श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सफल दरसु तेरा पारब्रहम गुण निधि तेरी बाणी ॥ पावउ धूरि तेरे दास की नानक कुरबाणी ॥४॥३॥३३॥

पद्अर्थ: सफल = फल देने वाला, मानव जीवन का उद्देश्य पूरा करने वाला। पारब्रहम = हे पारब्रहम! गुण निधि = गुणों का खजाना। पावउ = मैं प्राप्त कर लूँ। धूरि = चरणों की धूल। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे परमात्मा! तेरे दर्शन मानव जन्म के उद्देश्य पूरा करने वाले हैं, तेरी महिमा की वाणी गुणों का खजाना है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर) मैं तेरे सेवक के पैरों की खाक़ हासिल कर सकूँ, मैं तेरे सेवक पर से सदके जाऊँ।4।3।33।

बिलावलु महला ५ ॥ राखहु अपनी सरणि प्रभ मोहि किरपा धारे ॥ सेवा कछू न जानऊ नीचु मूरखारे ॥१॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! मोहि = मुझे। किरपा धारे = कृपा करके। न जानउ = मैं नहीं जानता। नीच = निम्न आत्मिक जीवन वाला। मूरखारे = मूर्ख।1।

अर्थ: हे प्रभु! मेहर करके तू मुझे अपनी ही शरण में रख। मैं नीच जीवन वाला हूँ, मैं मूर्ख हूँ। मुझ में तेरी सेवा-भक्ति करने की समझ-अक्ल नहीं है।1।

मानु करउ तुधु ऊपरे मेरे प्रीतम पिआरे ॥ हम अपराधी सद भूलते तुम्ह बखसनहारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मानु = फखर, गर्व। मानु करउ = मैं गर्व करता हूँ, मैं भरोसा रखे बैठा हूँ। ऊपरे = ऊपर ही, पर ही। प्रीतम = हे प्रीतम! सद = सदा। तुम्ह = (तुम्ह)। बखसनहारे = बख्शिश करने की समर्थता रखने वाले, क्षमादायक।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रीतम! हे मेरे प्यारे! हम जीव सदा अपराध करते रहते हैं, भूलें करते रहते हैं, तू हमेशा हमें क्षमा करने वाला है (इसलिए) मैं तेरे पर ही (तेरी बख्शिश पर ही) भरोसा रखता हूँ।1। रहाउ।

हम अवगन करह असंख नीति तुम्ह निरगुन दातारे ॥ दासी संगति प्रभू तिआगि ए करम हमारे ॥२॥

पद्अर्थ: हम करह = हम करते हैं। नीति = नित्य, सदैव। निरगुन दातारे = गुण हीन का दाता। दासी = (तेरी) दासी, माया। तिआगि = बिसार के।2।

नोट: ‘करह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।

अर्थ: हे प्रभु! हम हमेशा ही अनगिनत अवगुण करते रहते हैं, तू (फिर भी) हम गुण-हीनों को अनेक दातें देने वाला है। हे प्रभु! हमारे नित्य के कर्म तो ये हैं कि हम तुझे भुला के तेरी सेविका (माया) की संगति में टिके रहते हैं।2।

तुम्ह देवहु सभु किछु दइआ धारि हम अकिरतघनारे ॥ लागि परे तेरे दान सिउ नह चिति खसमारे ॥३॥

पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज। अकिरतघनारे = (कृतघ्न = किए उपकार को भुलाने वाले) नाशुक्र। लागि परे = मोह कर रहे हैं। सिउ = साथ। चिति = चिक्त में।3।

अर्थ: हे प्रभु! हम (जीव) अकृतघ्न हैं (एहसान फरामोश हैं), तू (फर भी) मेहर करके हमें हरेक चीज़ देता है। हे पति-प्रभु! हम तुझे अपने चिक्त में नहीं बसाते, सदा तेरी दी हुई दातों को ही चिपके रहते हैं।3।

तुझ ते बाहरि किछु नही भव काटनहारे ॥ कहु नानक सरणि दइआल गुर लेहु मुगध उधारे ॥४॥४॥३४॥

पद्अर्थ: ते = से। बाहरि = आकी, अलग। भव = जनम मरन (का चक्र)। गुर = हे गुरु! लेह उधारे = उद्धार ले, बचा ले। मुगध = मूर्ख।4।

अर्थ: हे (जीवों के) जन्मों के चक्र काटने वाले! (जगत में) कोई भी चीज तुझसे आकी नहीं हो सकती (हमें भी सही जीवन-राह पर डाले रख)। हे नानक! कह: हे दया के श्रोत गुरु! हम तेरी शरण आए हैं, हम मूर्खों को (अवगुणों व भूलों से) बचाए रख।4।4।34।

बिलावलु महला ५ ॥ दोसु न काहू दीजीऐ प्रभु अपना धिआईऐ ॥ जितु सेविऐ सुखु होइ घना मन सोई गाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: काहू = किसी को भी। न दीजीऐ = नहीं देना चाहिए। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। जितु = जिसके द्वारा। जितु सेविऐ = जिसकी सेवा भक्ति के द्वारा। घना = बहुत। मन = हे मन! सोई = वही प्रभु।1।

अर्थ: हे मेरे मन! (अपनी की हुई भूलों के कारण मिल रहे दुखों के बारे) किसी और को दोष नहीं देना चाहिए (इन दुखों से बचने के लिए) अपने परमात्मा को (ही) याद करना चाहिए क्योंकि उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से बहुत सुख मिलता है, उसकी ही महिमा के गीत गाने चाहिए।1।

कहीऐ काइ पिआरे तुझु बिना ॥ तुम्ह दइआल सुआमी सभ अवगन हमा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: काइ = किस को? दइआल = दया का घर। सुआमी = मालिक। हमा = हमारे में ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मालिक प्रभु! तू तो सदा दया का घर है, सारे अवगुण हम जीवों के ही हैं (जिनके कारण हमें दुख-कष्ट होते हैं)। हे प्यारे प्रभु! (इन दुख-कष्टों से बचने के लिए) तेरे बिना और किस के पास विनती की जाए?।1। रहाउ।

जिउ तुम्ह राखहु तिउ रहा अवरु नही चारा ॥ नीधरिआ धर तेरीआ इक नाम अधारा ॥२॥

पद्अर्थ: रहा = रहूँ, मैं रहता हूँ। चारा = जोर। धर = ओट। नीधरिआ = निओट को, बगैर आसरे वालों को। अधारा = आसरा।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू जैसे मुझे रखता है, मैं उसी तरह रह सकता हूँ, (तेरी रजा के उलट) मेरा कोई जोर नहीं चल सकता। हे प्रभु! तू ही निओटिओं की ओट है, मुझे तो सिर्फ तेरे नाम का ही आसरा है।2।

जो तुम्ह करहु सोई भला मनि लेता मुकता ॥ सगल समग्री तेरीआ सभ तेरी जुगता ॥३॥

पद्अर्थ: मनि लेता = मान लेता है। मुकता = (अवगुणों से दुखों से) मुक्त व बचा हुआ। सगल = सारी। समग्री = सारे पदार्थ। जुगता = जुगती, मर्यादा।3।

अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तू करता है उसको जो मनुष्य (अपने) भले के लिए (होता) मान लेता है, वह (दुखों-कष्टों की मार से) बच जाता है। हे प्रभु! जगत के सारे पदार्थ तेरे बनाए हुए हैं, सारी ही सामग्री तेरी ही मर्यादा में चल रही है।3।

चरन पखारउ करि सेवा जे ठाकुर भावै ॥ होहु क्रिपाल दइआल प्रभ नानकु गुण गावै ॥४॥५॥३५॥

पद्अर्थ: पखारउ = मैं धोऊँ। करि = कर के। भावै = अच्छा लगे। गावै = गाता रहे।4।

अर्थ: हे प्रभु! हे मालिक! अगर तुझे अच्छा लगे, तो मैं तेरी सेवा-भक्ति करके तेरे चरण धोता रहूँ (भाव, अहंकार को त्याग के तेरे दर पर गिरा रहूँ)। हे प्रभु! दयावान हो, कृपा कर (ताकि तेरी दया और कृपा के बल पर तेरा दास) नानक तेरे गुण गाता रहे।4।5।35।

बिलावलु महला ५ ॥ मिरतु हसै सिर ऊपरे पसूआ नही बूझै ॥ बाद साद अहंकार महि मरणा नही सूझै ॥१॥

पद्अर्थ: मिरतु = मृत्यु, मौत। बाद = वाद विवाद, झगड़ा। साद = (पदार्थों के) स्वाद। महि = में।1।

अर्थ: हे भाई! मौत (हरेक मनुष्य के) सिर पर (खड़ी) हस रही है (कि मूर्ख मनुष्य माया के मोह में फंस के अपनी मौत को याद ही नहीं करता, पर) पशु (स्वभाव वाला मनुष्य ये बात) समझता ही नहीं। झगड़ों में (पदार्थों के) स्वादों में, अहंकार में (फंस के) मनुष्य को मौत सूझती ही नहीं।1।

सतिगुरु सेवहु आपना काहे फिरहु अभागे ॥ देखि कसु्मभा रंगुला काहे भूलि लागे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अभागे = हे अभागे! हे बद्किस्मत! देखि = देख के। रंगुला = सुंदर रंग वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे अभागे! क्यों भटकता फिरता है? अपने गुरु की शरण पड़ा रह। सुंदर रंग वाला कुसंभी (मन-मोहनी माया) देख क्यों गलत रास्ते पड़ रहा है?।1। रहाउ।

करि करि पाप दरबु कीआ वरतण कै ताई ॥ माटी सिउ माटी रली नागा उठि जाई ॥२॥

पद्अर्थ: दरबु = द्रव्य, धन। कीआ = इकट्ठा किया। कै ताई = की खातिर। सिउ = साथ। नागा = नंगा, खाली हाथ।2।

अर्थ: हे भाई! (सारी उम्र) पाप कर कर के ही मनुष्य अपने बरतने के लिए धन एकत्र करता रहा, (पर मौत आने पर इसके शरीर की) मिट्टी धरती से मिल गई, और जीव खाली हाथ ही उठ के चल पड़ा।2।

जा कै कीऐ स्रमु करै ते बैर बिरोधी ॥ अंत कालि भजि जाहिगे काहे जलहु करोधी ॥३॥

पद्अर्थ: जा कै कीऐ = जिस (संबंधियों) की खातिर। स्रमु = मेहनत। ते = वह (बहुवचन)। अंत कालि = आखिरी समय। भजि जाहिगे = साथ छोड़ जाएंगे। करोधी = क्रोध (की आग) में।3।

अर्थ: जिस संबंधियों की खातिर मनुष्य (धन एकत्र करने की) मेहनत करता है वह (आखिर तक इसका साथ नहीं निबाह सकते, इस वास्ते इसके साथ) वैर करने वाले विरोध करने वाले ही बनते हैं। हे भाई! तू (इनकी खातिर औरों से वैर सहेड़-सहेड़ के) क्यों क्रोध में जलता है? ये तो आखिरी वक्त पर तेरा साथ छोड़ जाएंगें3।

दास रेणु सोई होआ जिसु मसतकि करमा ॥ कहु नानक बंधन छुटे सतिगुर की सरना ॥४॥६॥३६॥

पद्अर्थ: रेण = चरणों की धूल। सोई = वही मनुष्य। मसतकि = माथे पर। करमा = भाग्य।4।

अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जागते हैं, वही मनुष्य प्रभु के भगतों की चरण-धूल बनता है। गुरु की शरण पड़ने से (माया के मोह के) बंधन टूट जाते हैं।4।6।36।

बिलावलु महला ५ ॥ पिंगुल परबत पारि परे खल चतुर बकीता ॥ अंधुले त्रिभवण सूझिआ गुर भेटि पुनीता ॥१॥

पद्अर्थ: पिंगुल = लूले। परे = पार लांघ गए। खल = मूर्ख बंदे। चतुर = समझदार। बकीता = वक्ता, बोलने वाले, बढ़िया व्याख्यान कर सकने वाले। अंधुले = अंधे मनुष्य को। त्रिभवण = तीनों भवन, सारी दुनिया। गुर भेटि = गुरु को मिल के। पुनीता = पवित्र जीवन वाले।1।

अर्थ: हे मित्र! गुरु को मिल के (मनुष्य) पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, (मानो) पिंगले मनुष्य पहाड़ों से पार लांघ जाते हैं, महा मूर्ख मनुष्य समझदार व्याख्यान-कर्ता बन जाते हैं, अंधे को तीनों भवनों की समझ पड़ जाती है।1।

महिमा साधू संग की सुनहु मेरे मीता ॥ मैलु खोई कोटि अघ हरे निरमल भए चीता ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। साधू संग की = गुरु की संगत की। मीता = हे मित्र! कोटि = करोड़ों। अघ = पाप। निरमल = पवित्र।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मित्र! गुरु की संगति की महिमा (ध्यान से) सुन। (जो भी मनुष्य नित्य गुरु की संगति में बैठता है, उसका) मन पवित्र हो जाता है, (उसके अंदर से विकारों की) मैल दूर हो जाती है, उसके करोड़ों पाप नाश हो जाते हैं।1। रहाउ।

ऐसी भगति गोविंद की कीटि हसती जीता ॥ जो जो कीनो आपनो तिसु अभै दानु दीता ॥२॥

पद्अर्थ: कीटि = कीड़े ने, विनम्र स्वभाव ने। हसती = हाथी, अहंकार। कीनो = बना लिया। तिसु = उस (मनुष्य) को। अभै = निर्भयता।2।

अर्थ: (हे मित्र! साधु-संगत में आ के की हुई) परमात्मा की भक्ति आश्चर्यजनक (ताकत रखती है, इसकी इनायत से) कीड़ी (विनम्रता) ने हाथी (अहंकार) को जीत लिया है। (भक्ति पर प्रसन्न हो के) जिस-जिस मनुष्य को (परमात्मा ने) अपना बना लिया, उसको परमात्मा ने निर्भयता की दाति दे दी।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh