श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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काइआ नगर महि राम रसु ऊतमु किउ पाईऐ उपदेसु जन करहु ॥ सतिगुरु सेवि सफल हरि दरसनु मिलि अम्रितु हरि रसु पीअहु ॥२॥

पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। ऊतमु = श्रेष्ठ, सब से बढ़िया। जन = हे संत जनो! सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ के। सफल = फल देने वाला, आत्मिक जीवन-रूप फल देने वाला। मिलि = (गुरु को) मिल के।2।

अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। दिखहु = देख लो। तिन्ह = उनको। सभि बिख रसहु = सारे जहर रस, सारे वह रस जो आत्मिक जीवन के लिए जहर हैं।3।

अर्थ: (शहरों में खाने-पीने के लिए कई किस्मों के स्वादिष्ट पदार्थ मिलते हैं। मनुष्य का) शरीर (भी, जैसे, एक शहर है, इस) शहर में परमात्मा का नाम (सब पदार्थों से) उत्तम स्वादिष्ट पदार्थ है। (पर) हे संतजनो! (मुझे) समझाओ कि ये कैसे हासिल हो। (संत जन यही बताते हैं कि गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का (आत्मिक जीवन-) फल देने वाले दर्शन करो, गुरु को मिल के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहो।2।

हरि हरि नामु अम्रितु हरि मीठा हरि संतहु चाखि दिखहु ॥ गुरमति हरि रसु मीठा लागा तिन बिसरे सभि बिख रसहु ॥३॥

अर्थ: हे संतजनो! बेशक चख के देख लो, परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला मीठा जल है। गुरु की शिक्षा पर चल के जिस मनुष्यों को यह नाम-रस स्वादिष्ट लगता है, आत्मिक जीवन को खत्म कर देने वाले और सारे रस उनको भूल जाते हैं।3।

राम नामु रसु राम रसाइणु हरि सेवहु संत जनहु ॥ चारि पदारथ चारे पाए गुरमति नानक हरि भजहु ॥४॥४॥

पद्अर्थ: रसाइणु = (रस+अयन) रसों का घर, श्रेष्ठ रस। चारे = चार ही। चारि पदारथ = (धर्म अर्थ काम मोक्ष)।4।

अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम स्वादिष्ट पदार्थ है, रसायन है, सदा इसका सेवन करते रहो (इसका प्रयोग हमेशा करते रहो)। हे नानक! (जगत में कुल) चार पदार्थ (गिने गए हैं, नाम-रसायन की इनायत से यह) चारों ही मिल जाते हैं। (इस वास्ते) गुरु की मति ले के हमेशा हरि-नाम का भजन करते रहो।4।4।

बिलावलु महला ४ ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु को जापै हरि मंत्रु जपैनी ॥ गुरु सतिगुरु पारब्रहमु करि पूजहु नित सेवहु दिनसु सभ रैनी ॥१॥

पद्अर्थ: सूदु = शूद्र। वैस = वैश। को = हर कोई। जापै = जप सकता है। जपैनी = जपने योग्य। करि = कर के, (का रूप) जान के। पूजहु = सेवा करो, शरण पड़ो। रैनी = रात।1।

अर्थ: कोई खत्री हो, चाहे ब्राहमण हो, कोई शूद्र हो चाहे वैश हो, हरेक (श्रेणी का) मनुष्य प्रभु का नाम-मंत्र जप सकता है (ये सबके लिए) जपने-योग्य है। हे हरि जनो! गुरु को परमात्मा का रूप जान के गुरु की शरण पड़ो। दिन-रात हर वक्त गुरु की शरण पड़े रहो।1।

हरि जन देखहु सतिगुरु नैनी ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु हरि बोलहु गुरमति बैनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि के सेवको! नैनी = आँखों से, आँखें खोल के। बैनी = वचन, बोल। हरि बैनी = हरि की महिमा के बोल।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु के सेवक जनो! गुरु को आँखें खोल के देखो (गुरु पारब्रहम का रूप है)। गुरु की दी हुई मति पर चल कर परमात्मा के महिमा के वचन बोलो, जो इच्छा करोगे वही फल प्राप्त कर लोगे।1। रहाउ।

अनिक उपाव चितवीअहि बहुतेरे सा होवै जि बात होवैनी ॥ अपना भला सभु कोई बाछै सो करे जि मेरै चिति न चितैनी ॥२॥

पद्अर्थ: उपाव = ढंग, तदबीर। चितविअहि = चितवे जाते हैं। सा = वही। जि = जो। होवैनी = (प्रभु के हुक्म में) होनी है। सभु कोई = हरेक जीव। बाछै = चाहता है। सो = वह (काम)। जि = जो। मेरै चिति = मेरे चिक्त में। मेरै चिति न चितैनी = ना मेरे चिक्त में, मेरे चिक्त ना चेते।2।

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

नोट: ‘चितविअहि’ है करमवाच, वर्तमान काल, अन्य-पुरुष, बहुवचन।

अर्थ: (गुरु परमेश्वर का आसरा-सहारा भुला के अपनी भलाई के) अनेक और बहुत सारे ढंग सोचे जाते हैं, पर बात वही होती है जो (रजा के अनुसार) जरूर होनी होती है। हरेक जीव अपना भला चाहता है, पर प्रभु वह काम कर देता है जो मेरे आपके चिक्त में भी नहीं होता।2।

मन की मति तिआगहु हरि जन एहा बात कठैनी ॥ अनदिनु हरि हरि नामु धिआवहु गुर सतिगुर की मति लैनी ॥३॥

पद्अर्थ: तिआगहु = छोड़ो। हरि जन = हे हरि के जनो! कठैनी = कठिन, मुश्किल। अनुदिनु = हर रोज। लैनी = ले के।3।

अर्थ: हे संतजनो! अपने मन की मर्जी (पर चलना) छोड़ दो (गुरु के हुक्म में चलो), पर ये बात है बहुत मुश्किल। (फिर भी) गुरु पातशाह की मति ले के हर वक्त परमात्मा का नाम जपा करो।3।

मति सुमति तेरै वसि सुआमी हम जंत तू पुरखु जंतैनी ॥ जन नानक के प्रभ करते सुआमी जिउ भावै तिवै बुलैनी ॥४॥५॥

पद्अर्थ: सुमति = अच्छी अक्ल। वसि = वश में। सुआमी = हे स्वामी! हे मालिक! जंत = बाजे। पुरखु = सवै व्यापक मालिक। जंतैनी = बाजे बजाने वाला। करते = हे कर्तार! जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। बुलैनी = (तू) बुलाता है।4।

अर्थ: हे मालिक प्रभु! अच्छी-बुरी मति तेरे अपने वश में है (तेरी प्रेरणा के अनुसार ही कोई जीव भले राह पर चलता है और कोई बुरे राह पर), हम तो तेरे बाजे (साज) हैं, तू हमें बजाने वाला सबमें बसने वाला प्रभु है। हे दास नानक के मालिक प्रभु कर्तार! जैसे तुझे अच्छा लगता है वैसे ही तू हमें बुलाता है (हमारे मुँह से बोल निकलवाता है)।4।5।

बिलावलु महला ४ ॥ अनद मूलु धिआइओ पुरखोतमु अनदिनु अनद अनंदे ॥ धरम राइ की काणि चुकाई सभि चूके जम के छंदे ॥१॥

पद्अर्थ: अनद मूल = आनंद का श्रोत। पुरखोतमु = उत्तम पुरख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। अनंदे = आनंद में ही। काणि = अधीनता, धौंस, डर। सभि = सारे। चूके = समाप्त हो गए। छंदे = खुशामदें, मुलाहज़े।1।

अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य ने आनंद के श्रोत उत्तम पुरख प्रभु का नाम स्मरण किया, वह हर वक्त आनंद ही आनंद में लीन रहता है, उसको धर्मराज की मुहताजी नहीं रहती, वह मनुष्य यमराज के भी सारे डर खत्म कर देता है।1।

जपि मन हरि हरि नामु गुोबिंदे ॥ वडभागी गुरु सतिगुरु पाइआ गुण गाए परमानंदे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! परमानंदे = सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु के।1। रहाउ।

नोट: ‘गुोबिंदे’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘गोबिंदे’, यहाँ ‘गुबिंदे’ पढ़ना है।

अर्थ: हे (मेरे) मन! हरि गोबिंद का नाम सदा जपा कर। जिस अति भाग्यशाली मनुष्य को गुरु मिल गया, वह सबसे ऊँचे आनंद के मालिक प्रभु के गुण गाता है (सो, हे मन! गुरु की शरण पड़)।1। रहाउ।

साकत मूड़ माइआ के बधिक विचि माइआ फिरहि फिरंदे ॥ त्रिसना जलत किरत के बाधे जिउ तेली बलद भवंदे ॥२॥

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटे हुए। मूढ़ = मूर्ख। बधिक = बँधे हुए। फिरहि = फिरते हैं। त्रिसना = लालच (की आग)। किरत = पिछले किए कर्म। के = के।2।

अर्थ: हे मन! परमात्मा से टूटे हुए मूर्ख मनुष्य माया (के मोह) में बँधे रहते हैं, और माया की खातिर ही सदा भटकते रहते हैं। अपने किए कर्मों के संस्कारों में बँधे हुए वह मनुष्य तृष्णा (की आग) में जलते रहते हैं और (जनम-मरण के चक्कर में) भटकते रहते हैं जैसे तेलियों के बैल कोहलू के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं।2।

गुरमुखि सेव लगे से उधरे वडभागी सेव करंदे ॥ जिन हरि जपिआ तिन फलु पाइआ सभि तूटे माइआ फंदे ॥३॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। से = वह लोग (बहुवचन)। उधरे = (तृष्णा की आग में जलने से) बच जाते हैं। सेव = सेवा भक्ति। सभि फंदे = सारी फाहियाँ।3।

अर्थ: हे मन! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर प्रभु की सेवा-भक्ति में लग गए, वे (तृष्णा की आग में जलने से) बच गए। (पर, हे मन!) बहुत भाग्यशाली मनुष्य ही सेवा-भक्ति करते हैं। जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम जपा, उन्होंने (तृष्णा अग्नि में जलने से बचने का) फल प्राप्त कर लिया। उनकी माया की सारी ही बँदिशें टूट जाती हैं।3।

आपे ठाकुरु आपे सेवकु सभु आपे आपि गोविंदे ॥ जन नानक आपे आपि सभु वरतै जिउ राखै तिवै रहंदे ॥४॥६॥

पद्अर्थ: आपे = आप ही। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है।4।

अर्थ: (पर हे मन!) प्रभु स्वयं ही (जीवों का) मालिक है (सब में व्यापक हो के) खुद ही (अपनी) सेवा-भक्ति करने वाला है, हर जगह गोबिंद-रूप खुद ही खुद मौजूद है। हे दास नानक! हर जगह प्रभु स्वयं ही स्वयं बस रहा है। जैसे वह (जीवों को) रखता है उसी तरह ही जीव जीवन निर्वाह करते हैं (कोई उसका स्मरण करते हैं, कोई माया में भटकते हैं)।4।6।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु बिलावलु महला ४ पड़ताल घरु १३ ॥

बोलहु भईआ राम नामु पतित पावनो ॥ हरि संत भगत तारनो ॥ हरि भरिपुरे रहिआ ॥ जलि थले राम नामु ॥ नित गाईऐ हरि दूख बिसारनो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पड़ताल = (पटहताल। पटह = ढोल) उस तरह की भरवीं ताल जैसे ढोल पर डगे से चोट मारी जाती है। भईआ = हे भाई! पतित = विकारों में गिरे हुए, विकारी। पावनो = पवित्र करने वाला। तारनो = पार लंघाने वाला। भरिपूरे = भरपूर, नाको नाक, हर जगह मौजूद। जलि = जल में। थले = थल में। दूख बिसारनो = दुखों को दूर करने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, जो विकारियों को पवित्र बनाने वाला है, जो अपने संतों को अपने भक्तों को (संसार-समुंदर से) पार लंघाने वाला है, जो (सारे जगत में) हर जगह मौजूद है। हे भाई! उस हरि की महिमा के गीत सदा गाने चाहिए, जो पानी में है, जो धरती में है, जो (जीवों के) सारे दुख दूर करने वाला है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh