओर से) उपराम (रह कर)। गहि = पकड़ के। रहीऐ = टिके रहना चाहिए। दीजै = भेटा कर दे। संक = शंका, झिझक। न कीजै = नहीं करनी चाहिए। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। माणा = अहंकार। भव = संसार समुंदर। आखि = कह के। वखाणा = मैं बताऊँ।2।

अर्थ: हे बावरे! सुन; जिंद के मालिक प्रभु की सेवा-भक्ति किया कर। हे झल्ले! सुन! (यहाँ सदा किसी ने नहीं बैठे रहना) जो (जीव जगत में) आया है उसको (यहाँ से) जाना भी पड़ेगा।

हे पराए देश में आए जीव! सुन, (जिस जगत को तू) अटल (समझ रहा है, यह) सारी सृष्टि नाश हो जाएगी। हे परदेसी! साधु-संगत में टिक के प्रभु-चरणों में जुड़े रहना चाहिए। हे भाई! सुन, (माया के मोह से) उपराम (हो के ही) अच्छी किस्मत से प्रभु को मिला जा सकता है, (इस वास्ते) प्रभु के चरणों को अच्छी तरह पकड़ के रखना चाहिए।

हे भाई! ये मन गुरु के हवाले कर, (इसमें रक्ती भर भी) झिझकना नहीं चाहिए। गुरु की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर।

हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह:) हे (शरण पड़े) गरीबों को और भक्तों को संसार-समुंदर से पार लंघाने वाले! (तू बेअंत गुणों का मालिक है) मैं तेरे कौन-कौन से गुण कह के बता सकता हूँ?।2।

सुणि बावरे किआ कीचै कूड़ा मानो ॥ सुणि बावरे हभु वैसी गरबु गुमानो ॥ निहचलु हभ जाणा मिथिआ माणा संत प्रभू होइ दासा ॥ जीवत मरीऐ भउजलु तरीऐ जे थीवै करमि लिखिआसा ॥ गुरु सेवीजै अम्रितु पीजै जिसु लावहि सहजि धिआनो ॥ नानकु सरणि पइआ हरि दुआरै हउ बलि बलि सद कुरबानो ॥३॥

पद्अर्थ: किआ कीचै = नहीं करना चाहिए। कूड़ा = झूठा। मानो = अहंकार। हभु = सारा। गरबु = गर्व, अहंकार। निहचलु = अटल। हभ = सारी सृष्टि। मिथिआ = झूठा। होइ = बना रहे। जीवत मरीऐ = अगर जीते जी मरे रहें, अगर सदा स्वै भाव दूर किए रखें। भउजलु = संसार समुंदर। थीवै = होए। करमि = (प्रभु की) मेहर से। सेवीजै = शरण पड़ना चाहिए। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीजै = पीना चाहिए। लावहि = (हे प्रभु!) तू जोड़ता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जिसु धिआनो = जिस की तवज्जो, ध्यान। हरि दुआरै = हरि के दर पे। हउ = मैं। सद = सदा।3।

अर्थ: हे बावरे! (नाशवान पदार्थों का) झूठा अहंकार नहीं करना चाहिए। हे बावरे! सुन, (पदार्थों से संबंध टूटने पर ये) सारा गर्व और गुमान भी खत्म हो जाएगा। हे भाई1 जिस जगत को (तू) सदा स्थिर समझता है, यह सारी सृष्टि चलायमान है, इसका मान करना झूठा कर्म है। (यहाँ) गुरु का प्रभु का दास बने रहना चाहिए। अगर सदा स्वै भाव दूर किए रखें, तो संसार-समुंदर से पार लांघा जाता है, (पर ये तब ही हो सकता है,) अगर (परमात्मा की) मेहर से (माथे पर लेख) लिखे हों। हे भाई! गुरु की शरण पड़े रहना चाहिए (गुरु से ही) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया जा सकता है। (पर, हे प्रभु! वही मनुष्य तेरा नाम-अमृत पीता है) जिसकी तवज्जो तू आत्मिक अडोलता में टिकाता है।

हे हरि! (तेरा दास) नानक तेरे दर पर तेरी शरण आ पड़ा है। मैं (तुझसे) सदा-सदा कुर्बान जाता हूँ।3।

सुणि बावरे मतु जाणहि प्रभु मै पाइआ ॥ सुणि बावरे थीउ रेणु जिनी प्रभु धिआइआ ॥ जिनि प्रभु धिआइआ तिनि सुखु पाइआ वडभागी दरसनु पाईऐ ॥ थीउ निमाणा सद कुरबाणा सगला आपु मिटाईऐ ॥ ओहु धनु भाग सुधा जिनि प्रभु लधा हम तिसु पहि आपु वेचाइआ ॥ नानक दीन सरणि सुख सागर राखु लाज अपनाइआ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: मतु जाणहि = कहीं तू ये समझे। पाइआ = पा लिया है। थीउ = हो जा। रेणु = चरण धूल। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिनि = उसने। पाईऐ = प्राप्त होता है। सद = सदा। आपु = स्वै भाव। धनु = धन्य, सराहनीय। भाग सुधा = शुद्ध भाग्य, अच्छे भाग्य। लधा = पा लिया, ढूँढ लिया। हम = मैं। आपु = अपना आप। पहि = पास। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर! अपनाइआ = अपने (सेवक की)।4।

अर्थ: हे (माया के मोह में) झल्ले (हो रहे) मनुष्य (जो कुछ मैं कर रहा हूँ, ध्यान से) सुन। ये ना समझ कि (माया के गुमान में रहके भी) मैंने (भाव, तूने) परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है। हे बावरे! सुन, जिस लोगों ने परमात्मा का स्मरण किया है, (उनके) चरणों की धूल बना रह (तब ही प्रभु-मिलाप होता है)।

हे भाई! जिस (मनुष्य) ने परमात्मा का स्मरण किया है, उसने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है। बड़े भाग्यों से ही (परमात्मा के) दर्शन होते हैं। गरीब स्वभाव वाला बना रहा कर, (जिन्होंने प्रभु का स्मरण किया है, उन पर से) सदा सदके हुआ कर। हे भाई! सवै भाव (अहंकार भाव) अच्छी तरह से दूर कर देना चाहिए।

हे भाई! जिस (मनुष्य) ने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया, वह साराहनीय हो गया, उसके भाग्य उत्तम हो गए। मैंने तो अपना-आप ऐसे मनुष्य के आगे भेट कर दिया है।

हे नानक! (कह:) हे गरीबों की सहायता करने वाले! हे सुखों के समुंदर! (मैं तेरी शरण आया हूँ) अपने सेवक की इज्जत रख।4।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh