श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 807 वण त्रिण त्रिभवण हरिआ होए सगले जीअ साधारिआ ॥ मन इछे नानक फल पाए पूरन इछ पुजारिआ ॥२॥५॥२३॥ पद्अर्थ: वण = जंगल। त्रिण = घास के तीले। जीअ = सारे जीव। साधारिआ = आसरा दिया है। पूरन = मुकम्मल तौर पर। पुजारिआ = पूरी की।2। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा की कृपा से सारे जंगल, सारी बनस्पति, तीनों ही भवन हरे-भरे रहते हैं, वह परमात्मा सारे जीवों को आसरा देता है। (जो भी मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ते हैं) वे मन-मांगी मुरादें पा लेते हैं, परमात्मा उनकी सारी कामनाएं पूरी करता है (बस! उस परमात्मा का ही आसरा लिया करो)।2।5।23। नोट: छेवें गुरु, गुरु हरिगोबिंद साहिब जी को बचपन में माता (चेचक) निकली। लोगों ने अपने भ्रमित स्वभाव के अनुसार, पिता गुरु अरजन देव जी (पाँचवें सतिगुरु) को भी सलाह दी कि बिमार बालक को देवी-माता के मंदिर में ले के जाना चाहिए। उक्त शब्द द्वारा सतिगुरु उस गलत सलाह प्रेरणा का उक्तर दे रहे हैं, और सदा के लिए अपने सिखों को सही मार्ग-दर्शन कर रहे हैं। बिलावलु महला ५ ॥ जिसु ऊपरि होवत दइआलु ॥ हरि सिमरत काटै सो कालु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिसु ऊपरि = जिस (मनुष्य) पर। सो = वह मनुष्य। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत से।1। रहाउ। अर्थ: (गुरु) जिस मनुष्य पर दयावान होता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के अपने आत्मिक मौत के जाल को काट लेता है।1। रहाउ। साधसंगि भजीऐ गोपालु ॥ गुन गावत तूटै जम जालु ॥१॥ पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में (टिक के)। गोपालु = सृष्टि का पालनहार प्रभु। गावत = गाते हुए। जमु जालु = जम का जाल, आत्मिक मौत की फाही।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के जगत-पालक प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए। प्रभु के गुण गाते-गाते जम का जाल टूट जाता है।1। आपे सतिगुरु आपे प्रतिपाल ॥ नानकु जाचै साध रवाल ॥२॥६॥२४॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। प्रतिपाल = रक्षा करने वाला। जाचै = माँगता है (नोट: शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ के जोड़ और अर्थ का फर्क याद रखें)। पद्अर्थ: साध रवाल = गुरु के चरणों की धूल।2। अर्थ: हे भाई! (प्रभु) खुद ही गुरु (रूप हो के) खुद (जीवों को जम-जाल से) बचाने वाला है। (तभी तो) नानक (सदा) गुरु के चरणों की धूल माँगता है।2।6।24। बिलावलु महला ५ ॥ मन महि सिंचहु हरि हरि नाम ॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुण गाम ॥१॥ पद्अर्थ: महि = में। सिंचहु = सींचो, छींटे दो। अनदिनु = हर रोज। गाम = गाओ।1। अर्थ: हे भाई! अपने मन को हमेशा परमात्मा के नाम-अमृत से सींचता रह, हर वक्त परमात्मा की महिमा किया कर, परमात्मा के गुण गाया कर।1। ऐसी प्रीति करहु मन मेरे ॥ आठ पहर प्रभ जानहु नेरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! नेरे = नजदीक, अंग संग (बसता)। जानहु = समझो।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार बना कि आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा को अपने नजदीक बसता समझ सके।1। रहाउ। कहु नानक जा के निरमल भाग ॥ हरि चरनी ता का मनु लाग ॥२॥७॥२५॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! जा के = जिस (मनुष्य) के। ता का = उसका।2। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के सौभाग्य (जागते हैं) उसका मन परमात्मा के चरणों में गिझ जाता है।2।7।25। बिलावलु महला ५ ॥ रोगु गइआ प्रभि आपि गवाइआ ॥ नीद पई सुख सहज घरु आइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। नीद = (भाव,) शांति। सहज घरु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! गुरु के माध्यम से अपने नाम की दाति दे के जिस मनुष्य का रोग) प्रभु ने स्वयं दूर किया है, उसी का ही रोग दूर हुआ है। (नाम की इनायत से उस मनुष्य को) आत्मिक शांति मिल जाती है, उसे सुख व आत्मिक अडोलता वाली अवस्था मिल जाती है।1। रहाउ। रजि रजि भोजनु खावहु मेरे भाई ॥ अम्रित नामु रिद माहि धिआई ॥१॥ पद्अर्थ: रजि = तृप्त हो के, अघा के। भाई = हे भाई! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदु = हृदय। धिआई = ध्यान लगा के।1। अर्थ: हे मेरे वीर! (परमात्मा का नाम जीवात्मा की खुराक़ है, ये) खुराक़ पेट भर-भर के खाया कर, आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम का अपने हृदय में ध्यान धरा कर।1। नानक गुर पूरे सरनाई ॥ जिनि अपने नाम की पैज रखाई ॥२॥८॥२६॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरु) ने। पैज = सत्कार, इज्जत।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) पूरे गुरु की शरण पड़ा रह (गुरु, शरण पड़े की सहायता करने वाला है), और उस गुरु ने (सदा) अपने इस नाम की इज्जत रखी है।7।8।26। बिलावलु महला ५ ॥ सतिगुर करि दीने असथिर घर बार ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सतिगुर घर बार = गुरु के घर, सत्संग, साधु-संगत। असथिर = सदा कायम रहने वाले। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु के घरों को (साधु-संगत-संस्था को परमात्मा ने) सदा कायम रहने वाले बना दिया हुआ है (भाव, साधु-संगत ही सदा के लिए ऐसे स्थान हैं जहाँ परमात्मा का मेल हो सकता है)। रहाउ। जो जो निंद करै इन ग्रिहन की तिसु आगै ही मारै करतार ॥१॥ पद्अर्थ: निंद = निंदा। इन ग्रिहन की = इन गृहन की, इन घरों की, सत्संगों की, गुरु स्थानों की। आगै ही = पहले ही। मारै = मार देता है, आत्मिक मौत दे देता है।1। अर्थ: हे भाई! जो भी मनुष्य इन घरों की (साधु-संगत की) निंदा करता है (भाव, जो भी मनुष्य सत्संग से नफरत करता है) उस मनुष्य को परमात्मा ने पहले ही आत्मिक मौत दी हुई होती है (वह मनुष्य पहले ही आत्मिक तौर पर मरा हुआ होता है)।1। नानक दास ता की सरनाई जा को सबदु अखंड अपार ॥२॥९॥२७॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! ता की = उस (परमात्मा) की। जा को सबदु = जिस (परमात्मा) का हुक्म। अखंड = कभी नाश ना होने वाला, अटल। अपार = बेअंत।2। अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा का हुक्म अटल है और बेअंत है उस परमात्मा की शरण में (साधु-संगत की इनायत से ही आया जा सकता है)।2।9।27। बिलावलु महला ५ ॥ ताप संताप सगले गए बिनसे ते रोग ॥ पारब्रहमि तू बखसिआ संतन रस भोग ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सगले = सारे। ते = वह (सारे)। (नोट: शब्द ‘ते’ और ‘तै’ में फर्क है। जबकि शब्द ‘ते’ सर्वनाम है तो इसका अर्थ है ‘वह’ बहुवचन। जब ये संबंधक है, अर्थ है ‘से’। जबकि,’तै’ का अर्थ है ‘और’)। तू = तुझे। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। संतन रस भोग = संतों वाले आत्मिक आनंद पाओ। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! अगर) तेरे पर परमात्मा ने बख्शिश की है, तो तू संतों वाले (नाम-स्मरण के) आत्मिक आनंद ले। (जो मनुष्य ये आत्मिक आनंद लेता है, उसके) सारे दुख सारे कष्ट और सारे रोग नाश हो जाते हैं। रहाउ। सरब सुखा तेरी मंडली तेरा मनु तनु आरोग ॥ गुन गावहु नित राम के इह अवखद जोग ॥१॥ पद्अर्थ: तेरी मंडली = तेरे साथी। आरोग = आरोग्य, रोग रहित। अवखद = दवाई। जोग = फबवीं, ठीक।1। अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा के गुण गाता रह, (ताप-संताप और रोग आदि को दूर करने के लिए) ये अचूक दवा है। (यदि तू नाम-जपने की ये दवाई बरतता रहेगा, तो) सारे सुख तेरे साथी बने रहेंगे, तेरा मन रोगों से बचा रहेगा, तेरा शरीर रोगों से बचा रहेगा।1। आइ बसहु घर देस महि इह भले संजोग ॥ नानक प्रभ सुप्रसंन भए लहि गए बिओग ॥२॥१०॥२८॥ पद्अर्थ: आइ = आ के। घर देस महि = हृदय घर में, हृदय देस में। भले संजोग = मिलाप के भले अवसर। बिओग = वियोग, विछोड़े।2। अर्थ: हे भाई! (मनुष्य जीवन वाले दिनों में ही परमात्मा के साथ) मिलाप पैदा करने के बढ़िया अवसर हैं (जब तक ये जनम मिला हुआ है बाहर भटकना छोड़ के) अपने हृदय-घर रूपी देस में आ के टिका रह। हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य पर प्रभु जी दयावान हो जाते हैं, (प्रभु से उसके) सारे विछोड़े दूर हो जाते हैं।2।10।28। बिलावलु महला ५ ॥ काहू संगि न चालही माइआ जंजाल ॥ ऊठि सिधारे छत्रपति संतन कै खिआल ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: काहू संगि = किसी के भी साथ। न चालही = नहीं चलते। जंजाल = खल जगन, बखेड़े, बिखराव। ऊठि = उठ के, छोड़ के। सिधारे = चल पड़े। छत्र पति = छत्र के मालिक, राजे महाराजे। संतन कै = संत जनों के मन में। खिआल = (ये) निश्चय। रहाउ। अर्थ: हे भाई! संतजनों के मन में (सदा ये) विश्वास बना रहता है कि माया के पसारे किसी भी मनुष्य के साथ नहीं जाते। राजे महाराजे भी (मौत आने पर) इनको छोड़ के चले जाते हैं (इसीलिए संतजन सदा परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं)। रहाउ। अह्मबुधि कउ बिनसना इह धुर की ढाल ॥ बहु जोनी जनमहि मरहि बिखिआ बिकराल ॥१॥ पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। कउ = को। बिनसना = (आत्मिक) मौत। ढाल = मर्यादा, रीत। जनमहि = पैदा होते हैं। मरहि = मरते हैं। बिखिआ = माया। बिकराल = भयानक।1। अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फंस के हर वक्त ये धार लेने वाले को कि मैं बड़ा बन जाऊँ मैं बड़ा बन जाऊँ - इस) मैं मैं की ही सूझ वाले को (अवश्य) आत्मिक मौत मिलती है; ये मर्यादा धुर-दरगाह से चली आ रही है। माया के मोह के यही भयानक नतीजे होते हैं कि माया-ग्रसित मनुष्य सदा अनेक जूनियों में जन्मते-मरते रहते हैं।1। सति बचन साधू कहहि नित जपहि गुपाल ॥ सिमरि सिमरि नानक तरे हरि के रंग लाल ॥२॥११॥२९॥ पद्अर्थ: सति बचन = प्रभु की महिमा। कहहि = उच्चारते हैं। सिमरि = स्मरण करके। तरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए।2। अर्थ: हे नानक! गुरमुख मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करते हैं, सदा जगत के पालनहार प्रभु का नाम जपते हैं। परमात्मा के गाढ़े प्रेम-रंग में रंग के संतजन सदा प्रभु का नाम स्मरण करके (संसार-समुंदर से, माया के मोह से) पार लांघ जाते हैं।2।11।29। बिलावलु महला ५ ॥ सहज समाधि अनंद सूख पूरे गुरि दीन ॥ सदा सहाई संगि प्रभ अम्रित गुण चीन ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सहज समाधि = आत्मिक अडोलता की लीनता, आत्मिक अडोलता में एक रस टिकाव। गुरि = गुरु ने। दीन = दे दिए। संगि = साथ। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाले। चीन्ह = बिचारे हैं। रहाउ। नोट: ‘चीन्’ में अक्षर ‘न’ के नीचे अर्ध ‘ह’ है। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु दयावान होता है, उसको) पूरे गुरु ने आत्मिक अडोलता में एक-रस टिकाव के सारे सुख व आनंद दे दिए। प्रभु उस मनुष्य का हमेशा मददगार बना रहता है, उसके अंग-संग रहता है, वह मनुष्य प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले गुण (अपने मन में) विचारता रहता है। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |