श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 810 सिंघु बिलाई होइ गइओ त्रिणु मेरु दिखीता ॥ स्रमु करते दम आढ कउ ते गनी धनीता ॥३॥ पद्अर्थ: सिंघु = शेर, अहंकार। बिलाई = बिल्ली, निम्रता वाला स्वभाव। त्रिणु = तृण, तीला, गरीबी स्वभाव। मेरु = मेरु पर्वत, बड़ी ताकत। स्रमु = श्रम, मेहनत। दम आढ कउ = आधे दाम में, आधी कौड़ी के लिए। गनी = ग़नी, दौलतमंद। धनीता = धनी, धनाढ।3। अर्थ: (हे मित्र! गुरु की संगति की इनायत से) शेर (अहंकार) बिल्ली (निम्रता) बन जाता है, तीला (गरीबी स्वभाव) सुमेर पर्वत (जैसी बहुत बड़ी ताकत) दिखने लग जाता है। (जो मनुष्य पहले) आधी-आधी कौड़ी के लिए धक्के खाते फिरते हैं, वे दौलत-मंद धनाढ बन जाते हैं (माया की ओर से बेमुथाज हो जाते हैं)।3। कवन वडाई कहि सकउ बेअंत गुनीता ॥ करि किरपा मोहि नामु देहु नानक दर सरीता ॥४॥७॥३७॥ पद्अर्थ: कहि सकउ = मैं बता सकूँ। गुनीता = गुणों के मालिक। दर सरीता = दर का गुलाम।4। अर्थ: (हे मित्र! साधु-संगत में से मिलते हरि-नाम की) मैं कौन-कौन सी महिमा बताऊँ? परमात्मा का नाम बेअंत गुणों का मालिक है। हे नानक! अरदास कर, और, (कह: हे प्रभु!) मैं तेरे दर का गुलाम हूँ, मेहर कर और, मुझे अपना नाम बख्श।4।7।37। बिलावलु महला ५ ॥ अह्मबुधि परबाद नीत लोभ रसना सादि ॥ लपटि कपटि ग्रिहि बेधिआ मिथिआ बिखिआदि ॥१॥ पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंबुद्धि, अहंकार वाली मति, मैं मैं करने वाली अक्ल। परबाद = प्रवाद, दूसरे को वंगारने वाले जोश भरे कड़वे बोल। नीत = नित्य, सदा। सादि = स्वाद में। रसना = जीभ। लपटि = लिपट के, फस के। कपटि = कपट में, ठगी फरेब में। ग्रिहि = घर (के मोह) में। मिथिआ = नाशवान। बिखिआद = बिखिआ आदि, माया वगैरा।1। अर्थ: (प्रभु के नाम से टूट के मनुष्य) अहंकार की बुद्धि के आसरे दूसरों को ललकारने वाले कड़वे बोल बोलता है, सदा लालच और जीभ के स्वाद में (फसा रहता है); घर (के मोह) में, ठगी-फरेब में फंस के, नाशवान माया (के मोह) में भेदा रहता है।1। ऐसी पेखी नेत्र महि पूरे गुर परसादि ॥ राज मिलख धन जोबना नामै बिनु बादि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पेखी = देखी है। महि = में। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। बादि = व्यर्थ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की कृपा से मैंने अपनी आँखों से ही (जगत के पदार्थों की) ऐसी हालत देख ली है (कि दुनिया की) बादशाहियाँ, ज़मीनों (की मल्कियत), धन और जवानी (आदि सारे ही) परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ हैं।1। रहाउ। रूप धूप सोगंधता कापर भोगादि ॥ मिलत संगि पापिसट तन होए दुरगादि ॥२॥ पद्अर्थ: धूप = धुखाने वाली सुगंधित वस्तुएं। सोगंधता = खुशबू। कापर = कपड़े। भोगादि = भोग आदि, खाने वाले बढ़िया पदार्थ। संगि = साथ। पापिसट = महा पापी। तन = शरीर। दुरगादि = दुर्गन्धि।2। अर्थ: (प्रभु के नाम से विछुड़ के) महा विकारी मनुष्य (शरीर का गर्व करता है, पर इस विकारी) शरीर के साथ छू के सुंदर-सुंदर पदार्थ, धूप आदि सुगंधियाँ, बढ़िया कपड़े, बढ़िया पकवान (ये सारे ही) दुर्गन्धि देने वाले बन जाते हैं।2। फिरत फिरत मानुखु भइआ खिन भंगन देहादि ॥ इह अउसर ते चूकिआ बहु जोनि भ्रमादि ॥३॥ पद्अर्थ: फिरत फिरत = (कई जूनियों में) भटकते भटकते। खिन भंगन = एक छिन में नाश हो जाने वाला। देहादि = देह, शरीर। अउसर = अवसर। ते = से। चुकिआ = चूक गया, (मौका) हाथ से निकल गया। भ्रमादि = भटकता है।3। अर्थ: हे भाई! अनेक जूनियों में भटकता-भटकता जीव मनुष्य बनता है, ये शरीर भी एक छिन में नाश हो जाने वाला है (इसका गुमान भी कैसा? इस शरीर में भी परमात्मा के नाम से टूटा रहता है)। इस मौके से विछुड़ा हुआ जीव (फिर) अनेक जूनियों में जा भटकता है।3। प्रभ किरपा ते गुर मिले हरि हरि बिसमाद ॥ सूख सहज नानक अनंद ता कै पूरन नाद ॥४॥८॥३८॥ पद्अर्थ: किरपा ते = कृपा से। बिसमाद = विस्माद, आश्चर्यरूप। ता कै = उस (मनुष्य) के हृदय में। नाद = धुनि, शब्द, बाजे। सहज = आत्मिक अडोलता।4। अर्थ: हे नानक! परमात्मा की कृपा से जो मनुष्य गुरु को मिल गए, उन्होंने आश्चर्य रूप से हरि का नाम जपा, उनके हृदय में आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद के बाजे सदा बजने लग पड़े।4।8।38। बिलावलु महला ५ ॥ चरन भए संत बोहिथा तरे सागरु जेत ॥ मारग पाए उदिआन महि गुरि दसे भेत ॥१॥ पद्अर्थ: बोहिथा = जहाज। सागरु = (संसार) समुंदर। जेत = जितु, जिस (जहाज) द्वारा। मारग = रास्ता। उदिआन = जंगल, (विकारों की ओर ले जाने वाला) भटकाव भरा राह। गुरि = गुरु ने।1। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को हरि-नाम स्मरण का) भेद गुरु ने बता दिया, उसने (विकारों की ओर ले जाने वाले) बीयाबान-जंगल में (भी जीवन का सही) रास्ता ढूँढ लिया, गुरु के चरण (उस मनुष्य के लिए) जहाज बन गए जिस (जहाज) के माध्यम से वह मनुष्य (संसार-) समुंदर से पार लांघ गया।1। हरि हरि हरि हरि हरि हरे हरि हरि हरि हेत ॥ ऊठत बैठत सोवते हरि हरि हरि चेत ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हेत = हित, प्यार। चेत = चेते कर, स्मरण कर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! उठते-बैठते-सोए हुए (हर वक्त) परमात्मा का नाम याद करा कर। सदा ही हर वक्त परमात्मा के नाम में प्यार डाल।1। रहाउ। पंच चोर आगै भगे जब साधसंगेत ॥ पूंजी साबतु घणो लाभु ग्रिहि सोभा सेत ॥२॥ पद्अर्थ: पंच = (कामादिक) पाँच। आगै = आगे से, मुकाबले पर। भगे = दौड़ जाते हैं। संगेत = संगति। पूंजी = (आत्मिक जीवन वाली) राशि, संपत्ति, धन-दौलत। घणो = बहुत। ग्रिहि = घर में, प्रभु की हजूरी में। सेत = से, साथ।2। अर्थ: (हे भाई!) जब (मनुष्य) साधु-संगत में (जा टिकता है, तब कामादिक) पाँचों चोर उससे टकराने का साहस नहीं करते (उससे दूर भाग जाते हैं)। (तब ना सिर्फ) उसके आत्मिक जीवन की सारी की सारी राशि-पूंजी (लूटे जाने से) बच जाती है। (बल्कि, उसको इस नाम के व्यापार में) बहुत सारा फायदा भी होता है, और परलोक में शोभा ले के जाता है।2। निहचल आसणु मिटी चिंत नाही डोलेत ॥ भरमु भुलावा मिटि गइआ प्रभ पेखत नेत ॥३॥ पद्अर्थ: निहचल = अडोल। डोलेत = (विकारों में) डोलता। भरमु = भटकना। नेत = नेत्री, आँखों से।3। अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से हर जगह) आँखों से परमात्मा के दर्शन करके उस मनुष्य की भटकना समाप्त हो जाती है, गलत रास्ते पर जाने वाली आदत दूर हो जाती है, (विकारों के मुकाबले में) उसका हृदय-आसन अटल हो जाता है, उसकी (हरेक किस्म की) चिन्ता मिट जाती है, वह मनुष्य (विकारों के सामने) डोलता नहीं।3। गुण गभीर गुन नाइका गुण कहीअहि केत ॥ नानक पाइआ साधसंगि हरि हरि अम्रेत ॥४॥९॥३९॥ पद्अर्थ: गभीर = गंभीर, गहरा (समुंदर)। गुण नाइका = गुणों का मालिक, गुणों का खजाना। कहीअहि = कहे जाते हैं। कहीअहि केत = कितने (गुण) कहे जा सकते? साध संगि = गुरु की संगति में। अंम्रेत = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम जल।4। अर्थ: हे नानक! परमात्मा गुणों का अथाह समुंदर है, गुणों का खजाना है (बयान करने से) उसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। पर जो मनुष्य साधु-संगत में टिक के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीता है, उसको परमात्मा का मिलाप प्राप्त हो जाता है।4।9।39। बिलावलु महला ५ ॥ बिनु साधू जो जीवना तेतो बिरथारी ॥ मिलत संगि सभि भ्रम मिटे गति भई हमारी ॥१॥ पद्अर्थ: साधू = गुरु। तेतो = उतना ही, वह सारा ही। संग = (गुरु के) साथ। भ्रम = भटकना। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। अर्थ: (हे भाई!) गुरु (के मिलाप) के बिना जितनी भी उम्र गुजारनी है, वह सारी व्यर्थ चली जाती है। गुरु की संगति में मिलते ही सारी भटकनें मिट जाती हैं, (गुरु की कृपा से) हम जीवों को उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है।1। जा दिन भेटे साध मोहि उआ दिन बलिहारी ॥ तनु मनु अपनो जीअरा फिरि फिरि हउ वारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जा दिन = जिस दिन। साधू = गुरु जी। भेटे = मिले। मोहि = मुझे। उआ दिन = उस दिन से। जीअरा = प्यारी जीवात्मा। हउ = मैं। वारी = वारूँ, कुर्बान करूँ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं तो उस दिन पर सदके जाता हूँ, जिस दिन मुझे मेरे गुरु (पातशाह) मिल गए। अब मैं (अपने गुरु से) अपना शरीर, अपना मन, अपनी प्यारी जीवात्मा बारंबार सदके करता हूँ।1। रहाउ। एत छडाई मोहि ते इतनी द्रिड़तारी ॥ सगल रेन इहु मनु भइआ बिनसी अपधारी ॥२॥ पद्अर्थ: एत = ऐत (अपराधी), इतना अपनत्व। मोहि ते = मुझसे। इतनी = इतनी (विनम्रता)। द्रिढ़तारी = दृढ़ता। रेन = चरण धूल। अपधारी = अपनत्व।2। अर्थ: हे भाई! (गुरु ने कृपा करके) मुझसे अपनत्व (मोह की पकड़) इतना छुड़वा दिया है, और विनम्रता (मेरे हृदय में) इतनी पक्की कर दी है कि अब मेरा ये मन सभी की चरण-धूल बन गया है, हर वक्त अपने ही स्वार्थ का ख्याल मेरे अंदर से खत्म हो गया है।1। निंद चिंद पर दूखना ए खिन महि जारी ॥ दइआ मइआ अरु निकटि पेखु नाही दूरारी ॥३॥ पद्अर्थ: निंद चिंद = निंदा का ख्याल। पर दूखना = दूसरों का बुरा चितवना। ए = ये विकार। जारी = जला दिए। मइआ = तरस। अरु = और। निकटि पेखु = प्रभु को नजदीक देखना। दूरारी = दूर।3। नोट: शब्द ‘अरि’ और ‘अरु’ में फर्क याद रखने योग्य है। अर्थ: हे भाई! गुरु ने मेरे अंदर से पराई निंदा का ख्याल, दूसरों का बुरा देखना - ये सब कुछ एक छिन में ही जला दिए हैं। (दूसरों पर) दया (करनी), (जरूरतमंदों पर) तरस (करना), और (परमात्मा को हर वक्त) अपने नजदीक देखना- ये हर वक्त मेरे अंदर बसते हैं।3। तन मन सीतल भए अब मुकते संसारी ॥ हीत चीत सभ प्रान धन नानक दरसारी ॥४॥१०॥४०॥ पद्अर्थ: सीतल = ठंडे ठार, शांत। अब = अब। मुकते = आजाद। संसारी = दुनियां के बंधनों से। हीत = हित, लगन। चीत = चिक्त, तवज्जो, ध्यान। प्रान = जिंद।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जब से मुझे गुरु मिल गया है, उसकी मेहर से) अब मेरा मन और तन (विकारों की तरफ से) शांत हो गए हैं, दुनियाँ के मोह और बंधनो से आजाद हो गए हैं। अब मेरी लगन, मेरी तवज्जो, मेरी जीवात्मा प्रभु के दर्शनों में ही मगन है, प्रभु के दर्शन ही मेरे वास्ते धन (पदार्थ) हैं।4।10।40। बिलावलु महला ५ ॥ टहल करउ तेरे दास की पग झारउ बाल ॥ मसतकु अपना भेट देउ गुन सुनउ रसाल ॥१॥ पद्अर्थ: करउ = करूँ, करता रहूँ। पर = पैर। झारउ = झाड़ दूँ। बाल = केसों से। मसतकु = माथा, सिर। भेट देउ = मैं अर्पण कर दूँ। सुनउ = सुनूँ। रसाल = (रस आलय) स्वादिष्ट।1। अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं तेरे सेवक की सेवा करता रहूँ। मैं (तेरे सेवक के) चरण (अपने) केसों से झाड़ता रहूँ। मैं अपना सिर (तेरे सेवक के आगे) भेटा कर दूँ, (और उससे तेरे) रस भरे गुण सुनता रहूँ।1। तुम्ह मिलते मेरा मनु जीओ तुम्ह मिलहु दइआल ॥ निसि बासुर मनि अनदु होत चितवत किरपाल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीओ = जी जाता है, आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। दइआल = हे दया के श्रोत! निसि = रात। बासुर = दिन। मनि = मन में (शब्द ‘मनि’ और ‘मनु’ का व्याकर्णिक अर्थ याद रखें)। किरपाल = हे कृपा के श्रोत!।1। रहाउ। अर्थ: हे दया के श्रोत प्रभु! तुझे मिलके मेरा मन आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। हे कृपा के घर प्रभु! (तेरे गुण) याद करते हुए दिन-रात मेरे मन में आनंद बना रहता है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |