श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हउ वारी वंञा घोली वंञा तू परबतु मेरा ओल्हा राम ॥ हउ बलि जाई लख लख लख बरीआ जिनि भ्रमु परदा खोल्हा राम ॥ मिटे अंधारे तजे बिकारे ठाकुर सिउ मनु माना ॥ प्रभ जी भाणी भई निकाणी सफल जनमु परवाना ॥ भई अमोली भारा तोली मुकति जुगति दरु खोल्हा ॥ कहु नानक हउ निरभउ होई सो प्रभु मेरा ओल्हा ॥४॥१॥४॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी वंञा = वारी वंजा, मैं कुर्बान जाती हूँ; मैं तुझसे सदके कुर्बान जाती हूँ। घोली = सदके। ओला = पर्दा। बलि जाई = मैं सदके जाती हूँ। बरीआ = बारी। जिनि = जिसने। भ्रमु = भटकना। तजे = त्याग दिए। सिउ = साथ। माना = मान गया। प्रभ भाणी = प्रभु को अच्छी लगी। निकाणी = बेमुथाज। भारा तोली = भार वाले तोल वाली। मुकति = विकारों से मुक्ति। जुगति = जीवन की विधि। दरु = दरवाजा।4।

अर्थ: हे प्रभु! मेरे लिए (तो) तू पहाड़ (के समान) ओट है, मैं तुझसे लाखों बार सदके जाती हूँ, जिसने (मेरे अंदर से) भटकना वाली दूरी मिटा दी है।

हे भाई! जिस जीव-स्त्री का मन मालिक-प्रभु के साथ पतीज जाता है, वह सारे विकार त्याग देती है। (उसके अंदर से माया के मोह वाले) अंधेरे दूर हो जाते हैं। (जो जीव-स्त्री) प्रभु को अच्छी लगने लग जाती है, वह (दुनिया की ओर से) बे-मुथाज हो जाती है, उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है, वह प्रभु दर पर स्वीकार हो जाती है। उसकी जिंदगी बहुत ही कीमती हो जाती है, भार वाले तोल वाली हो जाती है, उसके लिए वह दरवाजा खुल जाता है जहाँ उसको विकारों से खलासी मिल जाती है और सही जीवन की विधि आ जाती है।

हे नानक! जब से वह प्रभु मेरा सहारा बन गया है, मैं (विकारों, माया के हमलों की ओर से) निडर हो गई हूँ।4।1।4।

सूही महला ५ ॥ साजनु पुरखु सतिगुरु मेरा पूरा तिसु बिनु अवरु न जाणा राम ॥ मात पिता भाई सुत बंधप जीअ प्राण मनि भाणा राम ॥ जीउ पिंडु सभु तिस का दीआ सरब गुणा भरपूरे ॥ अंतरजामी सो प्रभु मेरा सरब रहिआ भरपूरे ॥ ता की सरणि सरब सुख पाए होए सरब कलिआणा ॥ सदा सदा प्रभ कउ बलिहारै नानक सद कुरबाणा ॥१॥

पद्अर्थ: न जाणा = मैं नहीं जानता। सुत = पुत्र। बंधप = सन्बंधी। जीअ = जिंद। मनि = मन में। भाणा = प्यारा लगता है।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। अंतरजामी = दिलों की जानने वाला। सरब = सब जीवों में। ता की = उस प्रभु की। कलिआणा = सुख आनंद। कउ = को, से। सद = सदा।1।

नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! गुरु महापुरुष ही मेरा (असल) सज्जन है, उस (गुरु) के बिना मैं किसी और को नहीं जानता (जो मुझे परमात्मा की समझ दे सके)। हे भाई! (गुरु मुझे) मन में (ऐसे) प्यारा लग रहा है (जैसे) माता, पिता, पुत्र, संबंधी, जिंद, प्राण (प्यारे लगते हैं)।

हे भाई! (गुरु ने यह समझ बख्शी है कि) जिंद-शरीर सब कुछ उस (परमात्मा) का दिया हुआ है, (वह परमात्मा) सारे गुणों से भरपूर है। (गुरु ने ही मति दी है कि) हरेक के दिल की जानने वाला मेरा वह प्रभु सब जगह व्यापक है। उसकी शरण पड़ने से सारे सुख-आनंद मिलते हैं।

हे नानक! (कह: गुरु की कृपा से ही) मैं परमात्मा से सदा ही सदा ही सदा ही सदके कुर्बान जाता हूँ।1।

ऐसा गुरु वडभागी पाईऐ जितु मिलिऐ प्रभु जापै राम ॥ जनम जनम के किलविख उतरहि हरि संत धूड़ी नित नापै राम ॥ हरि धूड़ी नाईऐ प्रभू धिआईऐ बाहुड़ि जोनि न आईऐ ॥ गुर चरणी लागे भ्रम भउ भागे मनि चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ हरि गुण नित गाए नामु धिआए फिरि सोगु नाही संतापै ॥ नानक सो प्रभु जीअ का दाता पूरा जिसु परतापै ॥२॥

पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वाले। पाईऐ = मिलता है। जितु = जिससे। जितु मिलिऐ = जिस (गुरु) के मिलने से। जापै = समझ में आ जाती है। किलविख = पाप (सारे)। उतरहि = उतर जाते हैं (बहुवचन)। नापै = स्नान होता रहता है। नाईऐ = स्नान कर सकते हैं। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है। बाहुड़ि = दोबारा। लागे = लग के। मनि चिंदिआ = मन में चितारा हुआ। सोगु = ग़म। संतापै = दुख-कष्ट। जीअ = जिंद, आत्मिक जीवन।2।

अर्थ: हे भाई! ऐसा गुरु बड़े भाग्यों से मिलता है, जिसके मिलने से (हृदय में) परमात्मा की समझ पड़ने लग जाती है, अनेक जन्मों के (सारे) पाप दूर हो जाते हैं, और हरि के संत जनों के चरणों की धूल में सदा स्नान होता रहता है। (जिस गुरु के मिलने से) प्रभु के संत जनों की चरण-धूल में स्नान हो सकता है, प्रभु का स्मरण हो सकता है और दोबारा जन्मों के चक्कर में नहीं पड़ते।

हे भाई! गुरु के चरणों में लग के भ्रम-डर नाश हो जाते हैं, मन में चितरे हुए हरेक फल प्राप्त हो जाते हैं। (गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य ने) सदा परमात्मा के गुण गाए हैं; परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसको फिर कोई ग़म कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकता।

हे नानक! (गुरु की कृपा से समझ आ जाती है कि) जिस परमात्मा का पूरा प्रताप है, वही जिंद देने वाला (आत्मिक जीवन देने वाला है)।2।

हरि हरे हरि गुण निधे हरि संतन कै वसि आए राम ॥ संत चरण गुर सेवा लागे तिनी परम पद पाए राम ॥ परम पदु पाइआ आपु मिटाइआ हरि पूरन किरपा धारी ॥ सफल जनमु होआ भउ भागा हरि भेटिआ एकु मुरारी ॥ जिस का सा तिन ही मेलि लीआ जोती जोति समाइआ ॥ नानक नामु निरंजन जपीऐ मिलि सतिगुर सुखु पाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: गुण निधे = गुणों का खजाना। कै वसि = के वश में। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। आपु = स्वै भाव। सफल = कामयाब। भउ = (हरेक) डर। भेटिआ = मिला। मुरारी = (मुर+अरि। अरि = वैरी) परमात्मा। सा = था, पैदा किया था। तिन ही = उसने ही। नामु निरंजन = निरंजन का नाम। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया के मोह की कालिख) निर्लिप। मिलि = मिल के।3।

नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! सारे गुणों का खजाना परमात्मा संत जनों के (प्यार के) बस में टिका रहता है। जो मनुष्य संतजनों के चरण पड़ के गुरु की सेवा में लगे, उन्होंने सबसे ऊँचे आत्मिक दर्जे प्राप्त कर लिए।

हे भाई! जिस मनुष्य पर पूर्ण प्रभु ने मेहर की, (उसने अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लिया, उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल करा लिया। उसकी जिंदगी कामयाब हो गई, उसका (हरेक) डर दूर हो गया, उसको वह परमात्मा मिल गया जो एक स्वयं ही स्वयं है। जिस परमात्मा का वह पैदा किया हुआ था, उसने ही (उसको अपने चरणों में) मिला लिया, उस मनुष्य की जिंद परमात्मा की ज्योति में एक-मेक हो गई।

हे नानक! निर्लिप प्रभु का नाम (सदा) जपना चाहिए, (जिसने) गुरु को मिल के (नाम जपा, उसने) आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया।3।

गाउ मंगलो नित हरि जनहु पुंनी इछ सबाई राम ॥ रंगि रते अपुने सुआमी सेती मरै न आवै जाई राम ॥ अबिनासी पाइआ नामु धिआइआ सगल मनोरथ पाए ॥ सांति सहज आनंद घनेरे गुर चरणी मनु लाए ॥ पूरि रहिआ घटि घटि अबिनासी थान थनंतरि साई ॥ कहु नानक कारज सगले पूरे गुर चरणी मनु लाई ॥४॥२॥५॥

पद्अर्थ: मंगलो = मंगल, खुशी के गीत, महिमा के गीत। हरि जनहु = हे संत जनो! पुंनी = पूरी हो जाती है। इछ = इच्छा, जरूरत। सबाई = सारी। रंगि = प्रेम रंग में। सेती = साथ। न आवै जाई = (जो) पैदा होता मरता नहीं। अबिनासी = नाश रहित। सगल = सारे। सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = बहुत। पूरि रहिआ = व्यापक है। घटि घटि = हरेक शरीर में। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। साई = वह (प्रभु) ही। लाई = लगा के।4।

अर्थ: हे संत जनो! सदा (परमात्मा की) महिमा के गीत गाया करो, (महिमा के प्रताप से) हरेक मुराद पूरी हो जाती है। जो प्रभु कभी जनम-मरन के चक्कर में नहीं आता (महिमा की इनायत से मनुष्य) उस मालिक के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं।

जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया उसने नाश-रहित प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया, उसने सारी मुरादें हासिल कर लीं। हे भाई! गुरु के चरणों में मन जोड़ के मनुष्य शांति प्राप्त करता है, आत्मिक अडोलता में आनंद लेता है। हे नानक! कह: (हे भाई!) गुरु के चरणों में मन लगा के सारे काम सफल हो जाते हैं, (नाम-जपने की इनायत से यह निश्चय बन जाता है कि) नाश-रहित परमात्मा ही हरेक जगह में हरेक शरीर में व्याप रहा है।4।2।5।

सूही महला ५ ॥ करि किरपा मेरे प्रीतम सुआमी नेत्र देखहि दरसु तेरा राम ॥ लाख जिहवा देहु मेरे पिआरे मुखु हरि आराधे मेरा राम ॥ हरि आराधे जम पंथु साधे दूखु न विआपै कोई ॥ जलि थलि महीअलि पूरन सुआमी जत देखा तत सोई ॥ भरम मोह बिकार नाठे प्रभु नेर हू ते नेरा ॥ नानक कउ प्रभ किरपा कीजै नेत्र देखहि दरसु तेरा ॥१॥

पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! देखहि = देखते रहें। जिहवा = जीभ। पिआरे = हे प्यारे! आराधे = जपता रहे। जम पंथु = यमराज का रास्ता। साधे = जीत ले। न विआपै = जोर ना डाल सके। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = धरती की तह पर, अंतरिक्ष में, आकाश में, मही तलि। जत = जिधर। देखां = देखूँ। तत = उधर।1।

अर्थ: हे मेरे प्रीतम! हे मेरे स्वामी! मेहर कर, मेरी आँखें तेरे दर्शन करती रहें। हे मेरे प्यारे! मुझे लाख जीभें दे (मेरी जीभें तेरा नाम जपती रहें। मेहर कर) मेरा मुँह तेरा हरि-नाम जपता रहे। (मेरा मुँह) तेरा नाम जपता रहे (जिससे) यमराज वाला रास्ता जीता जा सके, और कोई भी दुख (मेरे पर अपना) जोर ना डाल सके। पानी में, धरती में, आकाश में व्यापक हे स्वामी! (मेहर कर) मैं जिधर देखूँ, उधर (मुझे) वह तेरा ही रूप दिखे।

हे भाई! (हरि-नाम जपने की इनायत से) सारे भ्रम, सारे मोह, सारे विकार नाश हो जाते हैं, परमात्मा नजदीक से नजदीक दिखाई देने लग जाता है।

हे प्रभु! नानक पर मेहर कर, (नानक की) आँखें (हर जगह) तेरा ही दर्शन करती रहें।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh