श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरिचंदउरी चित भ्रमु सखीए म्रिग त्रिसना द्रुम छाइआ ॥ चंचलि संगि न चालती सखीए अंति तजि जावत माइआ ॥ रसि भोगण अति रूप रस माते इन संगि सूखु न पाइआ ॥ धंनि धंनि हरि साध जन सखीए नानक जिनी नामु धिआइआ ॥२॥

पद्अर्थ: हरिचंदउरी = हरीचंद नगरी, हवाई किला। भ्रम = भ्रम, भुलेखा। म्रिग त्रिसना = मृग तृष्णा, ठग नीरा। द्रुम = वृक्ष। छाइआ = छाया। चंचलि = (स्त्रीलिंग) कहीं एक जगह ना टिकने वाली। संगि = से। अंति = आखिर को। रसि = स्वाद से। अति = बहुत। माते = मस्त। इन संगि = इनकी संगति में रहने से। धंनि = भाग्यशाली।2।

अर्थ: हे सहेलिए! यह माया (जैसे) हवाई किला है, मन को भटकना में डालने का साधन है, मृग-तृष्णा है, वृक्ष की छाया है। कभी भी एक जगह ना टिक सकने वाली ये माया किसी के साथ नहीं जाती, ये आखिर में (साथ) छोड़ जाती है। स्वाद से दुनिया के पदार्थ भोगने, दुनियाँ के रूपों और रसों में मस्त रहना- हे सखिए! इनकी संगति में आत्मिक आनंद नहीं मिलता। हे नानक! (कह:) हे सहेलिए! भाग्यशाली हैं परमात्मा के भक्त जिन्होंने सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया है।2।

जाइ बसहु वडभागणी सखीए संता संगि समाईऐ ॥ तह दूख न भूख न रोगु बिआपै चरन कमल लिव लाईऐ ॥ तह जनम न मरणु न आवण जाणा निहचलु सरणी पाईऐ ॥ प्रेम बिछोहु न मोहु बिआपै नानक हरि एकु धिआईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: जाइ = जा के। बसहु = बसो, टिको। तह = वहाँ। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। लिव = तवज्जो, ध्यान। बिछोहु = विछोड़ा।3।

अर्थ: हे भाग्यशाली सहेलिए! जा के साधु-संगत में टिका कर। गुरमुखों की ही संगति में सदा टिकना चाहिए। वहाँ टिकने से दुनिया के दुख, माया की तृष्णा, कोई रोग आदिक- ये कोई भी अपना जोर नहीं डाल सकते। (साधु-संगत में जा के) प्रभु के सुंदर चरणों में तवज्जो जोड़नी चाहिए। साधु-संगत में रहने से जनम-मरण का चक्कर नहीं सताता, मन की अडोलता कायम रहती है। सो, प्रभु की शरण में पड़े रहना चाहिए। हे नानक! (साधु-संगत की इनायत से) प्रभु-प्रेम की गैर-मौजूदगी और माया का मोह- ये कोई भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। सत-संगति में सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है।3।

द्रिसटि धारि मनु बेधिआ पिआरे रतड़े सहजि सुभाए ॥ सेज सुहावी संगि मिलि प्रीतम अनद मंगल गुण गाए ॥ सखी सहेली राम रंगि राती मन तन इछ पुजाए ॥ नानक अचरजु अचरज सिउ मिलिआ कहणा कछू न जाए ॥४॥२॥५॥

पद्अर्थ: धारि = धार के, कर के। द्रिसटि = निगाह, नजर। बेधिआ = भेद लिया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्यार में। सेज = हृदय सेज। सुहावी = सुख देने वाली। मिलि = मिल के। गाए = गा के। रंगि = रंग में, प्रेम में। अचरजु = हैरान करने वाली हालत में पहुँचा हुआ जीव।4।

अर्थ: हे प्यारे! (प्रभु)! मेहर की निगाह करके तूने जिनका मन अपने चरणों में परो लिया है, वे आत्मिक अडोलता में, प्रेम में, सदा रंगे रहते हैं। हे प्रीतम! तेरे (चरणों) से मिल के उनका हृदय आनंद-भरपूर हो जाता है, तेरे गुण गा-गा के उनके अंदर आनंद बना रहता है।

हे नानक! जो (सत्संगी) सहेलियाँ प्रभु के प्रेम-रंग में रंगी रहती हैं, प्रभु उनके मन की तन की हरेक इच्छा पूरी करता है, उनकी (ऊँची हो चुकी) जिंद आश्चर्य-रूप प्रभु से इस प्रकार मिल जाती है कि (उस अवस्था का) बयान नहीं किया जा सकता।4।2।5।

रागु बिलावलु महला ५ घरु ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

एक रूप सगलो पासारा ॥ आपे बनजु आपि बिउहारा ॥१॥

पद्अर्थ: एक रूप = एक (परमात्मा के अनेक) रूप। सगलो = सारा। पासारा = जगत खिलारा। आपे = आप ही।1।

अर्थ: हे भाई! ये सारा जगत-पसारा उस एक (परमात्मा के ही अनेक) रूप हैं। (सब जीवों में व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही (जगत का) वणज-व्यवहार कर रहा है।1।

ऐसो गिआनु बिरलो ई पाए ॥ जत जत जाईऐ तत द्रिसटाए ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गिआनु = सूझ। ई = ही। बिरलो ई = कोई विरला मनुष्य ही। जत कत = जहाँ तहाँ। द्रिसटाए = दिखता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जगत में जिस-जिस ओर चले जाएं, हर तरफ़ परमात्मा ही नज़र आता है। पर यह सूझ कोई विरला मनुष्य ही हासिल करता है।1। रहाउ।

अनिक रंग निरगुन इक रंगा ॥ आपे जलु आप ही तरंगा ॥२॥

पद्अर्थ: निरगुन = जिस पर माया के तीनों गुणों का प्रभाव नहीं पड़ता। तरंगा = लहरें।2।

अर्थ: हे भाई! सदा एक-रंग रहने वाले और माया के तीन गुणों से निर्लिप परमात्मा के ही (जगत में दिखाई दे रहे) अनेक रंग-तमाशे हैं। वह प्रभु स्वयं ही पानी है, और, स्वयं ही (पानी में उठ रही) लहरें हैं (जैसे पानी और पानी की लहरें एक ही रूप हैं, वैसे ही परमात्मा से ही जगत के अनेक रूप-रंग बने हैं)।2।

आप ही मंदरु आपहि सेवा ॥ आप ही पूजारी आप ही देवा ॥३॥

पद्अर्थ: आप ही = स्वयं ही। आपहि = आप ही। देवा = देवता।3।

नोट: ‘आप ही’ में से शब्द ‘आपि’ की ‘पि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही मन्दिर है, खुद ही सेवा-भक्ति है, खुद ही (मन्दिर में) देवता है, और स्वयं ही (देवते का) पुजारी है।3।

आपहि जोग आप ही जुगता ॥ नानक के प्रभ सद ही मुकता ॥४॥१॥६॥

नोट: यहाँ से आगे घरु ४ के चउपदे आरम्भ होते हैं।

पद्अर्थ: जोग = जोगी। जुगता = जोग की जुगति, जोग के साधन। मुकता = निर्लिप।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही जोगी है, स्वयं ही जोग का साधन है। (सब जीवों में व्यापक होता हुआ भी) नानक का परमात्मा सदा ही निर्लिप है।4।1।6।

नोट: अंक1 बताता है कि घरु ४ का यह पहला चउपदा है।

बिलावलु महला ५ ॥ आपि उपावन आपि सधरना ॥ आपि करावन दोसु न लैना ॥१॥

पद्अर्थ: उपावन = पैदा करने (वाला)। सधरना = (धन = आसरा) आसरा देने वाला। करावन = (जीवों से काम) करवाने वाला।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (सब जीवों को) पैदा करने वाला है, और स्वयं ही (सबको) सहारा देने वाला है। (सबमें व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही (सब जीवों से) काम करवाने वाला है, पर प्रभु (इन कामों का) दोष अपने ऊपर नहीं लेता।1।

आपन बचनु आप ही करना ॥ आपन बिभउ आप ही जरना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बचनु = हुक्म। बिभउ = प्रताप, ऐश्वर्य। जरना = बर्दाश्त करना, (दुख) सहता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (हरेक जीव में व्यापक हो के) अपने बोल (प्रभु स्वयं ही बोल रहा है, और) खुद ही (उस बोल के अनुसार) काम कर रहा है।1। रहाउ।

आप ही मसटि आप ही बुलना ॥ आप ही अछलु न जाई छलना ॥२॥

पद्अर्थ: मसटि = चुप। बुलना = बोलता। बुलना = बोलता, बोलने वाला।2।

अर्थ: (हरेक में मौजूद है। यदि कोई मौनधारी बैठा है, तो उस में) प्रभु खुद ही मौनधारी है, (अगर कोई बोल रहा है, तो उसमें) प्रभु स्वयं ही बोल रहा है। प्रभु स्वयं ही (किसी में बैठा) माया के प्रभाव से परे है, माया उसे छल नहीं सकती।2।

आप ही गुपत आपि परगटना ॥ आप ही घटि घटि आपि अलिपना ॥३॥

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घर में। अलिपना = निर्लिप।3।

अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (सब जीवों में) छुपा बैठा है, और, (जगत-रचना के रूप में) स्वयं ही प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। प्रभु स्वयं ही हरेक शरीर में बस रहा है, (हरेक में बसता हुआ) प्रभु स्वयं ही निर्लिप है।3।

आपे अविगतु आप संगि रचना ॥ कहु नानक प्रभ के सभि जचना ॥४॥२॥७॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। अविगतु = अव्यक्त, अदृष्ट। संगि = साथ। रचना = श्रृष्टि। सभि = सारे। जचना = करिश्मे, चोज।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही अदृष्ट है, खुद ही (अपनी रची हुई) सृष्टि के साथ मिला हुआ है। हे नानक! कह: (जगत में दिखाई दे रहे ये) सारे करिश्मे प्रभु के अपने ही हैं।4।2।7।

बिलावलु महला ५ ॥ भूले मारगु जिनहि बताइआ ॥ ऐसा गुरु वडभागी पाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: भूले = (जीवन के सही मार्ग से) भूलते जा रहे को। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। जिनहि = जिनि ही, जिस (गुरु) ने। वड भागी = बड़े भाग्यों से।1।

अर्थ: (हे मन!) ऐसा गुरु बड़े भाग्यों से ही मिलता है, जो (जीवन के सही रास्ते से) विचलित होते जा रहे मनुष्य को (जिंदगी का सही) रास्ता बता देता है।1।

सिमरि मना राम नामु चितारे ॥ बसि रहे हिरदै गुर चरन पिआरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मना = हे मन! चितारे = चितार के, ध्यान जोड़ के। हिरदै = हृदय में।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! ध्यान जोड़ के परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (पर वही मनुष्य हरि नाम का स्मरण करता है, जिसके) हृदय में प्यारे सतिगुरु के चरन बसे रहते हैं (इसलिए, हे मन! तू भी गुरु का आसरा ले)।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh