श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कामि क्रोधि लोभि मोहि मनु लीना ॥ बंधन काटि मुकति गुरि कीना ॥२॥

पद्अर्थ: कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। लीना = फसा हुआ। काटि = काट के। गुरि = गुरु ने। मुकति = मुक्ति।2।

अर्थ: (हे मन! देख, मनुष्य का) मन (सदा) काम में, क्रोध में लोभ में फंसा रहता है। (पर जब वह गुरु की शरण आया), गुरु ने (उसके ये सारे) बंधन काट के उसको (इन विकारों से) खलासी दे दी।2।

दुख सुख करत जनमि फुनि मूआ ॥ चरन कमल गुरि आस्रमु दीआ ॥३॥

पद्अर्थ: करत = करते हुए। जनमि = जनम में (आ के), पैदा हो के। फुनि = दोबारा। गुरि = गुरु ने। आस्रमु = आश्रम, सहारा, ठिकाना।3।

अर्थ: हे मन! दुख-सुख करते हुए मनुष्य कभी मरता है कभी जी उठता है (दुख के आने पर सहम जाता है, सुख मिलने पर आराम की साँस लेने लग जाता है। इस प्रकार डुबकियाँ लेते हुए जब मनुष्य गुरु की शरण आया) गुरु ने उसको सुंदर चरणों का आसरा दे दिया।3।

अगनि सागर बूडत संसारा ॥ नानक बाह पकरि सतिगुरि निसतारा ॥४॥३॥८॥

पद्अर्थ: अगनि सागर = (तृष्णा की) आग का समुंदर। बूडत = डूब रहा है। पकरि = पकड़ के। सतिगुरि = सतिगुरु ने। निसतारा = पार लंघा दिया।4।

अर्थ: हे नानक! जगत तृष्णा की आग के समुंदर में डूब रहा है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा) गुरु ने (उसकी) बाँह पकड़ के (उसे संसार-समुंदर में से) पार लंघा दिया।4।3।8।

बिलावलु महला ५ ॥ तनु मनु धनु अरपउ सभु अपना ॥ कवन सु मति जितु हरि हरि जपना ॥१॥

पद्अर्थ: अरपउ = अर्पित, मैं भेटा करता हूँ, मैं भेटा करने को तैयार हूँ। कवन = कौन सी? सुमति = अच्छी मति। जितु = जिस के द्वारा।1।

अर्थ: हे भाई! वह कौन सी अच्छी शिक्षा है जिसकी इनायत से परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है? (यदि कोई गुरमुख मुझे वह सुमति दे दे, तो) मैं अपना शरीर अपना मन अपना धन सब कुछ भेटा करने को तैयार हूँ।1।

करि आसा आइओ प्रभ मागनि ॥ तुम्ह पेखत सोभा मेरै आगनि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: करि = कर के, धारण करके। प्रभ = हे प्रभु! मागनि = माँगने के लिए। तुम्ह पेखत = तेरा दर्शन करते हुए। सोभा = रौनक, उत्साह। मेरै आगनि = मेरे (हृदय-) आँगन में।1। रहाउ।

नोट: ‘तुम् पेखत’ में अक्षर ‘म्’ के साथ आधा ‘ह’ है।

अर्थ: हे प्रभु! आशा धारण करके मैं (तेरे दर पर तेरे नाम की दाति) माँगने आया हूँ। तेरा दर्शन करने से मेरे (हृदय-) आँगन में उत्साह पैदा हो जाता है।1। रहाउ।

अनिक जुगति करि बहुतु बीचारउ ॥ साधसंगि इसु मनहि उधारउ ॥२॥

पद्अर्थ: जुगति = डंग। बीचारउ = मैं विचारता हूँ। संगि = संग में। मनहि = मन को! उधारउ = उद्धार सकता हूँ, मैं बचा सकता हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! मैं अनेक ढंग (अपने सामने) रख के बड़ा विचारता हूँ (कि कैसे इसे विकारों से बचाया जाए। अंत में यही समझ आता है कि) गुरमुखों की संगति में (ही) इस मन को (विकारों से) बचा सकता हूँ।2।

मति बुधि सुरति नाही चतुराई ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाई ॥३॥

पद्अर्थ: ता = तब ही। जा = जब। लए मिलाई = मिला लिए।3।

अर्थ: हे भाई! किसी मति, किसी अक्ल, किसी ध्यान, किसी भी चतुराई से परमात्मा नहीं मिल सकता। जब वह प्रभु खुद ही जीव को मिलाता है तब ही उसे मिला जा सकता है।3।

नैन संतोखे प्रभ दरसनु पाइआ ॥ कहु नानक सफलु सो आइआ ॥४॥४॥९॥

पद्अर्थ: नैन = आँखें। संतोखे = तृप्त हो गए। सो = वह मनुष्य।4।

अर्थ: हे नानक! कह: उस मनुष्य का जगत में आना मुबारक है, जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, और (दर्शन की इनायत से) जिसकी आँखें (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गई हैं।4।4।9।

बिलावलु महला ५ ॥ मात पिता सुत साथि न माइआ ॥ साधसंगि सभु दूखु मिटाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। साध संगि = गुरमुखों की संगति। सभु = सारा।1।

अर्थ: हे भाई! माता, पिता, पुत्र, माया- (इनमें से कोई भी जीव का सदा के लिए) साथी नहीं बन सकता, (दुख घटित होने पर भी सहायक नहीं बन सकता)। गुरु की संगति में टिकने से सारा दुख-कष्ट दूर किया जा सकता है।1।

रवि रहिआ प्रभु सभ महि आपे ॥ हरि जपु रसना दुखु न विआपे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रवि रहिआ = मौजूद है। आपे = खुद ही। रसना = जीभ (से)। न विआपे = जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जो) परमात्मा स्वयं ही सब जीवों में व्यापक है उस (के नाम) का जाप जीभ से करता रह (इस तरह) कोई दुख जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

तिखा भूख बहु तपति विआपिआ ॥ सीतल भए हरि हरि जसु जापिआ ॥२॥

पद्अर्थ: तिखा = माया की प्यास। तपति = तपश, जलन, खिझ। विआपिआ = फसा हुआ।2।

अर्थ: हे भाई! जगत माया की तृष्णा, माया की भूख और तपश में फँसा हुआ है। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करते हैं, (उनके हृदय) शीतलता से भर जाते हैं।2।

कोटि जतन संतोखु न पाइआ ॥ मनु त्रिपताना हरि गुण गाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। त्रिपताना = तृप्त हो जाता है।3।

अर्थ: हे भाई! करोड़ों यत्न करने से भी (माया की तृष्णा) से संतुष्टि नहीं पाई जा सकती। प्रभु की महिमा करने से मन तृप्त हो जाता है।3।

देहु भगति प्रभ अंतरजामी ॥ नानक की बेनंती सुआमी ॥४॥५॥१०॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सुआमी = हे मालिक!।4।

अर्थ: हे हरेक के दिल की जानने वाले प्रभु! (तेरे दास) नानक की (तेरे दर पे) विनती है कि अपनी भक्ति का दान दे।4।5।10।

बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा वडभागी पाईऐ ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: वडभागी = बड़ी किस्मत से। मिलि = मिल के। साधू = गुरु (को)।1।

अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण पड़े बिना) और सारे कर्म सिर्फ दिखावा ही हैं। गुरु की संगति में मिल के (ही) संसार-समुंदर से पार-उतारा होता है।1।

पारब्रहम प्रभ तेरी सरना ॥ किलबिख काटै भजु गुर के चरना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! किलबिख = पाप। भजु = आसरा ले।1। रहाउ।

अर्थ: हे पारब्रहम प्रभु! (मैं) तेरी शरण आया हूँ (मुझे गुरु मिला)। हे भाई! गुरु के चरणों को अपने हृदय में बसा ले, गुरु सारे पाप काट देता है।1। रहाउ।

अवरि करम सभि लोकाचार ॥ मिलि साधू संगि होइ उधार ॥२॥

पद्अर्थ: अवरि = और (सारे)। सभि = सारे। लोकाचार = लोक आचार, जगत का रिवाज पूरा करने वाले। संगि = साथ में, संगत में। उधार = पार उतारा।2।

नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।

अर्थ: हे भाई! (गुरु की शरण के बिना) और सारे कर्म निरे दिखावा ही हैं। गुरु की सँगति में मिल के (ही) संसार-समुँद्र से पार-उतारा होता है।2।

सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ जपीऐ नामु जितु पारि उतारे ॥३॥

पद्अर्थ: सिंम्रिति = इनकी गिनती 27 के करीब है। वेद आदि के वाक्यों को याद करके हिन्दू-समाज की अगुवाई के लिए लिखे हुए धार्मिक ग्रंथ। सासत = शास्त्र, हिन्दू दर्शन के ग्रंथ: सांख, पतंजलि या योग, न्याय, वैशैषिक, मीसांसा, वेदांत। जितु = जिसके द्वारा।3।

अर्थ: हे भाई! सारे शास्त्र, स्मृतियाँ और वेद विचार करके देख लिए हैं। (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए, इस हरि के नाम द्वारा ही गुरु पार लंघाता है।3।

जन नानक कउ प्रभ किरपा करीऐ ॥ साधू धूरि मिलै निसतरीऐ ॥४॥६॥११॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! धूरि = चरण धूल। निसतरीऐ = पार लांघ सकते हैं।4।

अर्थ: हे प्रभु! अपने दास नानक पर मेहर कर। (तेरे दास को) गुरु के चरणों की धूल मिल जाए। (गुरु की कृपा से ही) संसार-समुंदर से पार लांघा जासकता है।4।6।11।

बिलावलु महला ५ ॥ गुर का सबदु रिदे महि चीना ॥ सगल मनोरथ पूरन आसीना ॥१॥

पद्अर्थ: रिदे महि = हृदय में। चीना = पहचाना, विचार किया। सगल = सारे। आसीना = आशाएं।1।

अर्थ: हे भाई! (जिस भाग्यशालियों ने) गुरु का शब्द अपने हृदय में विचारा, उनके सारे उद्देश्य पूरे हो गए, उनकी सारी ही आशाएं पूरी हो गई।1।

संत जना का मुखु ऊजलु कीना ॥ करि किरपा अपुना नामु दीना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऊजलु = उज्जवल, रौशन। कीना = कर दिया। करि = करके।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके (जिस संत जनों को) अपना नाम बख्शा, उन संत जनों का मुँह (लोक-परलोक में) रौशन हो गया।1। रहाउ।

अंध कूप ते करु गहि लीना ॥ जै जै कारु जगति प्रगटीना ॥२॥

पद्अर्थ: अंध कूप ते = अंधे कूएं से। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। जै जैकारु = जै जैकार, फतह का डंका, बहुत शोभा। जगति = जगत में।2।

अर्थ: हे भाई! जिस भाग्यशालियों को प्रभु ने (माया के मोह के) अंधेरे कूएँ में से हाथ पकड़ के निकाल लिया, सारे जगत में उनकी बहुत ही शोभा पसर गई।2।

नीचा ते ऊच ऊन पूरीना ॥ अम्रित नामु महा रसु लीना ॥३॥

पद्अर्थ: ऊन = कम, खाली। पूरीना = भर दिए। महा रस = बहुत स्वादिष्ट। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला।3।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्यों ने) आत्मिक जीवन देने वाला और बहुत ही स्वादिष्ट हरि का नाम जपना आरम्भ कर दिया, वे नीच से ऊँचे बन गए (श्रेष्ठ बन गए), वे (जो पहले) गुणहीन थे (अब) गुणवान हो गए।3।

मन तन निरमल पाप जलि खीना ॥ कहु नानक प्रभ भए प्रसीना ॥४॥७॥१२॥

पद्अर्थ: निरमल = पवित्र। जलि = जल के। खीना = समाप्त हो गए। नानक = हे नानक! प्रसीना = प्रसन्न।4।

अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्यों पर) प्रभु जी प्रसन्न हो गए, उनके मन, उनके शरीर पवित्र हो गए, उनके सारे पाप जल के राख हो गए।4।7।12।

बिलावलु महला ५ ॥ सगल मनोरथ पाईअहि मीता ॥ चरन कमल सिउ लाईऐ चीता ॥१॥

पद्अर्थ: पाईअहि = पा लिए जाते हैं। मीता = हे मित्र! लाईऐ = लगाना चाहिए।1।

नोट: ‘पाईअहि’ है कर्मवाच, वर्तमान काल, अन्नपुरख, बहुवचन।

अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के कमल के फूल (जैसे कोमल) चरणों में चिक्त जोड़ना चाहिए। (इस तरह) मन की सारी मुरादें हासिल कर ली जाती हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh