श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 779 गुर मिलि सागरु तरिआ ॥ हरि चरण जपत निसतरिआ ॥ हरि चरण धिआए सभि फल पाए मिटे आवण जाणा ॥ भाइ भगति सुभाइ हरि जपि आपणे प्रभ भावा ॥ जपि एकु अलख अपार पूरन तिसु बिना नही कोई ॥ बिनवंति नानक गुरि भरमु खोइआ जत देखा तत सोई ॥३॥ पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। सागरु = (संसार-) सागर। जपत = जपते हुए। निसतरिआ = निस्तारा हो गया, पार उतारा हो सकता है। धिआए = तवज्जो जोड़ता है। सभि = सारे। आवण जाणा = जनम मरण के चक्कर। भाइ = प्यार से। भगति सुभाइ = भक्ति वाले स्वभाव में टिक के। जपि = जप के। प्रभ भावा = प्रभु को अच्छा लगता है। अलख = जिसका सही स्वरूप बताया ना जा सके। अपार = जिसकी हस्ती का परला छोर ना मिले। गुरि = गुरु ने। जपि = जपा कर। जत = जिधर। देखा = मैं देखता हूँ। तत = उधर। सोई = वही प्रभु।3। अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के परमात्मा का नाम जपने से संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकता है। जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है वह सारी मुँह मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है, उसके जनम-मरण के चक्कर भी मिट जाते हैं। प्यार के द्वारा, भक्ति वाले स्वभाव के द्वारा परमात्मा का नाम जप के वह मनुष्य अपने प्रभु को प्यारा लगने लगता है। हे भाई! अदृश्य बेअंत और सर्व-व्यापक परमात्मा का नाम जपा कर, उसके बिना और कोई नहीं है। नानक विनती करता है: गुरु ने (मेरी) भटकना दूर कर दी है, (अब) मैं जिधर देखता हूँ, उधर वह (परमात्मा) ही (दिखता है)।3। पतित पावन हरि नामा ॥ पूरन संत जना के कामा ॥ गुरु संतु पाइआ प्रभु धिआइआ सगल इछा पुंनीआ ॥ हउ ताप बिनसे सदा सरसे प्रभ मिले चिरी विछुंनिआ ॥ मनि साति आई वजी वधाई मनहु कदे न वीसरै ॥ बिनवंति नानक सतिगुरि द्रिड़ाइआ सदा भजु जगदीसरै ॥४॥१॥३॥ पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। के कामा = के (सारे) काम। पाइआ = पाया, मिलाप हासिल किया। सगल = सारी। इछा = मुराद। पुंनीआ = पूरी हो गई। हउ ताप = अहंकार का ताप। सरसे = प्रसन्न। प्रभ मिले = प्रभु को मिल गए। चिरी = चिरों के। मनि = मन में। साति = शांति, ठंढ। वजी वधाई = चढ़ती कला प्रबल हो गई। मनहु = मन से। सतिगुरि = गुरु ने। जगदीसरै = (जगत+ईसरै) जगत के ईश्वर को। भजु = भजन किया कर।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है और संत जनों के सारे काम सिरे चढ़ाने वाला है। जिनको संत-गुरु मिल गया, उन्होंने प्रभु का नाम स्मरणा आरम्भ कर दिया, उनकी सारी मुरादें पूरी होने लग पड़ीं, (उनके अंदर से) अहंकार के कष्ट नाश हो गए, वे सदैव प्रफुल्लित रहने लग पड़े, चिरों से विछुड़े हुए वे प्रभु को मिल गए। उनके मन में (नाम-जपने की इनायत से) ठंड पड़ गई, उनके अंदर चढ़दीकला (प्रगतिशील जीवन की उमंग) प्रबल हो गई, परमात्मा का नाम उन्हें कभी नहीं भूलता। नानक विनती करता है: (हे भाई! गुरु ने ये बात हृदय में) पक्की कर दी है कि सदा जगत के मालिक का नाम जपते रहा करो।4।1।3। रागु सूही छंत महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तू ठाकुरो बैरागरो मै जेही घण चेरी राम ॥ तूं सागरो रतनागरो हउ सार न जाणा तेरी राम ॥ सार न जाणा तू वड दाणा करि मिहरमति सांई ॥ किरपा कीजै सा मति दीजै आठ पहर तुधु धिआई ॥ गरबु न कीजै रेण होवीजै ता गति जीअरे तेरी ॥ सभ ऊपरि नानक का ठाकुरु मै जेही घण चेरी राम ॥१॥ पद्अर्थ: ठाकुरो = ठाकुर, मालिक, पालनहार। बैरागरो = वासना रहित, चाहत बगैर, बैरागी। मै जेही = मेरे जैसी। घण = अनेक। चेरी = दासियाँ। राम = हे राम! रतनागरो = रत्नों की खान, रतनाकरु, रत्न आकर। हउ = मैं। सार = कद्र। दाणा = सियाना, समझदार। मिहरंमति = मेहर। सांई = हे सांई! कीजै = करिए। दीजै = दे। मति = अकल। सा = ऐसी। धिआई = मैं ध्याऊँ। गरबु = अहंकार। रेण = चरण धूल। होवीजै = हो जा। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। जीअरे = हे जीव!।1। अर्थ: हे (मेरे) राम! तू (सब जीवों का) मालिक है, तेरे पर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। मेरे जैसी (तेरे दर पे) अनेक दासियाँ हैं। हे राम! तू समुंदर है। तू रत्नों की खान है। हे प्रभु! मैं तेरी कद्र नहीं समझ सकी। हे मेरे मालिक! मैं (तेरे गुणों की) कद्र नहीं जानती, तू बड़ा समझदार है (सब कुछ जानने वाला है), (मेरे पर) मेहर कर। कृपा कर, मुझे ऐसी समझ बख्श कि आठों पहर मैं तेरा स्मरण करती रहूँ। हे जिंदे! अहंकार नहीं करना चाहिए, (सबके) चरणों की धूल बने रहना चाहिए, तब ही तेरी उच्च आत्मिक अवस्था बन सकेगी। हे नानक! (कह:) मेरा मालिक प्रभु सबके सिर पर है। मेरे जैसी (उसके दर पे) अनेक दासियां हैं।1। तुम्ह गउहर अति गहिर ग्मभीरा तुम पिर हम बहुरीआ राम ॥ तुम वडे वडे वड ऊचे हउ इतनीक लहुरीआ राम ॥ हउ किछु नाही एको तूहै आपे आपि सुजाना ॥ अम्रित द्रिसटि निमख प्रभ जीवा सरब रंग रस माना ॥ चरणह सरनी दासह दासी मनि मउलै तनु हरीआ ॥ नानक ठाकुरु सरब समाणा आपन भावन करीआ ॥२॥ पद्अर्थ: गउहर = (बहुत ही कीमती) मोती। गहिरा = गहरा, अथाह (समुंदर)। गंभीरा = बड़े जिगरे वाला। पिर = पति। हम = हम जीव। बहुरीआ = दुल्हनें। लहुरीआ = छोटी। इतनीक = बहुत ही छोटी। हउ = मैं। आपे = स्वयं ही। सुजाना = समझदार। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। द्रिसटि = निगाह। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। प्रभ = हे प्रभु! जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ती हूँ। माना = मान ले। मनि मउलै = मन खिल उठा। हरीआ = हरा भरा। भावन = मर्जी।2। अर्थ: हे प्रभु! तू एक (अनमोल) मोती है, तू अथाह (समुंदर) है, तू बहुत बड़े जिगरे वाला है, तू (हमारा) पति है, हम जीव तेरी पत्नियाँ हैं। तू बेअंत बड़ा है, तू बेअंत ऊँचा है। मैं बहुत ही छोटी सी हस्ती वाली हूँ। हे भाई! मेरी कुछ भी पाया नहीं है, एक तू ही तू है, तू खुद ही खुद सब कुछ जानने वाला है। हे प्रभु! आँख झपकने जितने समय के लिए मिली तेरी अमृत-दृष्टि से मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है (ऐसे होता है जैसे) मैंने सारे रंग-रस भोग लिए हैं। मैंने तेरे चरणों की शरण ली है, मैं तेरे दासों की दासी हूँ (आत्मिक जीवन देने वाली तेरी निगाह की इनायत से) जब मेरा मन खिल उठता है, मेरा शरीर (भी) हरा-भरा हो जाता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) मालिक-प्रभु सब जीवों में समा रहा है, वह (हर वक्त हर जगह) अपनी मर्जी करता है।2। तुझु ऊपरि मेरा है माणा तूहै मेरा ताणा राम ॥ सुरति मति चतुराई तेरी तू जाणाइहि जाणा राम ॥ सोई जाणै सोई पछाणै जा कउ नदरि सिरंदे ॥ मनमुखि भूली बहुती राही फाथी माइआ फंदे ॥ ठाकुर भाणी सा गुणवंती तिन ही सभ रंग माणा ॥ नानक की धर तूहै ठाकुर तू नानक का माणा ॥३॥ पद्अर्थ: माणा = मान, फख़र। ताणा = ताण, बल, सहारा। मति = बुद्धि। सुरति = सूझ। जाणाइहि = (जो कुछ) तू समझाता है। जाणा = मैं समझता हूँ। सेई = वही मनुष्य। जा कउ = जिस पर। नदरि = मिहर की निगाह। सिरंदे = विधाता की। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। भुली = सही जीवन की ओर से भटकी हुई। राही = राहों में। फंदे = फाही में। भाणी = अच्छी लगी। तिन ही = उस ने ही। धर = आसरा। ठाकुर = हे ठाकुर!।3। नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे राम! मेरा माण तेरे ऊपर ही है, तू ही मेरा आरसरा है। (जो भी कोई) सूझ, बुद्धि, समझदारी (मेरे अंदर है, वह) तेरी (ही बख्शी हुई है) जो कुछ तू मुझे समझाता है, वही मैं समझता हूँ। हे भाई! वही मनुष्य (सही जीवन को) समझता-पहचानता है, जिस पर विधाता की मेहर की निगाह होती है। अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री अनेक और रास्तों पर चल-चल के (सही जीवन-राह से) भटकी रहती है, माया के जंजाल में फसी रहती है। जो जीव-स्त्री मालिक-प्रभु को अच्छी लगती है, वह गुणवान हो जाती है, उसने ही सारे आत्मिक आनंद भोगे हैं। हे ठाकुर! नानक का सहारा तू ही है, नानक का माण (भी) तू ही है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |