श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 812 बिलावलु महला ५ ॥ स्रवनी सुनउ हरि हरि हरे ठाकुर जसु गावउ ॥ संत चरण कर सीसु धरि हरि नामु धिआवउ ॥१॥ पद्अर्थ: स्रवनी = श्रवणों से, कानों से। सुनउ = मैं सुनूँ। जसु = यश, महिमा। गावउ = गाऊँ। कर = हाथ (बहुवचन)। सीसु = सिर। धरि = धर के।1। अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं अपने कानों से सदा (तुझ) हरि का नाम सुनता रहूँ, (तुझ) ठाकुर की महिमा गाता रहूँ। संतों के चरणों पर मैं अपने दोनों हाथ और अपना सिर रख कर (तुझ) हरि का नाम स्मरण करता रहूँ।1। करि किरपा दइआल प्रभ इह निधि सिधि पावउ ॥ संत जना की रेणुका लै माथै लावउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करि = (क्रिया)। प्रभ = हे प्रभु! निधि = नो खजाने। सिधि = अठारह सिद्धियाँ। पावउ = पाऊँ। रेणुका = चरण धूल। माथै = माथे पर। लै = ले कर। लावउ = लगाऊँ।1। रहाउ। अर्थ: हे दया के श्रोत प्रभु! मेहर कर, मैं तेरे संत-जनों की चरण-धूल ले के अपने माथे पर (सदा) लगाता रहूँ। (मैं तेरे दर से) यह (दाति) हासिल कर लूँ, (यही मेरे वास्ते दुनिया के) नौ खजाने (हैं, यही मेरे वास्ते अठारह) सिद्धियाँ (हैं)।1। रहाउ। नीच ते नीचु अति नीचु होइ करि बिनउ बुलावउ ॥ पाव मलोवा आपु तिआगि संतसंगि समावउ ॥२॥ पद्अर्थ: ते = से। नीच ते नीचु = नीचे से नीचा। होइ = हो के। करि = कर के। बिनउ = विनती। पाव = दोनों पैर। मलोवा = मलूं, मैं मलूँ, मैं घोटूं। आपु = स्वै भाव। तिआगि = त्याग के। संगि = संगति में। समावउ = समाऊँ।2। नोट: ‘थाव’ है ‘थाउ’ का बहुवचन। अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं नीच से नीचा बहुत नीचा हो के (संतों के आगे) विनती करके उनको बुलाता रहूँ, मैं स्वै भाव छोड़ के संतों के पैर मलता रहूँ और संतों की संगति में टिका रहूँ।2। सासि सासि नह वीसरै अन कतहि न धावउ ॥ सफल दरसन गुरु भेटीऐ मानु मोहु मिटावउ ॥३॥ पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक साँस के साथ। अन = (अन्य) और। अन कतहि = किसी भी और जगह। धावउ = मैं दौड़ूं, मैं भटकूँ। सफल = कामयाब। सफल दरसन = जिसके दर्शन जीवन को कामयाब बनाता है। भेटीऐ = मिल जाए। मिटावउ = समा जाऊ, खुद को मिटा दूँ।3। अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मुझे हरेक साँस के साथ कभी तेरा नाम ना भूले (गुरु का दर छोड़ के) मैं किसी और तरफ़ ना भटकता फिरूँ। (हे प्रभु! अगर तेरी मेहर हो तो) मुझे वह गुरु मिल जाए, जिसका दर्शन जीवन को कामयाब कर देता है, (गुरु के दर पर टिक के) मैं (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लूँ, मोह को मिटा दूँ।3। सतु संतोखु दइआ धरमु सीगारु बनावउ ॥ सफल सुहागणि नानका अपुने प्रभ भावउ ॥४॥१५॥४५॥ पद्अर्थ: बनावउ = बनाऊँ। प्रभ भावउ = मैं प्रभु को अच्छा लगूँ।4। अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं सत्य को, संतोख को, दया को, धर्म को, (अपने आत्मिक जीवन की) सजावट बनाए रखूँ। हे नानक! (कह: जैसे) सोहागिन स्त्री (अपनी पति को प्यारी लगती है, वैसे ही, अगर उसकी मेहर हो, तो) कामयाब जीवन वाला बन के अपने प्रभु को प्यारा लग सकता हूँ।4।15।45। बिलावलु महला ५ ॥ अटल बचन साधू जना सभ महि प्रगटाइआ ॥ जिसु जन होआ साधसंगु तिसु भेटै हरि राइआ ॥१॥ पद्अर्थ: अटल = कभी ना टलने वाले। साधू बचन = गुरु के वचन। जना = हे भाई! सभ महि = सारी श्रृष्टि में। प्रगटाइआ = प्रगट कर दिया है। साध संगु = गुरु का संग। तिसु = उस (मनुष्य) को। भेटै = मिल जाता है।1। अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन कभी टलने वाले नहीं हैं। गुरु ने सारे जगत में ये बात प्रकट रूप से सुना दी है कि जिस मनुष्य को गुरु का संग प्राप्त होता है, उसको प्रभु-पातशाह मिल जाता है।1। इह परतीति गोविंद की जपि हरि सुखु पाइआ ॥ अनिक बाता सभि करि रहे गुरु घरि लै आइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: परतीति = यकीन, निश्चय। जपि = जप के। सभि = सारे जीव। घरि = घर में, प्रभु चरणों में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सारे जीव (और-और) अनेक बातें कर कर के थक जाते हैं (और-और बातें सफल नहीं होतीं), गुरु (ही) प्रभु चरणों में (जीव को) ला जोड़ता है। (गुरु ही) परमात्मा के बारे में यह निश्चय (जीव के अंदर पैदा करता है कि) परमात्मा का नाम जप के (मनुष्य) आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1। रहाउ। सरणि परे की राखता नाही सहसाइआ ॥ करम भूमि हरि नामु बोइ अउसरु दुलभाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: सहसाइआ = शक। करम भूमि = कर्म (बीजने के लिए) धरती, मानव जन्म, मानव शरीर। बोइ = बीजो। अउसरु = अवसर, मौका, मानव जन्म का समय। दुलभाइआ = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला।2। अर्थ: (हे भाई! गुरु बताता है कि) परमात्मा उस मनुष्य की इज्जत रख लेता है जो उसकी शरण आ पड़ता है; इसमें रक्ती भर भी शक नहीं। (इस वास्ते, हे भाई!) इस मनुष्य शरीर में परमात्मा के नाम का बीज बीजो। यह मौका बड़ी मुश्किल से मिलता है।2। अंतरजामी आपि प्रभु सभ करे कराइआ ॥ पतित पुनीत घणे करे ठाकुर बिरदाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। पतित = विकारी, (पापों में) गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। घणे = अनेक, बहुत। बिरदाइआ = बिरदा, आदि कदीमी स्वभाव।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु बताता है कि) परमात्मा स्वयं ही हरेक के दिल की जानने वाला है। सारी सृष्टि वैसे ही करती है जैसे परमात्मा प्रेरता है। (शरण पड़े) अनेक ही विकारियों को परमात्मा पवित्र जीवन वाला बना देता है; ये उसका मूल बिरद भरा स्वभाव है।3। मत भूलहु मानुख जन माइआ भरमाइआ ॥ नानक तिसु पति राखसी जो प्रभि पहिराइआ ॥४॥१६॥४६॥ पद्अर्थ: मानुख जन = हे मनुष्यो! माइआ भरमाइआ = माया की भटकना में पड़ कर। पति = इज्जत। प्रभि = प्रभु ने। पहिराइआ = पहनाया, सिरोपा दिया, सम्मान दिया।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मनुष्यो! माया की भटकना में पड़ कर ये बात भूल ना जाना कि जिस मनुष्य को प्रभु ने खुद आदर बख्शा (बड़ाई दी) उसकी वह इज्जत जरूर रख लेता है।4।16।46। बिलावलु महला ५ ॥ माटी ते जिनि साजिआ करि दुरलभ देह ॥ अनिक छिद्र मन महि ढके निरमल द्रिसटेह ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। साजिआ = बनाया। देह = शरीर। छिद्र = ऐब। द्रिसटेह = देखने को।1। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (जीव का) दुर्लभ मानव शरीर बना के मिट्टी से इसको पैदा कर दिया, उसने ही जीव के अनेक ही ऐब उसके अंदर छुपा कर रखे हैं, जीव का शरीर फिर भी साफ-सुथरा दिखता है।1। किउ बिसरै प्रभु मनै ते जिस के गुण एह ॥ प्रभ तजि रचे जि आन सिउ सो रलीऐ खेह ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनै ते = मन से। जि = जो मनुष्य। तजि = छोड़ के। आन सिउ = (अन्य) और से। खेह = मिट्टी।1। रहाउ। नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस (परमात्मा) के यह (अनेक) गुण हैं, वह हमारे मन से कभी भी भूलना नहीं चाहिए। जो मनुष्य प्रभु (की याद) छोड़ के और-और पदार्थों के साथ मोह बनाता है, वह मिट्टी में मिल जाता है (उसका जीवन व्यर्थ चला जाता है)।1। रहाउ। सिमरहु सिमरहु सासि सासि मत बिलम करेह ॥ छोडि प्रपंचु प्रभ सिउ रचहु तजि कूड़े नेह ॥२॥ पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस के साथ। बिलम = देर, ढील। मत करेह = मत करो, ना करनी। प्रपंच = ये दिखता जगत। कूड़े = झूठे, नाशवान।2। अर्थ: हे भाई! हरेक सांस के साथ हर वक्त उस परमात्मा को याद करते रहो। देखना, रक्ती भर भी ढील नहीं करनी। हे भाई! दुनिया के नाशवान पदार्थों का प्यार त्याग के, दिखाई देते जगत का मोह छोड़ के, परमात्मा के साथ प्यार बनाए रखो।2। जिनि अनिक एक बहु रंग कीए है होसी एह ॥ करि सेवा तिसु पारब्रहम गुर ते मति लेह ॥३॥ पद्अर्थ: होसी = कायम रहेगा। सेवा = भक्ति। ते = से। मति = अक्ल, शिक्षा।3। अर्थ: हे भाई! जिस एक परमात्मा ने (अपने आप से जगत के) यह अनेक बहुत रंग बना दिए हैं, वह अब भी (हर जगह) मौजूद है, आगे को भी (सदा) कायम रहेगा। गुरु से शिक्षा ले के उस परमात्मा की सेवा-भक्ति किया करो।3। ऊचे ते ऊचा वडा सभ संगि बरनेह ॥ दास दास को दासरा नानक करि लेह ॥४॥१७॥४७॥ पद्अर्थ: सभ संगि = सारी सृष्टि के साथ। बरनेह = बयान किया जाता है। को = का। दासरा = छोटा सा दास। करि लेह = बना ले।4। अर्थ: हे भाई! वह प्रभु (जगत की) ऊँची से ऊँची हस्ती से भी ऊँचा है, बड़ों से भी बड़ा है, वैसे वह सारे जीवों के साथ (बसता हुआ भी) बताया जाता है। हे नानक! (उस प्रभु के दर पर अरदास कर, और कह: हे प्रभु!) मुझे अपने दासों के दासों का छोटा सा दास बना ले।4।17।47। बिलावलु महला ५ ॥ एक टेक गोविंद की तिआगी अन आस ॥ सभ ऊपरि समरथ प्रभ पूरन गुणतास ॥१॥ पद्अर्थ: टेक = ओट। अन = अन्य। समरथ = समर्थ, ताकतवर। गुण तास = गुणों का खजाना।1। अर्थ: हे भाई! प्रभु के भक्त एक प्रभु की ही ओट लेते हैं, अन्य (आसरों की) आस त्याग देते हैं। (उन्हें विश्वास रहता है कि) प्रभु सब जीवों पर ताकत रखने वाला है, सब ताकतों से भरपूर है, सब गुणों का खजाना है।1। जन का नामु अधारु है प्रभ सरणी पाहि ॥ परमेसर का आसरा संतन मन माहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जन = दास, सेवक। अधारु = आसरा। पाहि = (दास) पड़ते हैं। माहि = में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवकों (की जिंदगी) का आसरा परमात्मा का नाम (ही होता) है, सेवक सदा परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, सेवकों के मन में सदा परमात्मा (के नाम) का ही सहारा होता है।1। रहाउ। आपि रखै आपि देवसी आपे प्रतिपारै ॥ दीन दइआल क्रिपा निधे सासि सासि सम्हारै ॥२॥ पद्अर्थ: आपि = प्रभु सवयं। प्रतिपारै = पालता है। क्रिपा निधे = कृपा का खजाना। सासि सासि = (जीव के) हरेक सांस के साथ। समारै = संभाल करता है।2। अर्थ: (हे भाई! संतजनों को यकीन है कि) परमात्मा स्वयं हरेक जीव की रक्षा करता है, खुद हरेक दाति देता है, खुद ही (हरेक की) पालना करता है, प्रभु दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का श्रोत है, और (हरेक जीव की) हरेक सांस के साथ संभाल करता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |