श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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साधसंगि नानकि रंगु माणिआ ॥ घरि आइआ पूरै गुरि आणिआ ॥४॥१२॥१७॥

पद्अर्थ: नानकि = नानक ने। घरि = हृदय घर में। गुरि = गुरु ने। आणिआ = लाया।4।

अर्थ: हे भाई! नानक ने (तो) गुरु की संगति में रह के आत्मिक आनंद लिया है, (गुरु की कृपा से) परमात्मा (नानक के) हृदय में आ बसा है, पूरे गुरु ने ला के बसा दिया है।4।12।17।

बिलावलु महला ५ ॥ स्रब निधान पूरन गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: स्रब = (सर्व) सारे।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ने से सारे खजानों का मालिक प्रभु मिल जाता है।1। रहाउ।

हरि हरि नामु जपत नर जीवे ॥ मरि खुआरु साकत नर थीवे ॥१॥

पद्अर्थ: जीवे = आत्मिक जीवन तलाश लेते हैं। मरि = आत्मिक मौत सहेड़ के। साकत नर = प्रभु से टूटे हुए बंदे। खुआरु थीवे = परेशान होते हैं।1।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से मनुष्य आत्मिक जीवन पा लेते हैं। पर, परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य आत्मिक मौत का शिकार हो के दुखी होते हैं।1।

राम नामु होआ रखवारा ॥ झख मारउ साकतु वेचारा ॥२॥

पद्अर्थ: मारउ = बेशक मारे।2।

नोट: ‘मारउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्न पुरख, एकवचन।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से मनुष्य आत्मिक जीवन तलाश लेते हैं। पर परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य बेचारा (उसकी निंदा आदि करने के लिए) झखें मारता है (पर उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता)।2।

निंदा करि करि पचहि घनेरे ॥ मिरतक फास गलै सिरि पैरे ॥३॥

पद्अर्थ: करि = कर के। पचहि = जलते हैं, खिजते हैं। मिरतक फास = मौत की फांसी। सिरि = सिर पर। पैरे = पैरों में। गलै = गले में।3।

अर्थ: अनेक लोग (हरि-नाम का स्मरण करने वाले मनुष्य की) निंदा कर-कर के (बल्कि) परेशान (ही होते) हैं। (आत्मिक) मौत की फाँसी उनके गले में उनके पैरों में पड़ी रहती है, आत्मिक मौत उनके सिर पर सवार रहती है।3।

कहु नानक जपहि जन नाम ॥ ता के निकटि न आवै जाम ॥४॥१३॥१८॥

पद्अर्थ: जपहि = जपते हैं। ता के निकटि = उनके नजदीक।4।

अर्थ: हे नानक! (बेशक) कह: जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपते हैं, जम भी उनके नजदीक नहीं फटक सकता।4।13।18।

नोट: यहाँ चार बंदों वाले शब्द (चौपदे) समाप्त होते हैं। आगे दो बंदों वाले (दो-पदे) आरम्भ होते हैं।

रागु बिलावलु महला ५ घरु ४ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

कवन संजोग मिलउ प्रभ अपने ॥ पलु पलु निमख सदा हरि जपने ॥१॥

पद्अर्थ: संजोग = मिलाप का समय, लगन, महूरत। मिलउ = मिलूँ। पलु पलु = हरेक पल। निमख = आँख झपकने जितना समय।1।

अर्थ: हे भाई! वह कौन से महूरत हैं जब मैं अपने प्रभु को मिल सकूँ? (वह लगन-महूरत तो हर वक्त ही हैं) एक-एक पल, आँख झपकने जितना समय भर भी सदा ही हरि-नाम जपने से (परमात्मा से मिलाप हो सकता है)।1।

चरन कमल प्रभ के नित धिआवउ ॥ कवन सु मति जितु प्रीतमु पावउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धिआवउ = मैं ध्यान धरता रहूँ। सुमति = अच्छी मति। जितु = जिसके द्वारा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! वह कौन सी सद्-बुद्धि है जिसकी इनायत से मैं अपने प्यारे प्रभु को मिल सकूँ? (वह कौन सी सुमति है जिसके माध्यम से) मैं परमात्मा के सुंदर चरणों का हर वक्त ध्यान धर सकूँ?।1। रहाउ।

ऐसी क्रिपा करहु प्रभ मेरे ॥ हरि नानक बिसरु न काहू बेरे ॥२॥१॥१९॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! काहू बेरे = किसी भी वक्त। बिसरु न = ना भूल।2।

अर्थ: (पर, प्रभु की अपनी मेहर हो, तो ही स्मरण हो सकता है। इस वास्ते उसके दर पर सदैव अरदास करें-) हे मेरे प्रभु! (मेरे पर) ऐसी मेहर कर, कि, हे हरि! मुझ नानक को तेरा नाम कभी भी ना भूले।2।1।19।

बिलावलु महला ५ ॥ चरन कमल प्रभ हिरदै धिआए ॥ रोग गए सगले सुख पाए ॥१॥

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर और कोमल पैर। हिरदै = हृदय में। सगले = सारे।1।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जिस मनुष्य ने अपने) हृदय में प्रभु के सुंदर चरण-कमलों का ध्यान धरना आरम्भ कर दिया, उसके सारे रोग दूर हो गए, उसने सारे सुख प्राप्त कर लिए।1।

गुरि दुखु काटिआ दीनो दानु ॥ सफल जनमु जीवन परवानु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। दानु = (नाम की) दाति। सफल = कामयाब। परवानु = (लोक परलोक में) स्वीकार।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु ने (जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम की) दात दे दी, उसका सारा दुख भी गुरु ने दूर कर दिया। उस मनुष्य की जिंदगी कामयाब हो गई, (लोक-परलोक में) उसका जीवन स्वीकार हो गया।1। रहाउ।

अकथ कथा अम्रित प्रभ बानी ॥ कहु नानक जपि जीवे गिआनी ॥२॥२॥२०॥

पद्अर्थ: अकथ = वह प्रभु जिसके सारे गुण बयान ना किए जा सके। कथा = महिमा की बातें। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाली। बानी = महिमा की वाणी। गिआनी = ज्ञानवान, प्रभु के साथ गहरी सांझ डालने वाला मनुष्य। गिआन = ज्ञान, परमात्मा से जान पहचान। जीवे = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।

अर्थ: हे नानक! कह: बेअंत गुणों के मालिक प्रभु की महिमा वाली वाणी आत्मिक जीवन देने वाली है। प्रभु से गहरी जान-पहचान वाला मनुष्य प्रभु के गुणों को याद कर-करके आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।2।2।20।

बिलावलु महला ५ ॥ सांति पाई गुरि सतिगुरि पूरे ॥ सुख उपजे बाजे अनहद तूरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सांति = शांति, आत्मिक ठंड। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। उपजे = पैदा हो गए। बाजे = बज गए। अनहद = अनहत्, बिना बजाए, एक रस। तूरे = बाजे।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूरे सतिगुरु ने, गुरु ने (हरि-नाम की दाति दे के जिस मनुष्य के हृदय में) शीतलता बरता दी, उसके अंदर सारे सुख पैदा हो गए (मानो, उसके अंदर) एक-रस सारे बाजे बजने लग गए।1। रहाउ।

ताप पाप संताप बिनासे ॥ हरि सिमरत किलविख सभि नासे ॥१॥

पद्अर्थ: ताप = दुख। पाप = विकार। संताप = कष्ट। सिमरत = स्मरण करते हुए। किलविख = पाप। सभि = सारे।1।

अर्थ: (जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से हरि-नाम स्मरणा शुरू कर दिया, उसके सारे) दुख-कष्ट दूर हो गए। परमात्मा का नाम स्मरण करते-स्मरण करते उसके सारे पाप नाश हो गए।1।

अनदु करहु मिलि सुंदर नारी ॥ गुरि नानकि मेरी पैज सवारी ॥२॥३॥२१॥

पद्अर्थ: अनदु करहु = आत्मिक आनंद पैदा करो। मिलि = मिल के। नारी = हे नारियो! हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! गुरि = गुरु ने। नानकि = नानक ने। पैज = सत्कार, इज्जत।2।

अर्थ: (नाम की इनायत से) सुंदर (बन चुकी) हे मेरी ज्ञान-इंद्रिय! तुम अब मिल के (सत्संग करके अपने अंदर) आत्मिक आनंद पैदा करो। गुरु नानक ने (मुझे ताप-पाप-संताप से बचा के) मेरी इज्जत रख ली है।2।3।21।

बिलावलु महला ५ ॥ ममता मोह ध्रोह मदि माता बंधनि बाधिआ अति बिकराल ॥ दिनु दिनु छिजत बिकार करत अउध फाही फाथा जम कै जाल ॥१॥

पद्अर्थ: मम = मेरा। ममता = (शब्द ‘मम’ से भाव वाचक संज्ञा) अपनत्व। ध्रोह = ठगी। मदि = नशे में। माता = मस्त। बंधनि = बंधन के साथ, रस्सी। बाधिआ = बँधा हुआ। अति = बहुत। बिकराल = डरावना। दिनु दिनु = हर रोज। छिजत = घटती जाती। अउध = उम्र।1।

अर्थ: (हे प्रभु! इस संसार-समुंदर में फंस के जीव) अपनत्व के मद में, मोह के नशे में, ठगी-चालाकी के मद में मस्त रहता है। माया के मोह की जकड़ से बँधा हुआ जीव बड़े डरावने जीवन वाला बन जाता है। हर रोज विकार करते हुए इसकी उम्र घटती जाती है, ये जम की फाँसी में जम के जाल में हमेशा फसा रहता है।1।

तेरी सरणि प्रभ दीन दइआला ॥ महा बिखम सागरु अति भारी उधरहु साधू संगि रवाला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दीन = गरीब, निमाणे। बिखम = मुश्किल। सागरु = समुंदर। उधरहु = पार लंघा लो। साधू = गुरु। साधू संगि = गुरु की संगति में। रवाला = चरण धूल।1। रहाउ।

अर्थ: दीनों पर दया करने वाले हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। ये (संसार-) समुंदर बहुत बड़ा है, (इसमें से पार होना) बहुत ही मुश्किल है। हे प्रभु! मुझे गुरु की संगति में (रख के) मुझे गुरु की चरण-धूल दे के (इस संसार-समुंर में डूबने से) बचा ले।1। रहाउ।

प्रभ सुखदाते समरथ सुआमी जीउ पिंडु सभु तुमरा माल ॥ भ्रम के बंधन काटहु परमेसर नानक के प्रभ सदा क्रिपाल ॥२॥४॥२२॥

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। सभु = ये सारा। मालु = पूंजी। भ्रम = भटकना।2।

अर्थ: हे सारे सुख देने वाले प्रभु! हे सब ताकतों के मालिक स्वामी! (जीवों को मिला हुआ) ये शरीर और आत्मा (जिंद) सब कुछ तेरा ही दी हुई संपत्ति है। हे नानक के प्रभु! हे सदा कृपालु प्रभु! हे परमेश्वर! (जीव माया में भटक रहे हैं, जीवों के ये) भटकना के बंधन काट दे।2।4।22।

बिलावलु महला ५ ॥ सगल अनंदु कीआ परमेसरि अपणा बिरदु सम्हारिआ ॥ साध जना होए किरपाला बिगसे सभि परवारिआ ॥१॥

पद्अर्थ: सगल = सारा, पूर्ण। परमेसरि = परमेश्वर ने। बिरदु = ईश्वर की मूल कदीमी स्वभाव। समारिआ = संभाला, याद रखा। बिगसे = खुश हुए, खिल उठे। सभि = सारे। सभ परवारिआ = सारे परिवार।1।

अर्थ: (हे भाई! ये यकीन जानो कि) परमात्मा अपना मूल कदीमी बिरद (भक्त-वछल होने का) स्वभाव हमेशा याद रखता है, अपने संत-जनों पर हमेशा दयावान रहता है, उनको हरेक किस्म का सुख-आनंद देता है, उनके सारे परिवार (सारी ज्ञानेन्द्रियाँ भी) आनंद-भरपूर रहती हैं।1।

कारजु सतिगुरि आपि सवारिआ ॥ वडी आरजा हरि गोबिंद की सूख मंगल कलिआण बीचारिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कारजु = काम। सतिगुरि = गुरु ने। सवारिआ = सफल कर दिया। आरजा = उम्र।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! लोग तो देवी आदि की पूजा की प्रेरणा कर रहे थे। पर देखिए, हरिगोबिंद को चेचक के बुखार से आरोग्य करने वाला ये बड़ा) काम (मेरे) सतिगुरु ने खुद ही सफल कर दिया है। (गुरु ने खुद ही) हरिगोबिंद की उम्र लंबी कर दी है, (गुरु ने स्वयं ही हरिगोबिंद को) सुख-खुशी-आनंद देने की विचार की है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh