श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरि कीआ है सफल जनमु हमारा ॥ हरि जपिआ हरि दूख बिसारनहारा ॥ गुरु भेटिआ है मुकति दाता ॥ हरि कीई हमारी सफल जाता ॥ मिलि संगती गुन गावनो ॥१॥

पद्अर्थ: सफल = कामयाब। भेटिआ = मिला। मुकति दाता = (विकारों से) आजादी देने वाला। कीई = की है। जाता = यात्रा, संसार यात्रा, संसार में आना। मिलि = मिल के।1।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा ने मेरी जिंदगी कामयाब बना दी है, (क्योंकि गुरु की कृपा से) मैं उस परमात्मा का नाम जपने लग पड़ा हूँ, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है। (हे भाई!) विकारों से खलासी दिलाने वाला गुरु मुझे मिल गया, (इसलिए) परमात्मा ने मेरी जीवन-यात्रा कामयाब कर दी है। (अब) मैं साधु-संगत में मिल के प्रभु की महिमा के गीत गाता हूँ।1।

मन राम नाम करि आसा ॥ भाउ दूजा बिनसि बिनासा ॥ विचि आसा होइ निरासी ॥ सो जनु मिलिआ हरि पासी ॥ कोई राम नाम गुन गावनो ॥ जनु नानकु तिसु पगि लावनो ॥२॥१॥७॥४॥६॥७॥१७॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! भाउ = प्यार। भाउ दूजा = माया का मोह। सो जनु = वह मनुष्य। पासी = पास, नजदीक। तिसु पगि = उस (मनुष्य) के पैर में।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम के ऊपर ही डोरी रख, परमात्मा का नाम माया के मोह को पूर्ण तौर पर (अंदर से) खत्म कर देता है। (हे भाई!) जो मनुष्य दुनिया के काम-काज में रहता हुआ माया के मोह से निर्लिप रहता है, वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में मिला रहता है। (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है, दास नानक उसके पैर लगता है।2।1।7।4।6।7।17।

नोट:
अंक1– महला ४ का घरु १३ का -----1 शब्द
महला ४ के कुल सात ----------------7 शब्द
महला १ के 4; म.३ के 6 और म. ४ के 7.
जोड़-------------------------------------17

रागु बिलावलु महला ५ चउपदे घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

नदरी आवै तिसु सिउ मोहु ॥ किउ मिलीऐ प्रभ अबिनासी तोहि ॥ करि किरपा मोहि मारगि पावहु ॥ साधसंगति कै अंचलि लावहु ॥१॥

पद्अर्थ: नदरी आवै = (जो कुछ आँखों से) दिख रहा है। सिउ = साथ। प्रभ = हे प्रभु! तोहि = तुझे। करि = कर के। मोहि = मुझे। मारगि = (सही जीवन) राह पर। कै अंचलि = के पल्ले से।1।

अर्थ: हे सदा-स्थिर रहने वाले! जो कुछ आँखों से दिख रहा है, मेरा उससे सदा मोह बना रहता है (पर तू इन आँखों से दिखता नहीं) तुझे मैं किस तरह मिलूँ? (हे प्रभु!) कृपा करके मुझे (जीवन के सही) रास्ते पर चला, मुझे साधु-संगत के पल्ले से लगे दे।1।

किउ तरीऐ बिखिआ संसारु ॥ सतिगुरु बोहिथु पावै पारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किउ = कैसे? बिखिआ = माया। बोहिथु = जहाज। पावै पारि = पार लंघा देता है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) ये संसार माया (के मोह की लहरों से भरपूर) है (इसमें से) कैसे पार लांघा जाए? (उक्तर-) गुरु जहाज़ है (गुरु इस समुंदर में से) पार लंघाता है।1। रहाउ।

पवन झुलारे माइआ देइ ॥ हरि के भगत सदा थिरु सेइ ॥ हरख सोग ते रहहि निरारा ॥ सिर ऊपरि आपि गुरू रखवारा ॥२॥

पद्अर्थ: पवनु = हवा। झुलारे = झकोले। देइ = देती है। थिरु = अडोल। सोइ = वही (लोग)। हरख = खुशी। सोग = ग़म। ते = से। निराला = निराले, निर्लिप।2।

अर्थ: (हे भाई!) हवा (की तरह) माया (जीवों को) हिलोरे देती रहती है, (इन हिलौरों के सामने सिर्फ) वही लोग अडोल रहते हैं जो सदा प्रभु की भक्ति करते हैं। जिस मनुष्यों के सिर पर गुरु स्वयं रखवाली करने वाला है, वह मनुष्य खुशी-ग़मी (के हिलौरों) से अलग (निर्लिप) रहते हैं।2।

पाइआ वेड़ु माइआ सरब भुइअंगा ॥ हउमै पचे दीपक देखि पतंगा ॥ सगल सीगार करे नही पावै ॥ जा होइ क्रिपालु ता गुरू मिलावै ॥३॥

पद्अर्थ: वेड़ु = वलेवां, चारों तरफ उलझा हुआ घेरा बना होना। भुइअंगा = साँप। पचे = जले हुए। दीपक = दीए। देखि = देख के। सगल = सारे।3।

अर्थ: (हे भाई!) साँप (की तरह) माया ने सारे जीवों के चारों तरफ घेरा डाला हुआ है। जीव अहंकार (की आग) में जले हुए हैं जैसे दीयों को देख के पतंगे जलते हैं। (माया-ग्रसित जीव चाहे बाहर के भेस आदि के) सारे श्रृंगार करता रहे, (फिर भी वह) परमात्मा को मिल नहीं सकता। जब परमात्मा स्वयं (जीव पर) दयावान होता है, तो (उसको) गुरु मिलाता है।3।

हउ फिरउ उदासी मै इकु रतनु दसाइआ ॥ निरमोलकु हीरा मिलै न उपाइआ ॥ हरि का मंदरु तिसु महि लालु ॥ गुरि खोलिआ पड़दा देखि भई निहालु ॥४॥

पद्अर्थ: फिरउ = मैं फिरती हूँ। दसाइआ = पूछा। उपाइआ = उपायों से। हरि का मंदरु = मानव शरीर। गुरि = गुरु ने। निहालु = प्रसंन।4।

अर्थ: (हे भाई!) मैं (भी) नाम-रत्न को तलाशती-तलाशती (बाहर) उदास फिर रही थी, पर वह नाम हीरा अमूल्य है वह (बाहरी भेख आदि) उपायों से नहीं मिलता। (ये शरीर भी) परमात्मा के रहने का घर है, इस (शरीर) में वह लाल बस रहा है। जब गुरु ने (मेरे अंदर से भ्रम-भुलेखे का) परदा खोल दिया, मैं (उस लाल को अपने अंदर ही) देख के पूरी तरह से खिल उठी।4।

जिनि चाखिआ तिसु आइआ सादु ॥ जिउ गूंगा मन महि बिसमादु ॥ आनद रूपु सभु नदरी आइआ ॥ जन नानक हरि गुण आखि समाइआ ॥५॥१॥

चउपदे = चार बंदों वाले शब्द। पर ये पहला शब्द ‘पंचपदा’ है। इससे आगे 17 शब्द चउपदे हैं।

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। सादु = स्वाद। बिसमादु = हैरान, बहुत खुश। आनद रूपु = आनंद का स्वरूप प्रभु। सभु = हर जगह। आखि = कह के, गा के। समाइआ = लीन हो गया।5।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने (नाम-रस) चखा है, उसको (ही) स्वाद आया है। (पर वह यह स्वाद बता नहीं सकता) जैसे गूँगा (कोई स्वादिष्ट पदार्थ खा के और लोगों को बता नहीं सकता वैसे अपने) मन में बहुत गद-गद हो जाता है। हे दास नानक! जो मनुष्य प्रभु के गुण गा-गा के (प्रभु में) लीन रहता है उसको वह आनंद का श्रोत हर जगह बसता दिखता है।5।1।

बिलावलु महला ५ ॥ सरब कलिआण कीए गुरदेव ॥ सेवकु अपनी लाइओ सेव ॥ बिघनु न लागै जपि अलख अभेव ॥१॥

पद्अर्थ: सरब कलिआण = सारे सुख। कीए = बना दिए। सेव = सेवा भक्ति में। बिघनु = विकारों की रुकावट। जपि = जप के। अलख = अदृष्य। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।1।

अर्थ: (हे भाई!) जिस सेवक को प्रभु अपनी सेवा-भक्ति में लगाता है, गुरु उसको सारे सुख दे देता है। अलख और अभेव परमात्मा का नाम जप के (उस मनुष्य की जिंदगी के रास्ते में विकारों की कोई) रुकावट नहीं पड़ती।1।

धरति पुनीत भई गुन गाए ॥ दुरतु गइआ हरि नामु धिआए ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पुनीत = पवित्र। धरति = हृदय धरती। दुरतु = पाप।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य) परमात्मा के गुण गाता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है। जो भी मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है (उसके हृदय में से) पाप दूर हो जाता है।1। रहाउ।

सभनी थांई रविआ आपि ॥ आदि जुगादि जा का वड परतापु ॥ गुर परसादि न होइ संतापु ॥२॥

पद्अर्थ: रविआ = व्यापक। आदि = शुरू से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। परसादि = कृपा से। संतापु = दुख-कष्ट।2।

अर्थ: (जिस मनुष्य को प्रभु अपनी सेवा-भक्ति में जोड़ता है, उसको) वह प्रभु ही हर जगह मौजूद दिखता है। जिसका तेज-प्रताप शुरू से जुगों के आरम्भ से बहुत ज्यादा चला आ रहा है। गुरु की कृपा से उस मनुष्य को कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकता।2।

गुर के चरन लगे मनि मीठे ॥ निरबिघन होइ सभ थांई वूठे ॥ सभि सुख पाए सतिगुर तूठे ॥३॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। होइ = हो के। सभ थांई = हर जगह (जहाँ भी वह रहता है)। वूठे = बसता है। सभि = सारे। तूठे = प्रसन्न होने पर।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु के (सोहणे) चरण (अपने) मन में प्यारे लगते हैं, वह जहाँ भी बसता है हर जगह (विकारों की) रुकावट से बचा रहता है। उस मनुष्य पर गुरु दयावान होता है, और, वह सारे सुख प्राप्त कर लेता है।3।

पारब्रहम प्रभ भए रखवाले ॥ जिथै किथै दीसहि नाले ॥ नानक दास खसमि प्रतिपाले ॥४॥२॥

पद्अर्थ: जिथै किथै = हर जगह। दीसहि = दिखते हैं। नाले = अंग संग। खसमि = पति ने। प्रतिपाले = रक्षा की है।4।

नोट: भूतकाल का अर्थ वर्तमान काल में करना है।

अर्थ: हे नानक! पति-प्रभु ने सदा ही अपने दासों की रक्षा की है, प्रभु-पारब्रहम जी सदा अपने सेवकों के रखवाले बनते हैं। सेवकों को प्रभु जी हर जगह अपने अंग-संग दिखते हैं।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh