श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जै जै कारु जगत्र महि लोचहि सभि जीआ ॥ सुप्रसंन भए सतिगुर प्रभू कछु बिघनु न थीआ ॥१॥

पद्अर्थ: जै जैकारु = शोभा ही शोभा। जगत्र महि = जगत में। लोचहि = लोचते हैं, चाहते हैं। सभि = सारे। बिघनु = रुकावट।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु परमात्मा अच्छी तरह प्रसन्न हो गए, उस मनुष्य के जीवन-राह में कोई रुकावट नहीं आती, सारे जगत में हर जगह उसकी शोभा होती है, (ज्रगत के) सारे जीव (उसके दर्शन करना) चाहते हैं1।

जा का अंगु दइआल प्रभ ता के सभ दास ॥ सदा सदा वडिआईआ नानक गुर पासि ॥२॥१२॥३०॥

पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। अंगु = पक्ष। गुर पासि = गुरु के पास (रहने से)।2।

अर्थ: हे भाई! दया का श्रोत प्रभु, जिस (मनुष्य) का पक्ष करता है, सब जीव उसके सेवक हो जाते हैं। हे नानक! गुरु के चरणों में रहने से सदा ही आदर-मान मिलता है।2।12।30।

रागु बिलावलु महला ५ घरु ५ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

म्रित मंडल जगु साजिआ जिउ बालू घर बार ॥ बिनसत बार न लागई जिउ कागद बूंदार ॥१॥

पद्अर्थ: म्रित मंडल = मौत का चक्र। म्रित मंडल जगु = वह जगत जिस पर मौत का अधिकार है। बालू = रेत। बिनसत = नाश होते हुए। बार = वक्त। कागद = कागज। बूंदार = बारिश की बूँदें।1।

अर्थ: (हे मेरे मन!) ये जगत (परमात्मा ने ऐसा) बनाया है (कि इस पर) मौत का राज है, ये ऐसे है जैसे रेत के बनें हुए घर आदि हों। जिस प्रकार बरसात की बूँदों से कागज़ (तुरंत) गल जाते हैं, ठीक उसी तरह इन (घरों) के नाश होते हुए वक्त नहीं लगता।1।

सुनि मेरी मनसा मनै माहि सति देखु बीचारि ॥ सिध साधिक गिरही जोगी तजि गए घर बार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनसा = (मनीषा = मन का फुरना) हे मेरे मन! मनै माहि = मन में ही, ध्यान से। सति = सत्य। बीचारि = विचार के। सिध = योग साधना में सिद्ध योगी। साधिक = योग साधना करने वाले। गिरही = गृहस्थी। तजि = छोड़ के। गए = चले गए। घर बार = घर घाट, सब कुछ।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन के फुरने! (हे मेरे भटकते मन!) ध्यान से सुन। विचार के देख ले, (ये) सच (है कि) सिद्ध-साधिक-जोगी-गृहस्थी - सारे ही (मौत आने पर) अपना सब कुछ (यहीं) छोड़ के (यहाँ से) चले जा रहे हैं।1। रहाउ।

जैसा सुपना रैनि का तैसा संसार ॥ द्रिसटिमान सभु बिनसीऐ किआ लगहि गवार ॥२॥

पद्अर्थ: रैनि = रात। द्रिसटिमान = दृष्टिमान, जो कुछ दिख रहा है। किआ लगहि = तू क्यों इससे चिपका हुआ है? गवार = हे मूर्ख!।2।

अर्थ: (हे मेरे भटकते मन!) ये जगत यूँ ही है जैसे रात को (सोए हुए ही) सपना आता है। हे मूर्ख! जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सारा नाशवान है। तू इस में क्यों मोह बना रहा है?।2।

कहा सु भाई मीत है देखु नैन पसारि ॥ इकि चाले इकि चालसहि सभि अपनी वार ॥३॥

पद्अर्थ: कहा = कहाँ? नैन = आँखें। पसारि = खोल के। इकि = कई, बहुत। चाले = चले गए हैं। चालसहि = चले जाएंगे। सभि = सारे।3।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: हे मूर्ख! आँखें खोल के देख। (तेरे) वह भाई वे मित्र कहाँ गए हैं? अपनी बारी आने पर कई (यहाँ से) जा चुके हैं, कई चले जाएंगे। सारे ही जीव अपनी-अपनी बारी (आने पर जाते जा रहे हैं)।3।

जिन पूरा सतिगुरु सेविआ से असथिरु हरि दुआरि ॥ जनु नानकु हरि का दासु है राखु पैज मुरारि ॥४॥१॥३१॥

पद्अर्थ: सेविआ = शरण ली। से = (बहुवचन) वे लोग। असथिरु = स्थिर, टिके हुए, अडोल। दुआरि = दर पर। जनु नानकु = दास नानक। पैज = सत्कार, इज्जत। मुरारि = हे मुरारी!।4।

नोट: ‘नानकु’ है कर्ता कारक, एकवचन।

अर्थ: हे भाई! जिस लोगों ने पूरे गुरु का आसरा लिया है वह (दिखते इस संसार में मोह डालने की जगह) परमात्मा के दर पर (परमात्मा के चरणों में) टिके रहते हैं। दास नानक (तो) परमात्मा का ही सेवक है (प्रभु के दर पर ही अरदास करता है कि) हे प्रभु! (मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी) इज्जत रख।4।1।31।

नोट: यहाँ से फिर चौपदे शुरू हो गए हैं। ‘घरु ५’ के।

बिलावलु महला ५ ॥ लोकन कीआ वडिआईआ बैसंतरि पागउ ॥ जिउ मिलै पिआरा आपना ते बोल करागउ ॥१॥

पद्अर्थ: कीआ = की। बैसंतरि = आग में। पागउ = मैं डाल दूँ। ते = (बहुवचन) वे लोग। करागउ = मैं करूँगा।1।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के मिलाप के मुकाबले में) लोगों द्वारा मिल रहे आदर-सम्मान को तो मैं आग में फेंक देने को तैयार हूँ। (दुनिया के लोगों की खुशामद करने की जगह) मैं तो वही बोल बोलूँगा, जिसके सदका मुझे मेरा प्यारा प्रभु मिल जाए।1।

जउ प्रभ जीउ दइआल होइ तउ भगती लागउ ॥ लपटि रहिओ मनु बासना गुर मिलि इह तिआगउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जउ = जब। लागऊ = लगूँ, मैं लगता हूँ। लपटि रहिओ = लिपट रहा है। गुर मिलि = गुरु को मिल के। इह = यह वासना। तिआगउं = मैं त्याग दूँगा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जब प्रभु जी मेरे ऊपर दयावान हों, तब ही मैं उनकी भक्ति में लग सकता हूँ। यह मन (सांसारिक पदार्थों की) वासनाओं में फंसा रहता है, गुरु की शरण पड़ कर ये वासनाएं छोड़ी जा सकती हैं (मैं छोड़ सकता हूँ)।1। रहाउ।

करउ बेनती अति घनी इहु जीउ होमागउ ॥ अरथ आन सभि वारिआ प्रिअ निमख सोहागउ ॥२॥

पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। अति घनी = बहुत ज्यादा। जीउ = जिंद। होमागउ = मैं वार दूँगा। अरथ आन = और (सारे) पदार्थ। सभि = सारे। वारिआ = कुर्बान किए। प्रिअ सुहागउ = प्यारे सोहाग से, प्यारे के मिलाप के आनंद से। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय।2।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर पर) मैं बहुत ही विनम्रता से प्रार्थनाएं करूँगा, अपनी ये जिंद भी कुर्बान कर दूँगा। प्यारे के एक-पल भर के मिलाप के आनंद के बदले में मैं (दुनिया के) सारे पदार्थ सदके कर दूँगा।2।

पंच संगु गुर ते छुटे दोख अरु रागउ ॥ रिदै प्रगासु प्रगट भइआ निसि बासुर जागउ ॥३॥

पद्अर्थ: पंच संग = (कामादिक) पाँचों का साथ। ते = से, के द्वारा। छुटे = दूर होता है। दोख = द्वैष। रागउ = राग, मोह। अरु = और। रिदै = हृदय में। प्रगासु = प्रकाश, सही जीवन की रौशनी। निसि = रात। बासुर = दिन। जागउ = मैं जागता हूँ, मैं (कामादिक विकारों के शोर से) सचेत रहता हूँ।3।

नोट: शब्द ‘अरि’ और ‘अरु’ का फर्क याद रखने योग्य है।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से (मेरे अंदर से कामादिक) पाँचों (विकारों) का साथ खत्म हो गया है, (मेरे अंदर से) द्वैष और मोह दूर हो गए हैं। मेरे हृदय में (सही जीवन का) प्रकाश हो गया है, अब मैं (कामादिक के हमलों से) रात-दिन सचेत रहता हूँ।3।

सरणि सोहागनि आइआ जिसु मसतकि भागउ ॥ कहु नानक तिनि पाइआ तनु मनु सीतलागउ ॥४॥२॥३२॥

पद्अर्थ: जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। भागउ = बढ़िया किस्मत। तिनि = उसने। सीतलागउ = शीतल, ठंडा ठार।4।

अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पर सौभाग्य जागते हैं, वह सोहागन स्त्री की तरह (गुरु की) शरण पड़ता है, (गुरु की कृपा से) उसने प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया है, उसका मन, उसका शरीर (कामादिक विकारों से निजात हासिल करके) ठंडा-ठार हो जाता है।4।2।32।

बिलावलु महला ५ ॥ लाल रंगु तिस कउ लगा जिस के वडभागा ॥ मैला कदे न होवई नह लागै दागा ॥१॥

पद्अर्थ: लाल रंगु = (लाल रंग सोहाग की निशानी है। नव = विवाहिता पहले पहल लाल रंग के कपड़े पहनती है) सोहागनों वाला गाढ़ा प्रेम रंग।

नोट: ‘तिस कउ, में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है।

न होवई = ना हो, नहीं होता। दागा = (विकारों के) दाग़।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के सौभाग्य जाग जाएं, उसके ही मन को प्रभु-प्यार का गाढ़ा लाल रंग चढ़ता है। ये रंग ऐसा है कि इसको (विकारों की) मैल नहीं लगती, इसको विकारों का दाग़ नहीं लगता।1।

प्रभु पाइआ सुखदाईआ मिलिआ सुख भाइ ॥ सहजि समाना भीतरे छोडिआ नह जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुखदाईआ = सुख देने वाला। सुख भाइ = सुख के भाव से, आत्मिक आनंद से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। भीतरे = हृदय में, अंदर ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने (सारे) सुखों को देने वाला परमात्मा पा लिया, जिस मनुष्य को आत्मिक आनंद और प्रेम में टिक के प्रभु मिल गया, वह (हमेशा) अंदर से आत्मिक अडोलता में लीन रहता है, (उसको इतना रस आता है कि फिर वह उसको) छोड़ नहीं सकता।1। रहाउ।

जरा मरा नह विआपई फिरि दूखु न पाइआ ॥ पी अम्रितु आघानिआ गुरि अमरु कराइआ ॥२॥

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। मरा = मौत, आत्मिक मौत। नह विआपई = नहीं व्याप सकते, जोर नहीं डाल सकते। पी = पी के। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। आघानिआ = तृप्त हो जाता है। गुरि = गुरु ने। अमर = अटल आत्मिक जीवन का मालिक।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने अटल आत्मिक जीवन दे दिया, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी के (माया की भूख से) तृप्त हो जाता है। उसकी इस आत्मिक उच्चता को कभी बुढ़ापा नहीं आता, कभी मौत नहीं आती, उसे फिर कभी कोई दुख छू नहीं सकता।2।

सो जानै जिनि चाखिआ हरि नामु अमोला ॥ कीमति कही न जाईऐ किआ कहि मुखि बोला ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। अमोला = जो किसी भी मूल्य से ना मिल सके। किआ कहि = क्या कह के? मुखि = मुँह से। बोला = मैं बोलूँ।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम किसी भी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। इसकी कद्र वही मनुष्य जानता है जिसने कभी चख के देखा है। हे भाई! हरि-नाम का मूल्य बताया नहीं जा सकता। मैं क्या कह के मुँह से (इसका मोल) बताऊँ?।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh